काव्य-पल्लवन सामूहिक कविता-लेखन
विषय - प्यास
विषय-चयन - गौरव सोलंकी
अंक - पंचम
माह - जुलाई 2007
माह का अंतिम वृहस्पतिवार काव्य-पल्लवन की कविताओं का रसास्वादन करने का दिन है। जून माह में काव्य पल्लवन के लिये केवल पाँच कविताएँ ही प्राप्त हो पायी थीं, परन्तु इस बार इस कार्यशाला को सभी के लिए खोलने से आशा अनुरूप अच्छा प्रतिउत्तर मिला और कुल २1 रचनाएँ प्राप्त हुईं। भविष्य में हमें काव्य-पल्लवन के लिए और अधिक रचनाएँ प्राप्त होंगीं ऐसा हमारा विश्वास है। इस बार का विषय 'प्यास' श्री गौरव सोलंकी द्वारा चुना गया है, और मुझे लगता है कि आप सभी को कुछ जलपान ले कर ही काव्य पल्लवन का रस लेने के लिए बैठना चाहिए क्योंकि २1 कवितायएँ पढ़ते-पढ़ते गला सूखना और प्यास लगना स्वाभाविक ही है... तो अब स्वाद लीजिये "प्यास" का.............................
***प्रतिभागी कवि***
कवि कुलवंत सिंह । निखिल आनंद गिरि । कुमार आशीष । सजीव सारथी । डॉ॰ शैलेन्द्र कुमार सक्सेना । रंजना भाटिया । दिनेश चन्द्र जैन । शैलेश भारतवासी । मोहिन्दर कुमार । अजय यादव । दिव्या श्रीवास्तव । आलोक शंकर । प्रशांत कुमार पाण्डे । पंकज तिवारी । सुनीता (शानू) । शोभा महेन्द्रू । मनीष वंदेमातरम् । अक्षय चोटिया । गौरव सोलंकी । विश्व दीपक 'तन्हा' । विपिन चौहान "मान"|
~~~अपने विचार, अपनी टिप्पणी दीजिए~~~
देखता हूँ टकटकी लगाये मैं आसमां की तरफ,
ढूँढ़ता हूँ मिल जाये कहीं एक बादल का टुकड़ा,
जो उड़ता हुआ आ जाये मेरे खेतों की तरफ,
औ उमड़-घुमड़ बरसाये जल की रिमझिम धारा।
सूनी आँखे चमक उठें बदली के आगमन पर,
मयूर मन नाच उठे क्षितिज पर बदली देखकर,
मेरे खेत की प्यासी मिट्टी, असिंचित, करे इंतजार,
बरसा की, जल की बूंदों की, हो कर बेकरार।
उमड़-घुमड़ करती बदली, कभी कर्णभेदी तुमुलनाद,
कभी बदली का वक्ष-वसन चीरती बिजली का आल्हाद,
मन में उठती आशंका, आज कहीं सौदामिनी गिरेगी !
लेकिन फिर डंका बजता, मेरे खेतों की प्यास बुझेगी।
गरजे लेकिन बरसे नहीं, उड़े बदली संदेश लिये,
पुलकित मन हो उदास पुकारे, लौट आ स्वाति बूँद पिये,
सूनी आँखों देखता दूर तक, बदली को ओझल होते,
चिर प्रतीक्षित आकांक्षा को, दिवा-स्वप्न सा टूटते।
एक टीस सी उठती मन में -
’बदली क्यों रूठी मुझसे !
क्या प्यार मेरा अपूर्ण था
यां उसे लगाव किसी गैर से ?’
कवि कुलवंत सिंह
प्यास इतनी कि ज़िन्दगी फ़ीकी,
तुम नहीं हो तो हर खुशी फ़ीकी..
एक माहताब-ए-हुस्न के आगे,
चाँद की सारी रौशनी फ़ीकी..
चन्द अल्फ़ाज़ ने ही कर डाली,
उमर भर की ही दोस्ती फ़ीकी..
दर्द की सीढियाँ न खत्म हुईं,
आँसुओं की पड़ी नदी फ़ीकी..
शहर की रौनकें न कर डालें,
मां के आँचल की ज्योत ही फ़ीकी....
निखिल आनन्द गिरि
बस एक बार नज़र भर उठा के देख तो लो
जनम-जनम की मेरी प्यास ठहर जायेगी
चले हो ऐसे कि जैसे हो वास्ता ही नहीं
बताओ कैसे मेरी आंख न भर आयेगी
मैं खो भी जाऊं तो इतना है इत्मीनान कि अब
जर्रे-जर्रे से मुझे मेरी खबर आयेगी
तश्न्नुजों से मेरा जेहन हो गया खाली
सुना है याद तेरी घर इधर बसायेगी
कुमार आशीष (आशीष दुबे)
प्यासे ही रहे
साहिल की रेत की तरह ,
दिन जलाए कभी
किरणे लपेटकर,
कभी सो गए
लहरे ओढ़ कर,
कितने कदम
दिल से होकर गुजरे,
कितनी स्मृतियाँ
राहों में गुम गयीं,
कितने किनारे
पानी में समा गए,
फिर भी
प्यासे ही रहे।
जिन्दगी तो थी वहीं
जिसके सायों को हमने
डूबते सूरज की आंखों मे देखा था,
उस बूढ़े पीपल की,
छाँव में ही, सुकून था कहीं,
उन नन्ही पगडंडियों से चलकर,
अब हम चौड़ी सड़कों पर आ गए,
हवाओं से भी तेज़,
हवाओं से भी परे,
भागते ही रहे,
फिर भी,
प्यासे ही रहे।
एक नन्हीं-सी चिंगारी
कहीं राख में दबी थी,
लपक कर उसने
किरणों को छू लिया,
सूखे पत्तों को आग दी,
हवाओं में उड़ा दिया,
कहीं अपना था कुछ
जिसे खो दिया,
और मोल ले लिया,
एक चमकता हुआ "कतरा"
डूबते रहे,
डूबते ही रहे,
फिर भी,
प्यासे ही रहे,
प्यासे ही रहे।
सजीव सारथी
सिराहने पड़ी चिठ्ठी रात भर फड़्फड़ाती रही
दूर कहीं गले की प्यास जिस्म से बुझाती रही
बचपन में तो एक अंजुरी पानी से बुझ गई
पर जवानी में लाखों अशर्फियाँ नाकाफ़ी रहीं
जो यह समझ बैठे थे दो आँसू बदल देंगे तक़दीर
उन्हें पता नहीं कि प्यास खारे पानी से जाती नहीं
गैरत क्या खाक़ जिन्दा रहेगी ऐसे माहौल में
जब आँचल में दूध नहीं और आँखों में पानी नहीं
किसी ने राह चलते फ़र्क़ बताया भूख और प्यास में
एक जो मिटे माँ के दूध से, दूसरी शराबों से जाती नहीं
प्यासी धरती को खून से नहलाया कुछ नासमझों ने 'शैल"
उन्हें नही पता रगों में भले ही दौड़ ले पर खून खून है पानी नहीं
डा शैलेन्द्र कुमार सक्सेना
जाने किस अनजान डगर से
पथिक बन तुम चले आए ..
चुपके से यूँ ही मेरी ज़िंदगी में
सुना मेरे दिल ने एक गीत नया कोई
और अपने सारे प्यार से,
भर दी सारी तृष्णा तुम्हारे
प्यासे से मन की .. ..
जीवन हर पल बनता रहा
बादल कोई प्यार से उमड़ता हुआ
बरसाने को आतुर मेरा दिल
हर पल तलाशता रहा ..
तेरे दिल का हर कोना प्यासा-सा
लेकिन ...तुम आए और
फिर अचानक चल दिए अपनी राह पर
मैं आज भी कर रही हूँ प्रतीक्षा
निर्जनता में सुनती शोर
अपने दिल की धड़कनों का
सोच रही हूँ उस प्यार के पलों को
जिसके गहरे सागर में
अपना कुछ न बचा के
सब कुछ समर्पण कर दिया था तुम्हें
अब तुम समझ के भी मेरे इन गीतों को
कैसे समझ पाओगे
जिसे गा रही हूँ मैं तुम्हारे जाने के बाद
एक अनबुझी प्यास जो दे गये मेरे तपते मन को
वो बुझा रही हूँ अपने बहते आँसुओ के साथ
रंजना भाटिया
प्यास भर पानी से, बुझ जाती थी प्यास,
क्यों नहीं बुझती आज ये, मानव मन की प्यास,
जन-जन मे जगी, कैसी है यह प्यास,
हर मन प्यासा प्यास से, नहीं कोई उल्लास,
दुनिया भर की दौलत के, पाने की लालसा,
बन गई है आज यह, जन मानस की प्यास,
कही ए.सी., टी.वी और, फ्रिज पाने की प्यास,
और नये-नये संसाधन सजाने की प्यास,
कौन कब मर जायेगा, है किसको पता,
सामान सौ-सौ बरसो का, जुटाने की प्यास,
यौवन में है मस्त, बस मस्ती पाने की प्यास,
न हो पैदा बेटियां, बेटा पाने की प्यास,
और बुढापा भी सदा, बना रहे रंगीन,
मरने से डरता सदा, जिवित रहने की प्यास,
नीचे गिरा सबको, ऊपर उठ जाने की प्यास,
नेताओं के मन बसी, बस कुर्सी पाने की प्यास,
मान और सम्मान, सब कुछ लगाकर दाव पर,
कुर्सी पाकर छल से, दौलत पाने की प्यास,
जगा ले मन में ज्ञान और, बुद्धि बढाने की प्यास,
यही है प्यासी तड़फन के, बुझाने की प्यास,
रूखी-सूखी खाकर, जो पीते पानी ठंडा,
'दिनेश' नहीं सताती उसे, जमाने भर की प्यास।
दिनेश चन्द्र जैन
ग्लोबल-वार्मिंग का यह क्या झमेला है
न जाने कब से जंगल का मोर अकेला है।
गर्मिओं की प्यास अब नहीं है बची
बताओ बाकी मौसमों का कहाँ ठेला है।
कहते हैं नियोजन से फ़ायदा हुआ है
जबकि हरसू लगा लोगों का मेला है।
तुमसे फ़िर 'श्री श्री' पहचानने में भूल हुई
यह 'आनन्द' भी उसी ढोंगी का चेला है।
उदारीकरण ने सिर्फ़ सेठों की जेब भरी है
आम आदमी, अब भी उतना ही फटेला है।
बच्चे-बच्चे को लगी है जिस्म की प्यास
पश्चिम की हवा ने हमें कहाँ आ धकेला है।
शैलेश भारतवासी
तुम्हारी जुल्फ़ों का पता घटाओं को दे दूं क्या
जाने कब से इस शहर में नहीं बरसात हुई
पूरे गांव में गूंजती होगी तेरी पायल की झनक
खत मिला तो मगर न तुझ से कोई बात हुई
दिन गुजरता ही नहीं, रात है कि जाती ही नहीं
तेरे बिन यह घर भी मेरे लिये तो हवालात हुई
नींद आती नहीं याद आते हैं वो मंजर मुझ को
जब हम दोनों की छुपकर अकेले में मुलाकात हुई
अपने दिल को जल्दी मिलने की आस दे दूँ क्या
इस खलिश इस आरजू को "प्यास" कह दूँ क्या
मोहिन्दर कुमार
सड़क से गुजरते हुये
कानों में ये आवाज पड़ी
'ये प्यास है बड़ी'
एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी का ये विज्ञापन था
अपना उत्पाद बेचने के लिये
भारत के तथाकथित 'बढ़ते बाज़ार' से
अधिकाधिक धन खेंचने के लिये
ऐसे न जाने कितने ज़ुमले
हर रोज़ सुनने में आते हैं
कौन सा पेय सबसे अच्छा है
जनता को बतलाते हैं
और जनता की प्यास
सचमुच बढ़ गयी है
पहले सादे पानी से बुझ जाती थी
अब मिनरल वाटर
और कोल्ड-ड्रिंक तक चढ़ गयी है
इस देश में जहाँ लाखों लोगों को
भरपेट खाना तो क्या
साफ पानी भी नहीं मिल पाता है
बोतल-बंद शीतल पेय का व्यापार
हर साल बढ़ता ही जाता है।
अजय यादव
मेरे नैन तू आज क्यो प्यास
से ओत-प्रोत है
तूने तो नमकीन जल का
हिमखंड छुपाया है अपने अंदर,
जो पीड़ा के तपिश से
हास्य के चरम से
पिघलता रहता है,,,,,,
मेरे नैन स्वतः ही तूने
प्यास के रहस्य को ढूँढ़
लिया है
तूने देखा है सुप्त बीज के
सूखे होठो को, प्यास से व्याकुल
खिंचते जल माटी के गर्भ से
और बनते पौधा,
पौधा जो बीज से भी
अधिक प्यासा है
यही प्यास रुपांतरित करता है
पोधै को वृक्ष में और
वृक्ष अपने तने ऊपर उठाए
करता है प्रार्थना
"हे प्रभु मैं प्यास से तड़प
रहा हूँ
करुणा करो
जल बरसाओ"।
ये प्यास निरंतर बहती ही
रहती है
उसी रहस्यमयता से मेरे नैन
तेरा परिचय हुआ
'प्यास' ही है असल मंत्र
जिसने बनाया बीज को वृक्ष...........
दिव्या श्रीवास्तव
आँखों से ढलकर
सूखी जीभ पर अपना अस्तित्त्व
न्यौछावर करती
हलक़ से उतरकर
घूँट भर प्यास
सीने में
और
धीरे-धीरे
खून की हरेक नस में
समा जाती है ।
कभी - कभी यूँ भी
भर आती है प्यास बदन में
असरफ़ी की
असरफ़ी जैसी आँखें
जिनमें, है चमक
सूरज की तपन की,
पेट में न जाने कब से
उबल रहे सूरज की
और सूरज जैसे कई
आग के गोलों की
जो कभी भी
फ़फ़क कर गिर सकते हैं
छाले से सजी हथेलियों पर ।
अँगूठा छाप , गँवार
के ये हाथ ,
जो लिख नहीं सकते
एक अक्षर भी
कागज़ पर,
पर लिखते हैं
रोज़
चेहरे पर
परिभाषा दो घूँट प्यास की ।
रोज़ तो पी जाता है वह
एक कतरा प्यास
खून की हर घूँट के साथ !
न प्यास बुझती ,
न आग ।
आलोक शंकर
जाना है मुझे नभ से ऊपर ,
पर पँखों से सहारा कब मैं माँगता हूँ ।
बहना नहीं समुंदर में और लहरों जैसे
पर कस्ती से किनारा कब मैं माँगता हूँ ।
लड़ना चाहता हूँ जीवन समर में निर्भीक होकर
पर तुम्हारा हाथ हो बेचारा कब मैं माँगता हूँ ।
बस एक अन कही आरज़ू है मन में
तू रहे सदा मेरे सपनो के भवन में
भीगना चाहता हूँ तेरी बारिश में मैं डूबकर
पर बारिश से बूंदों की धारा कब मैं माँगता हूँ ।
प्रशांत कुमार पाण्डे
"जब भी मैं पहुँचा हूँ अपने मुकाम पर,
हमेशा मुझे लगा है कि मेरी प्यास कुछ और है।
ज़रूर ही इस चीज़ ने मुझे पहुँचाया है
कई नयी मंज़िलों तक
लेकिन,
नहीं बुझी मेरी प्यास।
पता नहीं क्यों मुझे लगता है
ये हालत नहीं है सिर्फ मेरी;
कई और हैं इसके शिकार।
कभी-कभी सोचता हूँ कि अच्छा ही है
नहीं तो हमें किसी की चाहत ही न होती।
ये बात अलग है कि
प्यास ने ही बना रखा है हर एक इन्सान को राहगीर।
राह है कि चुकती नहीं;
इन्सान है कि थकता नहीं,
और प्यास है कि बुझती नहीं।"
पंकज तिवारी
है कौन यहाँ जिसे प्यास नहीं है,
जीने की किसे आस नहीं है...
प्यास जहाँ हो चाहत की,
ज़िन्दा दफ़नाए जाते हैं,
हर दिल में मुमताज की खातिर,
ताज़ बनाए जाते हैं...
वीरान है वो दिल जिसमें मुमताज नहीं है
है कौन यहाँ जिसे प्यास नहीं है,
प्यास जहाँ हो पिया मिलन की
वहाँ स्वप्न संजोये जाते हैं
प्रियतम से मिलने की चाहत में
नैन बिछाये जाते हैं
प्यासे नैनों में आँसू की थाह नहीं है
है कौन यहाँ जिसे प्यास नही है
प्यास जहाँ हो बस जिस्म की
दामन पे दाग लगाये जाते हैं,
कुछ पल के सुख की खातिर
हर पल रुलाये जाते हैं
माटी के तन की बुझती प्यास नहीं है
है कौन यहाँ जिसे प्यास नहीं है
प्यास जहाँ हो दौलत की,
कत्ल खूब कराये जाते हैं,
अपने निज स्वार्थ की खातिर,
दिल निठारी बनाये जाते हैं...
खून बहा कर भी मिलती एक सांस नहीं है
है कौन यहाँ जिसे प्यास नही है,
प्यास जहाँ हो शोहरत की,
रिश्ते भुलाये जाते हैं,
एक नाम को पाने की खातिर,
हर नाम भुलाये जाते हैं
भाई से भाई लड़े रिश्तों में आँच नहीं है
है कौन यहाँ जिसे प्यास नहीं है
प्यास जहाँ हो वतन की,
वहाँ शीश नवाये जाते हैं,
धरती माँ के मान की खातिर,
सर कलम कराये जाते हैं
आज़ादी की रहती किसको आस नहीं है
है कौन यहाँ जिसे प्यास नहीं है
है कौन यहाँ जिसे प्यास नहीं है
जीने की किसे आस नहीं है॥
सुनीता (शानू)
स्मृति पटल पर कुछ बादल घिर आए हैं ।
उमड़-घुमड़ कर मधुर शोर ये मचाए है।
चेतना की बिजली भी बार-बार चमकती है।
दिल के कोने में एक फाँस सी चुभ जाती है ।
आँखों में अश्रु-जल की तरल बूँदें तैर जाती हैं ।
ऐसे में तम्हारी प्रिय याद बहुत आती है ।
जैसे ही हवा मेरा द्वार खट्खटाती है
तुम्हारी उँगलियों की सर-सराहट हो जाती है।
घर के हर कोने से तब खुशबू तेरी आती है।
महकती हुई साँसों में तेज़ी सी आ जाती है ।
लगता है कोई छवि आस-पास ही मँडराती है ।
वाणी बार-बार प्रेम-भरा गीत गाती है ।
तेरी याद बहुत आती है---------------
जब भी कहीं बिछड़ा कोई दोस्त कोई मिल जाता है ।
आँगन में मेरे भी एक फूल सा खिल जाता है ।
आँखों में अचानक से कुछ स्वप्न से जग जाते हैं ।
कितने ही अरमान मेरे दिल में मचल जाते हैं ।
फिर से कोई पगली तमन्ना मचल जाती है ।
आँखों के झरोखों से तसवीर निकल आती है ।
तेरी याद बहुत आती है---------------
कैसी ये अनोखी सी इस दिल की कहानी है ।
वो भूल गया मुझको दिल ने नहीं मानी है ।
ये फिर से बुलाता है उस गुजरे हुए कल को
जो दूर है जा बैठा उस भूले से प्रीतम को
फ़िर नेह की बाती के उजले से सवेरे को
जिसके बिना जीवन में अँधियारी सी छाती है
एक प्यास जगाती है तेरी याद क्यों आती है
शोभा महेन्द्रू
उसने पीया
तो बढ़ती गयी
मैंने जीया
तो मरती गयी
एक प्यास थी
जीने की
आख़री लम्हे तक का़यम रही
मनीष वन्देमातरम्
सोच रहा हूँ मैं बैठा,
ये प्यास कैसी होती है,
बिना पानी के मछली जैसी,
या फ़िर सूखे पेड़ के जैसी,
ये प्यास कैसी होती है,
सूख जाते है पेड़ प्यास में,
फ़ट जाती है धरती प्यास में
या फ़िर सूखे सागर जैसी
ये प्यास कैसी होती है
किसी को प्यास है कुर्सी की,
कोई पैसे का प्यासा है,
किसी को प्यास है शोहरत की,
कोई प्राणों का प्यासा है,
ये प्यास कैसी होती है,
मुझको भी तो प्यास लगी है
बढ़ा होने की आस लगी है,
पढ़-लिख कर पायलट बनने की,
दूर हवा में उड़ जाने की
दुनिया भर में नाम कमाने की
सोच रहा हूँ मै बैठा,
ये प्यास कैसी होती है॥
अक्षय चोटिया ( ग्यारह साल का कवि )
मेरे और तुम्हारे बीच की पवित्रता
उन मूर्तियों से कहीं ज्यादा पवित्र थी
और उन रिश्तों से कहीं ज्यादा
जो मैंने जलते देखे हैं
वासना की आग में,
हमारी नजदीकियाँ
उन दूरियों से कहीं ज्यादा पवित्र थीं
जो मैंने मिटती देखी हैं
बहुत सी आँखों की प्यास में;
हमारे वादे कहीं ज्यादा मासूम थे
उन ललचाई सी कसमों से,
हमारा रिश्ता कहीं ज्यादा पवित्र था
उन दोहराती सी रस्मों से;
मेरे और तुम्हारे सपने रंगीन नहीं थे
हमारे सपने थे
सफेद बादलों से
और बर्फ के पर्वतों से;
हमारी हक़ीकत लेकिन
क्यों उतनी ही अंधेरी थी
क्या कमी थी हमारे बीच
जो वक़्त ने इतनी दूरियाँ बिखेरी थी;
क्यों कुछ अपवित्र प्रेम
बंधन बन गए
और हम
टूट गए,
क्यों कुछ ललचाई सी कसमें
सच्ची निकलीं
और हमारे मासूम वादे
झूठ रहे,
क्यों वही निरर्थक सी मूर्तियाँ
गवाह बन गई उनके रिश्तों की,
और क्यों हमारे प्रेम के सब सबूत
रूठ गए,
क्यों कुछ धधकती ज्वालाएँ
बुझा दी गईं
और हम तुम
प्यासे ही छूट गए?
गौरव सौलंकी
एक अहसास-
रेत में चुभता,
लहरों के सामने उबलता,
साहिल पर पलता,
निस्संदेह
यही है प्यास।
सहरे को क्या खबर कि
क्या चीज है प्यास।
सारे कयास उसके
या हैं भुलावे
या फिर मनगढ़ंत।
उसे तो यह भी पता नहीं
कि
प्यास किस लिए है।
मैं भी हूँ एक सहरा,
इसलिए प्यासा नहीं हूँ मैं।
पैसों की प्यास-
होगी तुम्हें,
मैं तो गरीब हूँ।
तुम मधुशाला के प्रेमी हो,
तुम को प्यास से क्या लेना,
पत्थर दिल पत्थर भाव हैं फिर,
मन के अहसास से क्या लेना|
गूँज रही है जहाँ ध्वनि,
मधु के प्यालों के चुम्बन की
और जहाँ पर लगी प्रदर्शनी,
नारी देह और यौवन की|
कौन विवशता किन्तु समझता
उसके मन की और जीवन की|
तुम खुद ही भीड में शामिल हो
उसके उपहास से क्या लेना...
पत्थर दिल पत्थर भाव हैं फिर,
मन के अहसास से क्या लेना|
मर्यादा की चिता सजी,तुम
चल कर अग्नि प्रदान करो
चाहे मानवता भी लज्जित हो
तुम नैतिकता बलिदान करो
चाहे जितनी चीख-पुकार मचे
पर तुम केवल मद-पान करो
तुमको पीना सदा मुबारक
दुःख-सुख, परिहास से क्या लेना..
पत्थर दिल पत्थर भाव हैं फिर,
मन के अहसास से क्या लेना |
चाहे मन को दुःख का भार मिले
चाहे खुशियाँ अपरम्पार मिले
होली या दीप दीवाली हो
चाहे कोई भी त्यौहार मिले
जीवन के कदम-कदम पर तुम
चाहे जीत मिले या हार मिले
संकोच बाँटने को कोई, साथी हो चाहे न हो
मधुशाला,मधु, साकीबाला बस तुमको बारम्बार मिले
जो खुद को बाँध चुके तुमसे
उनके विश्वास से क्या लेना..
पत्थर दिल पत्थर भाव हैं फिर,
मन के अहसास से क्या लेना |
"मन" के अहसास से क्या लेना|
विपिन चौहान "मान"
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
32 कविताप्रेमियों का कहना है :
बिना पानी के मछली जैसी,
या फ़िर सूखे पेड़ के जैसी,
ये प्यास कैसी होती है,
भाई अक्षय, वाह। खूब कहा। प्रश्न महत्वपूर्ण है।
एक अनबुझी प्यास जो दे गये मेरे तपते मन को
वो बुझा रही हूँ अपने बहते आँसुओ के साथ ।
रंजना जी आपकी इन पंक्तियों ने दिल को छू लिया ।
'प्यास ने ही बना रखा है हर एक इन्सान को राहगीर।
राह है कि चुकती नहीं;
इन्सान है कि थकता नहीं,
और प्यास है कि बुझती नहीं।"
"प्यास जहाँ हो बस जिस्म की
दामन पे दाग लगाये जाते हैं,
कुछ पल के सुख की खातिर
हर पल रुलाये जाते हैं
माटी के तन की बुझती प्यास नहीं है
है कौन यहाँ जिसे प्यास नहीं है"
"जब भी कहीं बिछड़ा कोई दोस्त कोई मिल जाता है ।
आँगन में मेरे भी एक फूल सा खिल जाता है ।"
उपरोक्त कुछ पंक्तियाँ बरबस ध्यान खींचती हैं ।
दिनेश जी,शैलेश जी ऒर अजय जी की कविता कटु
सत्य को उजागर करती है और सोचने को मजबूर ।
मनीष जी की कविता संक्षिप्त किन्तु सटीक है ।
काव्य-पल्लवन का ये अंक काबिले तारीफ है ।
मित्रो,
२१वीं रचना अंक में अभी जोड़ी गयी है। इस रचना के रचयिता ने अपनी यह कविता मोहिन्दर जी को भेजने की जगह hindyugm@gmail.com पर भेज दी थी। हालाँकि वहाँ से उसी समय मोहिन्दर जी को अग्रेसित कर दी गई थी, मगर कुछ तकनीकी कारणों से मोहिन्दर जी को नहीं प्राप्त हुई, जबकि विपिन जी को हिन्द-युग्म की तरफ़ प्राप्ति की सूचना भी भेजी गई थी। ईमेल खोज द्वारा जब खोजा गया तो यह रचना प्राप्त हुई। इसे जोड़ा जा रहा है।
विपिन जी को जो असुविधा हुई उसके लिए हिन्द-युग्म खेद प्रकट करता है और इसके लिए धन्यवाद देता है कि उन्होंने हमारी इस गलती की तरफ़ ध्यान आकृष्ट कराया।
प्यास विषय पर लिखी गई समस्त रचनाएँ प्रभावशाली हैं । किन्तु प्रत्येक व्यक्ति
दूसरे से अलग होता है । पसन्द अपनी-अपनी, ख्याल अपना-अपना । मुझै गौरव सोलंकी
और रंजना जी की कविताएँ अधिक पसन्द आयीं । सभी कवियों को मेरी ओर से
हार्दिक बधाई ।
waah bahut hi shaandaar prayas .... shailesh aur hind yugm ke baki sabhi team ko meri bhadhai
yeh ek sapne ke sach hone jaisa hai, sabhi rachnayen uchh koti ki hain, ajay ka andaaz muktalif tha, sunita ji, ranjana ji, gaurav, mohinder ji, sabhi ko badhai...
11 varsh ke kavi ne bahut si ummeden jagai hain.... shubh asheesh
ये फिर से बुलाता है उस गुजरे हुए कल को
जो दूर है जा बैठा उस भूले से प्रीतम को
फ़िर नेह की बाती के उजले से सवेरे को
जिसके बिना जीवन में अँधियारी सी छाती है
एक प्यास जगाती है तेरी याद क्यों आती है
vaah sobha ji, ekdam masttttt. jab koi mausam ban jata hai to preetam ki yaad to aa hi jati hai, pritam ki raah dekh kar use yaad kar rahi priyatama ke dil ki ek bahot achhi tasveer apne banayi hai, jo akhir main haar kar yah apne aap se hi puchh leti hai - teri yaad kyon aati hai? its a grt rachna shobha ji, keep it up. best of luck
२० कवितायें एक साथ सभी पर टिप्पणी तो इतनी सुंदर रचनाओ के साथ अत्याचार होगा अतः मैने विचार किया है प्रत्येक रचना पर टिप्पणी करू किन्तु ये एक दिन मे संभव नही है सो रोज १ कविता पर टिप्पणी करुंगा |
देखता हूँ टकटकी लगाये मैं आसमां की तरफ,
ढूँढ़ता हूँ मिल जाये कहीं एक बादल का टुकड़ा,
मेरे खेत की प्यासी मिट्टी, असिंचित, करे इंतजार,
सूनी आँखों देखता दूर तक, बदली को ओझल होते,
कुलवंत सिंह जी प्यास तो सभी को लगती है किन्तु किसान की प्यास क मुल्य सर्वोपरी है , आपको बधाई की आप के एक भूले बिसरे विषय को जीवन दिया |
इस बार का विषय सच में बहुत ही सुंदर था ...और सबने अपने विचारो की प्यास छलका के इस
को और मनमोहक सा बना दिया ...
देखता हूँ टकटकी लगाये मैं आसमां की तरफ,
ढूँढ़ता हूँ मिल जाये कहीं एक बादल का टुकड़ा,
बहुत ही सुंदर भाव कवि कुलवंत सिंह जी
एक चमकता हुआ "कतरा"
डूबते रहे,
डूबते ही रहे,
फिर भी,
प्यासे ही रहे,
प्यासे ही रहे।
एक ज़िंदगी का सच सिमट आया इन में सारथी जी
मुझको भी तो प्यास लगी है
बढ़ा होने की आस लगी है,
पढ़-लिख कर पायलट बनने की,
दूर हवा में उड़ जाने की
दुनिया भर में नाम कमाने की
बहुत ही सुंदर प्रयास है आपका नन्हे कवि जी :)
हमारी नजदीकियाँ
उन दूरियों से कहीं ज्यादा पवित्र थीं
जो मैंने मिटती देखी हैं
बहुत सी आँखों की प्यास में;
बहुत ही सुंदर गौरव ....
सभी कविता दिल को छू लेने वाली हैं ..बार बार पढ़ने की प्यास जाग उठती है :)
हर एक प्यासा तड़प रह है,
वन उपवन वो भटक रह है,
उन श्रोतों के अथक खोज में,
पगडंडी पर वो सरक रहा है,
चहुँ ओरे खोज मैं वापस आया,
प्यासा तो पल पल प्यासा है,
बुझाने को ही प्यास वो अपनी,
जैसे इस दुनिया में आया है,
प्यास मगर बड़ी वो सबसे,
प्रेम में आत्मा भिगोने की,
तृप्त करे वो आत्मा कैसे,
रोटी ने तो बुझा दी पेट की,
एक दिन हो गया जो अंत प्यास का दुनिया से,
रह जाएगा प्यासा इन्सान फिर भी,
प्यास तो फिर भी एक रह जायेगी यहीं,
प्यासे शब्द को फिर से पाने की ॥
बहुत बेहतरीन लगी यह मोहिन्दर कुमार जी की रचना-
तुम्हारी जुल्फ़ों का पता घटाओं को दे दूं क्या
जाने कब से इस शहर में नहीं बरसात हुई
पूरे गांव में गूंजती होगी तेरी पायल की झनक
खत मिला तो मगर न तुझ से कोई बात हुई
दिन गुजरता ही नहीं, रात है कि जाती ही नहीं
तेरे बिन यह घर भी मेरे लिये तो हवालात हुई
नींद आती नहीं याद आते हैं वो मंजर मुझ को
जब हम दोनों की छुपकर अकेले में मुलाकात हुई
अपने दिल को जल्दी मिलने की आस दे दूँ क्या
इस खलिश इस आरजू को "प्यास" कह दूँ क्या
सभी की कवितायें बहुत अच्छी है...सच कहूँ तो प्यास पर और भी लिखा जा सकता था,यहाँ तो सिर्फ़ २१ कवियों ने ही बुझाई है मगर न जाने कितने है जिनकी प्यास कभी बुझती ही नही...और जिन कवियों ने बुझाई है मेरे ख्याल से अभी भी बुझी नही है क्यों... कहिये क्योंकि ये वो प्यास है जो बुझ सकती नही...बताईये है कोई एसा कवि जो एक कविता प्यास पर लिख कर प्यास बुझा चुका है क्या उसके दिल में और प्यास पर लिखने की प्यास नही है..तो टोपिक चेंज कर दे...लिखिये प्यास जो कभी बुझ न पाई...
सुनीता(शानू)
aap sabhi ko meri taraf se haardik bhadhaaiyaan
प्यास इतनी कि ज़िन्दगी फ़ीकी,
तुम नहीं हो तो हर खुशी फ़ीकी..
दर्द की सीढियाँ न खत्म हुईं,
आँसुओं की पड़ी नदी फ़ीकी..
शहर की रौनकें न कर डालें,
मां के आँचल की ज्योत ही फ़ीकी
निखिल आनन्द गिरि जी की ग़ज़ल मे अल्फ़ाज़ों की रवानी बताती है की शायर फ़लक छुने को बेताब है मात्र ग़ज़ल इस विधा पर और काम करने की आवश्यक्ता है |
बस एक बार नज़र भर उठा के देख तो लो
जनम-जनम की मेरी प्यास ठहर जायेगी
:) कुमार आशीष जी आशिक और प्यास का तो जन्मो का साथ है और आपने अपनी कविता या नज़्म कहूं मे आशिक की तिश्नगी को खुब सागर मे उतारा है |
कितने किनारे
पानी में समा गए,
फिर भी
प्यासे ही रहे।/
एक नन्हीं-सी चिंगारी
कहीं राख में दबी थी,
लपक कर उसने
किरणों को छू लिया,
वाकई सजीव सारथी जी ने चिंगारी की तरह प्यास विषय को छू लिया और प्यास की ज्वाल उनकी रचना मे भडक उठ्ठी है अभी तक की मैने पढी प्रथम ४ रचनाओं मे सबसे बेहतर रचना यही लगी |
सबसे पहले मैं यह बता दूँ कि इन २१ कविताओं सबसे अधिक स्तरहीन मेरी अपनी ही कविता लगी है। उसका कारण अब समझ में भी आ रहा है कि कुछ प्रयोगों को छोड़कर बाकी कभी न कभी किसी ने किसी ने कर ही दिया है, और कविता रिपीटिशन का नाम नहीं है, चमत्कार का नाम है।
मैं ५ कविताएँ प्रतिदिवस की औसत से टिप्पणियाँ करूँगा।
कवि कुलवंत जी ने अपनी कविता में प्रवाह कायम रखने की कोशिश तो की है, लेकिन बहुत कम सफल रहे हैं, इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि भावों को ध्यान में रखते हुए भी इन्होंने शिल्प पर अधिक समय नहीं दिया। कविता में एक बहुत सुंदर पंक्ति है-
मन में उठती आशंका, आज कहीं सौदामिनी गिरेगी !
लेकिन फिर डंका बजता, मेरे खेतों की प्यास बुझेगी।
कविता का अंत प्रभावित नहीं करता। अच्छी कविता अंत में बचकानी हो जाती है।
निखिल आनंद गिरि जी रचना कम शब्द में बहुत सादगी के साथ बहुत कुछ कहती है। लेकिन बात नई नहीं है, जो हम आमतौर पर कहते हैं उसे लयबद्ध कर दिया गया है। फ़िर भी कविता में सौंदर्य है। कुछ नये उपभाओं का प्रयोग ध्यान खिंचता है-
दर्द की सीढियाँ न खत्म हुईं,
आँसुओं की पड़ी नदी फ़ीकी..
आशीष जी की ग़ज़लनुमा रचना का पहला ही शे'र आकर्षित करता है। 'प्यास का ठहरना' बेहतरीन प्रयोग है।
निम्न शे'र में 'कि अब' नहीं भी लगाते तो काम चलता और वज़न ज़्यादा रहता-
मैं खो भी जाऊं तो इतना है इत्मीनान कि अब
जर्रे-जर्रे से मुझे मेरी खबर आयेगी
सजीव जी को कविता की समझ है। इन्हें प्रयोगधर्मी कवि भी कहा जा सकता है। आम बातें भी विशेष तरह से करते हैं। कितना सौंदर्य है इस छंद में!
कितने किनारे
पानी में समा गए,
फिर भी
प्यासे ही रहे।
यह क्षोभ सभी को रहता है, प्राप्ति के बाद भी बची प्यास की अविनाशता
उन नन्ही पगडंडियों से चलकर,
अब हम चौड़ी सड़कों पर आ गए,
सजीव जी बधाई!!
शैलेन्द्र जी की ग़ज़ल का जबाब नहीं। सारे शे'र विषय-केंद्रित हैं। दर्शन भी है-
जो यह समझ बैठे थे दो आँसू बदल देंगे तक़दीर
उन्हें पता नहीं कि प्यास खारे पानी से जाती नहीं
देश की स्थिति पर आपकी चिंता भी झलकती है-
गैरत क्या खाक़ जिन्दा रहेगी ऐसे माहौल में
जब आँचल में दूध नहीं और आँखों में पानी नहीं
निम्न शे'र बहुत सुंदर है-
किसी ने राह चलते फ़र्क़ बताया भूख और प्यास में
एक जो मिटे माँ के दूध से, दूसरी शराबों से जाती नहीं
शेष आगे.....
उसने पीया
तो बढ़ती गयी
मैंने जीया
तो मरती गयी
एक प्यास थी
जीने की
आख़री लम्हे तक का़यम रही
meri nazar main meri pyaas in line se aur bad gayi ek behtareen rachna.lekhika ko in lines ko likhne ke liye dhanyawaad/
आज पाँच कविताएँ और॰॰॰
रंजना जी की कविता को समझने के लिए मेहनत करनी पड़ती है, क्योंकि कई बार एक ही पंक्ति में दो अलग-अलग वाक्य या भाव सजाये गये हैं (यह मेरी नासमझी भी हो सकती है , हो सकता है मैं कविता के भाव न समझ पा रहा होऊँ)। उदाहरणार्थ-
जीवन हर पल बनता रहा
बादल कोई प्यार से उमड़ता हुआ
इसे इस प्रकार से लिखा जाना चाहिए था-
जीवन हर पल बनता रहा
बादल कोई
प्यार से उमड़ता हुआ
आपने तृष्णा को ऐसे प्रयोग किया है, जैसे वो कोई बर्तन या खाली स्थान हो-
और अपने सारे प्यार से,
भर दी सारी तृष्णा तुम्हारे
प्यासे से मन की .. ..
'भर दी' की ज़गह 'बुझा दी' प्रयोग किया जा सकता था। और तृष्णा 'प्यास' का ही पर्यायवाची है, दो बार प्रयोग करना कुछ ज़मा नहीं।
कविता का अंत थोड़ा संतोषजनक है।
दिनेश जी की कविता की शुरूआत कुछ ख़ास आकर्षित नहीं करती। 'प्यास' और 'प्यासा' शब्दों का इतना अधिक इस्तेमाल हुआ है कि कविता इसमें उलझती महसूस होती है। लेकिन जैसे-जैसे हम कविता को आगे पढ़ते जाते हैं, कविता सुंदर होती चली जाती है। फ़िर दुबारा पढ़ने का मन होता है। यह निष्कर्ष निकाल पाया कि इसे मंच से सुनाया जाय, रुक-रुक कर, तो बहुत तालियाँ बजेंगी।
मोहिन्दर जी अब मीटर को पकड़ने लगे हैं, इसलिए ग़ज़ल में ज़्यादा प्रवाह दिखने लगा है। अब जल्दी में हुआ या जान-बूझकर किया सारा ज़ायका अंतिम शे'र में खराब कर गये।
यह शे'र पसंद आया-
नींद आती नहीं याद आते हैं वो मंजर मुझ को
जब हम दोनों की छुपकर अकेले में मुलाकात हुई
जब यह विषय तय हुआ था तो डर था कि कहीं इस पर केवल प्यार मुहब्बत की बात न हों, लेकिन अजय जी ने काव्य-पल्लवन को सार्थक कर दिया।
बहुत गहरा व्यंग्य है इन पंक्तियों में-
और जनता की प्यास
सचमुच बढ़ गयी है
पहले सादे पानी से बुझ जाती थी
अब मिनरल वाटर
और कोल्ड-ड्रिंक तक चढ़ गयी है
हालाँकि अंत एक रिपोर्ट की तरह है, उसे और असरदार बनाना चाहिए था।
दिव्या जी की कविता उलझी हुई है। नैनों को जो प्यास लगती है वो उससे निकलने वाले नमकीन पानी से नहीं बुझती। इसलिए उसे मृग के कस्तूरी ढूँढ़ने जैसी सच्चाई बताने का क्या अर्थ है? और यह कविता चमत्कृत भी नहीं करती।
शेष फ़िर॰॰॰॰
प्यास सचमुच एक अच्छा विषय साबित हुआ.......सभी कवियों को बधाई......शैलेश बाबू, आपने कैसे तय कर लिया कि आपकी रचना सबसे स्तरहीन है....उदारीकरण ने सिर्फ़ सेठों की जेब भरी हैआम आदमी, अब भी उतना ही फटेला है। इस पंक्ति का मोल शायद आपने कम आंक दिया...
विश्व दीपक जीं, आपकी रचना पसंद आयी...खासकर आख़िरी कुछ पंक्तियां....अजय यादव, आलोक शंकर और दिव्याजी कि रचनायें भी मुझे पसंद आयी....
ऋषिकेश जी, मेरी कविता आपको पसंद आयी, धन्यवाद.....
निखिल आनंद गिरि
प्यास के कवियॊं ने सचमुच प्यास बुझा दी। यह शे'र बहुत पसंद आए।
...
जो यह समझ बैठे थे दो आँसू बदल देंगे तक़दीर
उन्हें पता नहीं कि प्यास खारे पानी से जाती नहीं
...........
नींद आती नहीं याद आते हैं वो मंजर मुझ को
जब हम दोनों की छुपकर अकेले में मुलाकात हुई
...
शैलेश जी आपको धन्यवाद कि आपने मेरी गज़ल के उन्ही शेरों की अफ़ज़ाई की जिन्हे मैं भी बेहतर समझता था गौरव जी विषय आपने ही चुना था इसलिये आपसे एक ऐसी रचना की उम्मीद थी जो विषय के नजदीक हो सभी पाठकों एवं रचनाकारों को काव्य पल्लवन को महिमा मंडित करने के लिए बधाइयां
शैलेन्द्र
बहुत दिन बात वक़्त मिला, आज और ५ कविताओं पर अपने विचार देता हूँ।
आलोक जी ने 'प्यास' विषय पर भी एक उत्कृष्ट कविता देने की कोशिश की है। शुरूआत के दोनों छंद कविता के उपसंहार के सहारे अलंकृत होते हैं। आलोक शंकर कभी निराश नहीं करते।
प्रशांत जी की कविता हो सकता है 'प्यास' पर ही हो, मगर मुझे यह शीर्षक कविता नहीं लगती। मगर कविता अच्छी है।
पंकज जी,
आपने कविता को अंत बहुत जल्दी दे दिया। वैसे आपके अनुभव तो सच में बाँटने लायक हैं।
सुनीता जी की कविता कोई नई बात नहीं बताती, मगर यह मंच से सुनाई जाय तो वाहवाही बटोर सकती है। अच्चा प्रवाह और वैषयिक भी है। बधाई।
शोभा जी की कविता शायद गीत में निबद्ध है। काव्य-सौंदर्य तो होने चाहिए। चाहे भाव पक्ष प्रबल हो या कला पक्ष। कम से कम एक तो हो जिसके कारण कविता याद रखी जा सके। यहाँ भाव तो ज़ादू नहीं चलाती, कहीं-कहीं कलात्मकता ज़रूर आकर्षित करती है।
शेष आगे॰॰॰
मैं शायद बहुत विलम्ब से हूँ,पेर कविता की सबसे बड़ी खासियत की न वो कबी पुरानी होती है,न ही उसकी आत्मा कभी मैली होती है
प्यास बूझती इन २१ कविताओं को पढ़कर मजा आ गया, सभी कवियों को एकसाथ ढेरों शुभकामनाएं.
अलोक सिंह "साहिल"
दोस्तों मेरा कवी नाम "प्यास"
खुशी हुईं इतनी बढियां बढियां कवितायें पढ कर्।
मेरी कविता हैं,
जीवन ने जो बात कही थी
सुनते सुनते आँख बही थी
उसकी अंतिम पंक्तियॉ है…
"प्यास" परम परमेश्वर होनी नहीं थी
सुख ने बस सबसे यह बात कही थी
एक और ……
प्यास लिये जो प्यासे है
कैसी चला रहे सांसे है
चीनी पानी का घोल जता
स्वार्थ के फेक रहे पासे है
धन्यवाद हिन्द-युग्म
अरविन्द व्यास "प्यास"
अरविन्द व्यास 'प्यास' जी,
आप भी लिखिए इस आयोजन में।
प्यास
मोती से कुछ अक्षर होंगे
शब्दों का सागर होगा
शब्दों के सागर मे डूबा
छन्दों का गागर होगा
गागर मे गीतों का पानी
मन की प्यास बुझायेगा
ना जाने कब ऐसा पानी
पनिहारा कवि लायेगा
मेरी इस प्यास को कफी हद तक बुझाने मे सफल हुई हैं ये रचनायें
रूखी-सूखी खाकर, जो पीते पानी ठंडा,
'दिनेश' नहीं सताती उसे, जमाने भर की प्यास।-
यह पंक्ति अत्यंत मौलिक हैं ..
श्री दिनेश चंद्र जैन जी आपको रचना लेखन हेतु बधाई
रूखी-सूखी खाकर, जो पीते पानी ठंडा,
'दिनेश' नहीं सताती उसे, जमाने भर की प्यास।-
यह पंक्ति अत्यंत मौलिक हैं ..
श्री दिनेश चंद्र जैन जी आपको रचना लेखन हेतु बधाई
यह तो लगने वाली प्यास ही निभंर है कि किसे कितनी प्यास है अगर इछित व्यक्ति और इच्छा का एकीकरण हो जाए तो असंभव जगत मे कुछ नही है
जालिमो का खोैप
पंगु होता मेरा भारत
मेरा भारत तो वह देश था जिसके खौप से दुनिया को डर लगता था वीर शिवाजी पृथ्वीरज चौहान वीर सावरकर जैसे रत्न थे मेरे भारत मे पर पश्चिम सभ्यता के चलन से सब चौपट हो गया है वहॉ नारी को सिर्फ कामना की नजक से देखा जाता है पर मेरे भारत मे नारी मॉ बहन बेटी देखी जाती थी पर आजकल की बलत्कार की घटनाए झकझोर कर रख देती है किस कानुन का खौप दुस्टो पर पडे कौन यौध्दा है जो एसा कानुन बना दे जिसको सुनकर पढकर ये जालिम ऐसा जुल्म करने की सोचना तो दुर विचार आते ही थर्रा जाए
गोपाल केशन्या खडवा म़प
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Gool line
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