किँचित समय नहीँ है अपने पक्ष मेँ
जब शब्दोँ पर भारी मौन हो
अन्तर्मन स्वँय से पूछे कि तुम कौन हो
अस्तित्व जब लगे स्वँय का
खेत मेँ उगी खतपतवार सा
या अलमारी मेँ बिछे पुराने अखबार सा
जर्जर प्लस्तर उखडी दीवार सा
बेरँग टूटे फूटे नाम मात्र किवाड सा
जो न किसी को रोक पाता है
न स्वँय ही एक स्थान पर रुक पाता है
चूलेँ जिसकी हिल गयी हैँ
बरसोँ की ठेलमठेल मेँ
चोखटोँ ने जिससे किनारा कर लिया
झुक गया है जो समय की थाप से
ग्लानि है जिसे अपने आप से
प्रतिक्षारत है जो उस घडी का
साथ छोडती आखरी कडी का
जब धराशायी होगा वो धम से
टुकडे टुकडे हो कर आग मेँ जलेगा
छुटकारे के लिये जीवन के तम से
राख उड कर खाक मेँ मिल जायेगी
चलती फिरती एक कृति एक माला के साथ
दीवार पर बन एक तस्वीर टँग जायेगी
मूक साक्षी जग के इस व्यवहार की
उस पर से झडेगी धूल जब
प्रतिक्षा मे उसी किसी त्योहार की.
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11 कविताप्रेमियों का कहना है :
मोहिन्दर जी, आज युग्म को पढना शानदार रहा ।
पहले राजीव जी की मन को छू लेने वाली कविता और फिर आपकी परिपक्वता।
आप अब धीरे धीरे सूफियाना होते जा रहे हैं, और जिदगी की बात से सूफियत करामात तक आपकी कविता में आसानी से नगर आ जाती है।
जावेद अख्तर साहब की एक कविता है 'वो कविता बहुत याद आता है' आपने याद दिला दी।
बधाई।
देवेश वशिष्ठ ' खबरी '
9811852336
बेहद सुंदर रचना है मोहिन्दर भाई। कुछ अधिक कहने को समुचित शब्द नहीं हैं मेरे पास, इसलिये वो फिर कभी।
जब शब्दोँ पर भारी मौन हो
अन्तर्मन स्वँय से पूछे कि तुम कौन हो
अस्तित्व जब लगे स्वँय का
खेत मेँ उगी खतपतवार सा
या अलमारी मेँ बिछे पुराने अखबार सा
जर्जर प्लस्तर उखडी दीवार सा
बेरँग टूटे फूटे नाम मात्र किवाड सा
चलती फिरती एक कृति एक माला के साथ
दीवार पर बन एक तस्वीर टँग जायेगी
मूक साक्षी जग के इस व्यवहार की
उस पर से झडेगी धूल जब
प्रतिक्षा मे उसी किसी त्योहार की.
आपकी कलम एक परिपक्व सोच के साथ चली है। इतने सुन्दर बिम्ब हैं कि प्रभावित हुए बिना नहीं रहा जा सकता। बहुत बधाई आपको।
*** राजीव रंजन प्रसाद
बेहद ख़ूबसूरत और सच लिए हैं आपकी रचना मोहिन्दर जी .
गहरी सोच ळिए ख़ूबसूरत लफ़्ज़ों में
ढली है यह रचना ....
छुटकारे के लिये जीवन के तम से
राख उड कर खाक मेँ मिल जायेगी
चलती फिरती एक कृति एक माला के साथ
दीवार पर बन एक तस्वीर टँग जायेगी
मूक साक्षी जग के इस व्यवहार की
उस पर से झडेगी धूल जब
प्रतिक्षा मे उसी किसी त्योहार की.
कमाल का लिखा है ..
बहुत अलग, सोचने को मजबूर करने वाली कविता !
घुघूती बासूती
आज आपके लिखने का एक अलग ही अन्दाज नजर आया...बहुत सुन्दर अभिव्यक्ती है...
किँचित समय नहीँ है अपने पक्ष मेँ
जब शब्दोँ पर भारी मौन हो
अन्तर्मन स्वँय से पूछे कि तुम कौन हो
कितना अच्छा लग रहा है खुद से झुझते हुए सवाल करना...
चलती फिरती एक कृति एक माला के साथ
दीवार पर बन एक तस्वीर टँग जायेगी
मूक साक्षी जग के इस व्यवहार की
उस पर से झडेगी धूल जब
प्रतिक्षा मे उसी किसी त्योहार की.
कितनी सच्चाई है इन पक्तियों में...
सुनीता(शानू)
परिपक्व रचना!
"अन्तर्मन स्वँय से पूछे कि तुम कौन हो", मेरी नज़र में यह सबसे कठिन कार्य है।
बधाई!
बहुत सुंदर रचना है मोहिंदर जी। मन प्रसन्न हो गया।
जब शब्दोँ पर भारी मौन हो
अन्तर्मन स्वँय से पूछे कि तुम कौन हो
अस्तित्व जब लगे स्वँय का
खेत मेँ उगी खतपतवार सा
या अलमारी मेँ बिछे पुराने अखबार सा
जर्जर प्लस्तर उखडी दीवार सा
बेरँग टूटे फूटे नाम मात्र किवाड सा
एक अच्छी एवं परिपक्व रचना के लिए बधाई स्वीकारें।
दूर की सोच, गहरी सोच। अंतर्मूख कर जाते है शब्द।
मोहिन्दर जी, एक अच्छी रचना।
आपकी उपमायें पसन्द आयीं।
भाईसाहब, आप रहस्यवादी कविताएँ कब से करने लगे? सच में बहुत अद्भुत लिखा है। लेकिन इस बार भाषागत गलतियाँ बच्चों की तरह किए हैं। पोस्ट करने से पहले थोड़ा ध्यान दिया कीजिए।
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