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Tuesday, June 05, 2007

प्रतिक्षा


किँचित समय नहीँ है अपने पक्ष मेँ
जब शब्दोँ पर भारी मौन हो
अन्तर्मन स्वँय से पूछे कि तुम कौन हो
अस्तित्व जब लगे स्वँय का
खेत मेँ उगी खतपतवार सा
या अलमारी मेँ बिछे पुराने अखबार सा
जर्जर प्लस्तर उखडी दीवार सा
बेरँग टूटे फूटे नाम मात्र किवाड सा
जो न किसी को रोक पाता है
न स्वँय ही एक स्थान पर रुक पाता है
चूलेँ जिसकी हिल गयी हैँ
बरसोँ की ठेलमठेल मेँ
चोखटोँ ने जिससे किनारा कर लिया
झुक गया है जो समय की थाप से
ग्लानि है जिसे अपने आप से
प्रतिक्षारत है जो उस घडी का
साथ छोडती आखरी कडी का
जब धराशायी होगा वो धम से
टुकडे टुकडे हो कर आग मेँ जलेगा
छुटकारे के लिये जीवन के तम से
राख उड कर खाक मेँ मिल जायेगी
चलती फिरती एक कृति एक माला के साथ
दीवार पर बन एक तस्वीर टँग जायेगी
मूक साक्षी जग के इस व्यवहार की
उस पर से झडेगी धूल जब
प्रतिक्षा मे उसी किसी त्योहार की.

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11 कविताप्रेमियों का कहना है :

देवेश वशिष्ठ ' खबरी ' का कहना है कि -

मोहिन्दर जी, आज युग्म को पढना शानदार रहा ।
पहले राजीव जी की मन को छू लेने वाली कविता और फिर आपकी परिपक्वता।
आप अब धीरे धीरे सूफियाना होते जा रहे हैं, और जिदगी की बात से सूफियत करामात तक आपकी कविता में आसानी से नगर आ जाती है।
जावेद अख्तर साहब की एक कविता है 'वो कविता बहुत याद आता है' आपने याद दिला दी।
बधाई।
देवेश वशिष्ठ ' खबरी '
9811852336

SahityaShilpi का कहना है कि -

बेहद सुंदर रचना है मोहिन्दर भाई। कुछ अधिक कहने को समुचित शब्द नहीं हैं मेरे पास, इसलिये वो फिर कभी।

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

जब शब्दोँ पर भारी मौन हो
अन्तर्मन स्वँय से पूछे कि तुम कौन हो
अस्तित्व जब लगे स्वँय का
खेत मेँ उगी खतपतवार सा
या अलमारी मेँ बिछे पुराने अखबार सा
जर्जर प्लस्तर उखडी दीवार सा
बेरँग टूटे फूटे नाम मात्र किवाड सा

चलती फिरती एक कृति एक माला के साथ
दीवार पर बन एक तस्वीर टँग जायेगी
मूक साक्षी जग के इस व्यवहार की
उस पर से झडेगी धूल जब
प्रतिक्षा मे उसी किसी त्योहार की.

आपकी कलम एक परिपक्व सोच के साथ चली है। इतने सुन्दर बिम्ब हैं कि प्रभावित हुए बिना नहीं रहा जा सकता। बहुत बधाई आपको।

*** राजीव रंजन प्रसाद

रंजू भाटिया का कहना है कि -

बेहद ख़ूबसूरत और सच लिए हैं आपकी रचना मोहिन्दर जी .

गहरी सोच ळिए ख़ूबसूरत लफ़्ज़ों में
ढली है यह रचना ....

छुटकारे के लिये जीवन के तम से
राख उड कर खाक मेँ मिल जायेगी
चलती फिरती एक कृति एक माला के साथ
दीवार पर बन एक तस्वीर टँग जायेगी
मूक साक्षी जग के इस व्यवहार की
उस पर से झडेगी धूल जब
प्रतिक्षा मे उसी किसी त्योहार की.

कमाल का लिखा है ..

ghughutibasuti का कहना है कि -

बहुत अलग, सोचने को मजबूर करने वाली कविता !
घुघूती बासूती

सुनीता शानू का कहना है कि -

आज आपके लिखने का एक अलग ही अन्दाज नजर आया...बहुत सुन्दर अभिव्यक्ती है...
किँचित समय नहीँ है अपने पक्ष मेँ
जब शब्दोँ पर भारी मौन हो
अन्तर्मन स्वँय से पूछे कि तुम कौन हो
कितना अच्छा लग रहा है खुद से झुझते हुए सवाल करना...
चलती फिरती एक कृति एक माला के साथ
दीवार पर बन एक तस्वीर टँग जायेगी
मूक साक्षी जग के इस व्यवहार की
उस पर से झडेगी धूल जब
प्रतिक्षा मे उसी किसी त्योहार की.
कितनी सच्चाई है इन पक्तियों में...
सुनीता(शानू)

Anonymous का कहना है कि -

परिपक्व रचना!

"अन्तर्मन स्वँय से पूछे कि तुम कौन हो", मेरी नज़र में यह सबसे कठिन कार्य है।

बधाई!

विश्व दीपक का कहना है कि -

बहुत सुंदर रचना है मोहिंदर जी। मन प्रसन्न हो गया।
जब शब्दोँ पर भारी मौन हो
अन्तर्मन स्वँय से पूछे कि तुम कौन हो
अस्तित्व जब लगे स्वँय का
खेत मेँ उगी खतपतवार सा
या अलमारी मेँ बिछे पुराने अखबार सा
जर्जर प्लस्तर उखडी दीवार सा
बेरँग टूटे फूटे नाम मात्र किवाड सा

एक अच्छी एवं परिपक्व रचना के लिए बधाई स्वीकारें।

Tushar Joshi का कहना है कि -

दूर की सोच, गहरी सोच। अंतर्मूख कर जाते है शब्द।

पंकज का कहना है कि -

मोहिन्दर जी, एक अच्छी रचना।
आपकी उपमायें पसन्द आयीं।

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

भाईसाहब, आप रहस्यवादी कविताएँ कब से करने लगे? सच में बहुत अद्‌भुत लिखा है। लेकिन इस बार भाषागत गलतियाँ बच्चों की तरह किए हैं। पोस्ट करने से पहले थोड़ा ध्यान दिया कीजिए।

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