केसरिया बालमवा..
पधारो म्हारे देस...
पधारो म्हारे देस...
आदम ढूंढो, आदिम पाओ
रक्त पिपासु, प्यास बुझाओ
मेरी माँगें, तेरी माँगे
खींचे इसकी उसकी टाँगे
मेरा परिचय, मेरी जाती
छलनी कर दो दूजी छाती
नेताजी का ले कर नारा
गुंडागर्दी धर्म हमारा
हमें रोकने की जुर्ररत में
खिंचवाने क्या केस
पधारो म्हारे देस..
किसका ज्यादा चौडा सीना
मैं गुज्जर हूँ, वो है मीणा
दोनों मिल कर आग लगायें
रेलें रोकें बस सुलगायें
कितना अपना भाईचारा
मिलकर हमने बाग उजाडा
बीन जला दो, धुन यह किसकी
भैंस उसी की लाठी जिसकी
मरे बिचारे आम दिहाडी
गोली के आदेस
पधारो म्हारे देस..
ईंट ईंट कर घर बनवाओ
जा कर उसमें आग लगाओ
और अगर एसा कर पाओ
हिम्मत वालों देश जलाओ
अपनी पीडा ही पीडा है
भीतर यह कैसा कीडा है
अपनी भी देखो परछाई
निश्चित डर जाओगे भाई
बारूदों में रेत बदल दी
इसी काज के क्लेस
पधारो म्हारे देस...
जाग जाग शैतान जाग रे
आग आग हर ओर आग रे
जला देश परिवेश नाच रे
झूम झूम आल्हे को बाँच रे
इंसानों की मौत हो गयी
सोच सोच की सौत हो गयी
होली रक्त चिता दीवाली
गुलशन में उल्लू हर डाली
हँसी सुनों, हैं सभी भेडिये
इंसानों के भेस
पधारो म्हारे देस...
केसरिया बालमवा.........!!!
*** राजीव रंजन प्रसाद
4.06.2007
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26 कविताप्रेमियों का कहना है :
राजीव रंजन ji..
bahut hi achchhi rachna hai..
aap ka pryas badhai ke layak hai.
aur aap ki vyangatmk shaili kamal ki hai..
किसका ज्यादा चौडा सीना
मैं गुज्जर हूँ, वो है मीणा
दोनों मिल कर आग लगायें
रेलें रोकें बस सुलगायें
कितना अपना भाईचारा
bahut sundar....
sundar aur prabhawshali rachna ke liye badhi..
umid hai ki mujhe aapka sahyog hamesa milega..
पधारो म्हारे देस...
केसरिया बालमवा...
राजस्थान की हवा में यह सुर हमेशा से सुरीले लगते हैं ....
राजीव जी आपके लिखे में आज के हालत की तस्वीर बहुत सही उभर आई है
किसका ज्यादा चौडा सीना
मैं गुज्जर हूँ, वो है मीणा
दोनों मिल कर आग लगायें
रेलें रोकें बस सुलगायें
कितना अपना भाईचारा
मिलकर हमने बाग उजाडा...
इस रचना को वहाँ जगह जगह लिख देना चाहिए
ताकि फिर से वही सुरीला गीत गूँज सके वहाँ की हवा में ..जो वहाँ की मिट्टी की असली पहचान बताता है इतनी सुंदर रचना के लिए बधाई..
राजीव जी, बहुत दिल को छूलेने वाला लिखा है.
मैं यह भी कल्पना कर चुका हूं कि आपके स्वर में यह कविता कैसी लगेगी.
आप इसे अपनी आवाज में पोडकास्ट के रूप में भी डालें
ये दूसरी कविता हो गयी, जो आपसे अब बार बार सुनी जायेगी।
वैसे पीडा और परिस्थितियों को खराब हो चोकी स्थितियों से जोडकर गरम सीसे सी उतरती कविता करने में आप माहिर हैं।
हालात यूँ ही जलतें रहें तो कौन आयेगा अपने देश।
मैथली जी की बात भी मानी जाय, कविता को जल्दी सुना भी दें ।
बधाई।
रंजन जी,
आम आदमी की प्रतिक्रिया स्वरूप आपकी यह रचना दिल को छूती है.. धर्म, जाति, क्षेत्र और देश के नाम पर दंगो को अन्जाम देने वाले लोग निशचय ही देश के हित में नही हैं. आपकी आवाज देश की आवाज है.. पोडकास्ट पर कब सुनाई देगी... प्रतीक्षारत हैं
आपको वाकई हमारे देस पधारने की जरुरत है राजीव जी...राजस्थान की धरती पर इस मातम के समय में कविता अपना धर्म बखूबी निभा रही है। आपकी व्यंग्यात्मक शैली बहुत गहरा वार करती है।
पर हम सबका दुर्भाग्य है कि उत्पात मचाने वाले लोग इतने सौभाग्यशाली नहीं कि ये कविता पढ़ सकें।
लिखते रहें.. कम से कम यह देखकर सुकून मिलता है कि हमारे दौर की कविता अपनी समस्याओं को देखकर सोई नहीं है।अभी जंग जारी है।
राजस्थान के वर्तमान हालात के परिप्रेक्ष्य में आपकी यह कविता अराजकतावादियों पर बेहद सटीक वार करती है। आपके व्यंग्य की धार पहली पँक्ति से ही अपना कार्य आरम्भ करती है और अंत तक कहीं भी कमजोर नहीं पड़ती। हालाँकि यह भी सच है कि जिन्हें इस कविता को पढ़ने और समझने की ज्यादा जरूरत है, वो इस तरह की चीजों के पास से भी नहीं गुजरते। पर कवि को अपनी कलम के माध्यम से अपने समाज और सामयिक घटनाओं को सामने लाने का हर संभव प्रयास करना ही चाहिये। आपको साधुवाद। आशा है कि इस कविता का संदेश सभी लोगों तक पहुँचेगा और यह हालात जल्द सुधरेंगे।
किसका ज्यादा चौडा सीना
मैं गुज्जर हूँ, वो है मीणा
दोनों मिल कर आग लगायें
रेलें रोकें बस सुलगायें
कितना अपना भाईचारा
मिलकर हमने बाग उजाडा...
राजस्थान के वर्तमान हालात पर आपसे ऎसी हीं कविता की उम्मीद थी। मुझे पता था कि आपकी लेखनी चुप नहीं रह सकती, कुछ बोलेगी हीं। और आपकी लेखनी ने बखूबी अपना धर्म निभाया है। मैं भी maithily जी से सहमत हूँ कि आप इसे अपना स्वर दें और हिन्द-युग्म पर प्रेषित कर दें।
राजीव भैया॰॰॰॰॰
आप अपना वादा इतनी अच्छी तरह से निभायेंगें, इसका मुझे पूरा विश्वास था ।
"पधारो म्हारे देस"॰॰॰॰ ऍक ऍसी पंक्ति जिसे बाँच बाँच कर हम अतिथियों को सर आँखों पर बिठाते है, ऍसा लग रहा है, जैसे आज हमीं लोगों को चिढा रही हो॰॰॰
कि अब कहो॰॰॰॰"पधारो॰॰"
कैसे कहूँ॰॰॰॰ नही पता॰॰॰॰
"किसका ज्यादा चौडा सीना
मैं गुज्जर हूँ, वो है मीणा"
इन दो जातियों मे पूरा राजस्थान जैसे छः दिनो के लिये भुला दिया गया॰॰॰
कैसे लौटा पायेंगें हम इस मरुभूमि को उसका गौरव॰॰॰॰॰नही पता॰॰॰॰
वे लोग, जो बाहर से बालाजी दर्शन को आये थे और छः दिनो के लिये राजस्थान के बन्धक बन गये॰॰॰॰कैसे लौटा पायेंगे उनकी आज़ादी॰॰॰॰नही पता॰॰॰॰
जो २५ लोग पुलिसिया गोली का शिकार हुये, उनके परिवार को कैसे बँधा पायेंगें ढाढस॰॰॰॰नही पता॰॰॰॰
कभी आपसे मुलाकात हुई तो किस प्रदेश की छवि लेकर मिलूँगा॰॰॰॰नही पता॰॰॰॰
भीगी पलकों से इस काव्यार्थ दर्द के लिये आपका आभार॰॰॰॰॰॰
आपकी कविता को मै प्रतियोगिता मे शामिल करने के अरज करता हूँ, मना मत कीजियेगा ।
आर्य मनु
अनुपम रचना राजीव जी
समसामयिक रचना तो है ही,लेकिन कडवे सच को नंगा कर दिया है आपने
पढते पढ्ते ही अंतस आक्रोश से भर उठता है,आपकी व्यंग्य की अपनी ही शैली है जो व्यवस्था और आज के तथाकथित "आधुनिक" और "सभ्य"
समाज के गाल पर करारा तमाचा सा लगाती प्रतीत होती है|
"अपनी पीडा ही पीडा है
भीतर यह कैसा कीडा है"
"बारूदों में रेत बदल दी
इसी काज के क्लेस"
"जला देश परिवेश नाच रे
झूम झूम आल्हे को बाँच रे
इंसानों की मौत हो गयी
सोच सोच की सौत हो गयी
होली रक्त चिता दीवाली'
सच है, आज के परिवेश की भयानकता सिहरन पैदा कर देती है
खैर
"मेरा भारत महान"
अद्भुत
साभार बधाई
सस्नेह
गौरव शुक्ल
ईंट ईंट कर घर बनवाओ
जा कर उसमें आग लगाओ
और अगर एसा कर पाओ
हिम्मत वालों देश जलाओ
अपनी पीडा ही पीडा है
भीतर यह कैसा कीडा है
अपनी भी देखो परछाई
निश्चित डर जाओगे भाई
बारूदों में रेत बदल दी
this is the best para i liked in this poem....baki kya kahena hai....hamesha ki tarah u r THE BEST
बहुत ही सटीक और सधी हुई कविता है। आज के दिन राजस्थान को इसी तरह संबोधित किया जा सकता है।
राजीव जी,
मुझे बहुत सुखद आश्चर्य होता है अपने सॊभाग्य पर कि, आपसे मित्रता हुई.. आपकी इस सामयिक रचना ने विभोर कर दिया.. मै अपने आपको कोई गंभीर टिप्पणी करने योग्य नही मानता किंतु.. आपकी यह रचना सार्थक है.. भाई आर्य मनु, अजय यादव, रंजु जी से पूर्णत: सहमत हूं..
हिन्द युग्म पर सुन्दर रचनायें बढती जा रही हैं । राजीव आपकी कविता पर कुछ भी कहना छोटा मुह बडी बात ही होगी । ऎक सामयिक विषय पर ऐसा व्यंग कर सकना किसी सधी लेखनी के बस की ही बात है ।
सुप्रभात ऱाजीव जी,आपकी रचना मे देश के आम आदमी की व्यथा प्रतिबिम्बित है.यह दावानल तो सारे मंजर को जला कर राख कर देगा अगर जनमानस ऐसे ही गुमराह होत रहा.
-Dr.R.Giri
प्रिय राजीव जी,
अपने शब्दों को इस रचना से जोड्कर (टिप्पणी रूप मे ही सही ) इसके स्तर के साथ मैं खिलवाड.
नही करना चाहता । क्षमाप्रार्थी हूँ ..... । आप ही की बातों से इस व्यंग्य-मूर्ति की अभ्यर्थना कर रहा हूँ -
"आदम ढूंढो, आदिम पाओ
रक्त पिपासु, प्यास बुझाओ"
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"कितना अपना भाईचारा
मिलकर हमने बाग उजाडा"
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"अपनी भी देखो परछाई
निश्चित डर जाओगे भाई
बारूदों में रेत बदल दी
इसी काज के क्लेस "
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"इंसानों की मौत हो गयी
सोच सोच की सौत हो गयी "
साभार,
श्रवण
नजरोंके साम्ने चित्र आ गया राजीवजी. सुंदर कविता.
राजीव जी देरी से टिप्पणी करने पर माफ़ी चाहती हूँ आपकी कविता बहुत ही मर्म-स्पर्शी है,आपने कम शब्दो में सभी कुछ कह डाला है...
जातियता के नशे में डूबा हर इंसान ये भूल जाता है की स्वंय को ही नुकसान पहुँचा रहा है,..अब डी.टी.सी बसे राष्ट्र की सम्पति है यानि की जनता के पैसे से ही तो बनाया गया है...उन्हे जला कर क्या मिलेगा...और महंगाई बढ़ जायेगी...सरकार पैसा कहाँ से लायेगी सब जनता को ही भुगतना पड़े गा..और फ़िर अपने ही लोगो की लाशे बिछ गई क्या मिला? कितनी ही औरते विधवा हो गई,कितने ही बच्चे अनाथ हो गये...शायद आपकी कलम एक नई क्रांति ला दे और समझा सके सभी को कि आरक्षण उन्ही को मिलना चाहिये जो इसके असली हकदार हैं आपस में लड़कर हम अपना ही नुकसान कर रहे है...
बहुत सुंदर कविता है...बहुत-बहुत बधाई...
सुनीता(शानू)
राजीवजी,
संभवतया: सर्वाधिक शांत प्रदेशों में गिना जाने वाला राजस्थान जिस प्रकार से सुलगा, वह अविश्वसनिय है।
आपने कविता के माध्यम से अच्छा संदेश दिया है, मगर जातिगत राजनीति जब तक होती रहेगी, कुछ नहीं हो सकता।
खेर अच्छी रचना के लिये बधाई स्वीकार करें।
ऐसे कैसे पधारें आपके देस ?
जहां जीना हुआ बेमानी
शर्म हुई है पानी
अब तरस रही है अंखियां
पाने को सुर-संदेस
जात-पांत का भेद मिटाओ
एक दूजे को गले लगाओ
मिल जाएंगे रेत में एक दिन
आओ तजो कलेस
मीरा,महाराणा,जोधा की धरती
आज सभी से अरज है करती
घूमर,मांड,कालबेलिया का अलख जगा कर
फ़िर गाएं मिलजुल कर हम सब
केसरिया बालम ...पधारो म्हारे देस.
जिवंत चित्रण किया है। सभी चित्र आँखो के सामने आ जाते है। आपके कविता का उद्देश सफल हुआ।
दिल को छूलेने वािल रचना है. आपकी रचना मे देश के आम आदमी की व्यथा प्रतिबिम्बित है.बधाई.
राजीव जी, बहुत ही सामयिक और सटीक रचना।
राजीव रंजन ji..
Maja aa gaya aap kia kavita per ker, aap ko lagata hai kya ya desh kabhi sudhraga?
Sandeep Raghuwanshi
राजीव रंजन जी आपका यह कहना कि "मैं गुज्जर हूँ, वो है मीणा
दोनों मिल कर आग लगायें" बिलकुल भी जमीनीं सच्चाई पर नहीं लिखा गया है शायद आपने सुनी सुनाई बातों पर विश्वास करके मीणाओं पर यह इल्जाम लगाया है। सच तो यह है कि मीणा तो गुर्जरों के तीन दिन उत्पात मचाने के बाद अपने घर से बाहर निकलने पर मजबूर हुए थे वो भी उस स्थिति में जब सरकार मूक दर्शक बनकर गुर्जरो का तांडव देख रही थी तब मीणा समाज ने खुद रास्ता खुलबाने की ठानी थी। कहीं भी मीणाओं द्वारा आग लगाने जैसी सूचना हमने न तो देखी और न ही किसी थाने में किसी भी मीणा के खिलाफ़ सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने का मुकदमा दर्ज हुआ फ़िर आप किस बिना पर मीणा समाज को इस आन्दोलन के लिये जिम्मेदार ठहरा रहे है।
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