हमदर्द समझ जिसको मैंने, जख्म दिखाये थे अपने
छिडका नमक उसी ने इतना , मैं दर्द पुराना भूल चुका
मेरे घर की नींव हिला दी, मेरे रोपे पेड की चूलों ने
अब तो तौबा करली भैया, मैं पौध लगाना भूल चुका
कितने लोग मिलते है अब भी, बन कर मेरे अपने से
हाथ मिलाता हूं सबसे पर, दिल का मिलाना भूल चुका
रुकता हूं हर मोड पर लेकिन मुडकर पीछे देखा नहीं
याद तेरी है दिल में लेकिन, वो तेरा ठिकाना भूल चुका
मुहब्बत, अदावत, बेरूखी, वफ़ा अब तो सारे देख लिये
गुजरे हादसे याद हैं मुझको, जिनको जमाना भूल चुका
आईना हूं मैं लेकिन जाने क्यों, अक्श दिखाना भूल चुका
रंग बदलते चेहरे देख-देख कर, रंग में आना भूल चुका
झूठी मुस्कानों के पीछे, जब उठती देखीं लपटें नफ़रत की
प्रेम भरा है रग-रग में लेकिन, मैं प्रेम का गाना भूल चुका
रोने वालों की कदर कहां इस हंसती गाती दुनिया में
समझा इस राज को जबसे, मैं अश्क बहाना भूल चुका
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
16 कविताप्रेमियों का कहना है :
मोहिन्दर जी
"हिन्दी गज़ल" को यदि कोई विधा माना जाता है तो उसमें आपने अपनी इस शैली और प्रयोग से नया आयाम जोडा है।
हमदर्द समझ जिसको मैंने, जख्म दिखाये थे अपने
छिडका नमक उसी ने इतना , मैं दर्द पुराना भूल चुका
झूठी मुस्कानों के पीछे, जब उठती देखीं लपटें नफ़रत की
प्रेम भरा है रग-रग में लेकिन, मैं प्रेम का गाना भूल चुका
बहुत सुन्दर रचना।
*** राजीव रंजन प्रसाद
बहुत खूब। डूब कर लिखा है आपनें।
हमदर्द समझ जिसको मैंने, जख्म दिखाये थे अपने
छिडका नमक उसी ने इतना , मैं दर्द पुराना भूल चुका
-रचना सागर
मुहब्बत, अदावत, बेरूखी, वफ़ा अब तो सारे देख लिये
गुजरे हादसे याद हैं मुझको, जिनको जमाना भूल चुका
very nice and touching
झूठी मुस्कानों के पीछे, जब उठती देखीं लपटें नफ़रत की
प्रेम भरा है रग-रग में लेकिन, मैं प्रेम का गाना भूल चुका
रोने वालों की कदर कहां इस हंसती गाती दुनिया में
समझा इस राज को जबसे, मैं अश्क बहाना भूल चुक
bahut sundar likha hai mohindar ji...
laajavaab hai
रुकता हूं हर मोड पर लेकिन मुडकर पीछे देखा नहीं
याद तेरी है दिल में लेकिन, वो तेरा ठिकाना भूल चुका
आईना हूं मैं लेकिन जाने क्यों, अक्श दिखाना भूल चुका
रंग बदलते चेहरे देख-देख कर, रंग में आना भूल चुका
झूठी मुस्कानों के पीछे, जब उठती देखीं लपटें नफ़रत की
प्रेम भरा है रग-रग में लेकिन, मैं प्रेम का गाना भूल चुका
Bahut khoob.....aap to gazalon ke sartaj ban chuke hain.....aisi hi khoobsurat gazal padhate rahiye hamen bas....God bless you
Anupama
मोहिन्दर जी!
भाव की दृष्टि से रचना बहुत सशक्त और खूबसूरत है. मगर शब्द कहीं कहीं कविता की लय में व्यवधान डाल रहे हैं. शायद इस बार आपने कविता ज़ल्दबाजी में पोस्ट कर दी.
उमड़े ख्यालों के दरिया में, यों मैने गोते खाये हैं
जो दादे-सुख़न की रस्में हैं, मैं उन्हेम निभा भूल चुका
आईना हूं मैं लेकिन जाने क्यों, अक्श दिखाना भूल चुका
रंग बदलते चेहरे देख-देख कर, रंग में आना भूल चुका
अति सुंदर ....बधाई
बहुत अच्छी रचना है।
मोहिन्दर जी,
गज़ल पर आप महारत हासिल करते जा रहे हैं
बहुत अच्छा लिखा है एक बार फिर से
"रोने वालों की कदर कहां इस हंसती गाती दुनिया में
समझा इस राज को जबसे, मैं अश्क बहाना भूल चुका "
सब भले भूल जाइये हम मित्रों को मत भूलियेगा :-)
बस प्रवाह कहीं-कहीं अवरुद्ध सा लगता है,लेकिन यह शिल्प का मसला है
बाकी भाव अच्छे और गंभीर हैं
हार्दिक बधाई
सादर
गौरव शुक्ल
सब लोग सच ही कह रहे हैं मोहिन्दर जी कि आप गज़लों के सरताज़ हो चुके हैं। इस बार भी आपने बहुत प्रभावित किया है। बिल्कुल दिल से कलम तक का सफर तय किया है इस गज़ल ने, बिना कहीं रुके हुए।
मेरे घर की नींव हिला दी, मेरे रोपे पेड की चूलों ने
अब तो तौबा करली भैया, मैं पौध लगाना भूल चुका
झूठी मुस्कानों के पीछे, जब उठती देखीं लपटें नफ़रत की
प्रेम भरा है रग-रग में लेकिन, मैं प्रेम का गाना भूल चुका
रोने वालों की कदर कहां इस हंसती गाती दुनिया में
समझा इस राज को जबसे, मैं अश्क बहाना भूल चुका
बहुत खूब।
मोहिन्दर जी भाव बड़े हीं अच्छे बन पड़े हैं। एक-एक शब्द हृदय में पैठ कर गए हैं। इस विधा के आप उस्ताद होते जा रहे हैं। लेकिन इस बार थोड़ी सी कमी लगी मुझे। आपने फिनिसिंग में शायद वक्त नहीं दिया है या फिर आप किसी जल्दीबाजी में थे। कहीं-कहीं आप मीटर से बाहर हुए हैं या फिर कुछ लंबे शब्द चुन लिए हैं आपने।
आईना हूं मैं लेकिन जाने क्यों, अक्श दिखाना भूल चुका
रंग बदलते चेहरे देख-देख कर, रंग में आना भूल चुका
मेरे विचार से इस शेर को सबसे शुरू में होना चाहिए था। तब यह रचना पूरी गज़ल हो जाती । इस गजल में "मतला" की जो कमी है, वो भी पूरी हो जाती। बाकी आप जैसा सोचें। कृप्या आप इसे अन्यथा न लेंगे।
एक भावपूर्ण रचना के लिए बधाई स्वीकारें।
कितने लोग मिलते है अब भी, बन कर मेरे अपने से
हाथ मिलाता हूं सबसे पर, दिल का मिलाना भूल चुका
रुकता हूं हर मोड पर लेकिन मुडकर पीछे देखा नहीं
याद तेरी है दिल में लेकिन, वो तेरा ठिकाना भूल चुका...
बहुत सुन्दर रचना।.बधाई
बहुत खूब। दिल की नब्ज पकडना कॊई आपसे सीखे। गजल पढकर डा बशीर बद्र साहब का एक शे'र याद आ गया
"कॊई हाथ भी न मिलाएगा जॊ गले मिलॊगे तपाक से
यह नए दॊर का शहर है जरा फासले से मिला करॊ"
गzअल....भवो के लिए ही प्रसिद्ध है और आप उसकी महत्ता को बरक़रार रखने मे कामयाब हुए है....
कितने लोग मिलते है अब भी, बन कर मेरे अपने से
हाथ मिलाता हूं सबसे पर, दिल का मिलाना भूल चुका
और
अक्स दिखाना भूल चुका.....
दर्द मे तैर उठा मै
बधाइयाँ...
इससे शायद ही कोई इनकार करे कि हिन्द-युग्म पर आपकी प्रकाशित हिन्दी-ग़ज़लों में सर्वाशिक सशक्त है।
निम्न शे'र में 'मैं' का प्रयोग ज़रूरी नहीं था, अगर आप 'मैं' शब्द हटाते हैं तो प्रवाह भी सभी शे'रों की तरह होगा।
झूठी मुस्कानों के पीछे, जब उठती देखीं लपटें नफ़रत की
प्रेम भरा है रग-रग में लेकिन, मैं प्रेम का गाना भूल चुका
क्योंकि आपके निम्न शे'र में 'मैं' के बिना काम चल रहा है-
कितने लोग मिलते है अब भी, बन कर मेरे अपने से
हाथ मिलाता हूं सबसे पर, दिल का मिलाना भूल चुका
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)