अंतरजालीय कवियों में सजीव सारथी जी की बड़ी ख़्याति है। दिल्ली और उसके आस-पास के क्षेत्रों में होने वाले कवि-सम्मेलनों में भाग लेकर श्रोताओ तक यह बात पहुँचाते रहते हैं कि हिन्दी-पुजारियों की बहुत बड़ी संख्या अंतरजाल पर भी डेरा डाले हैं। हिन्द-युग्म के प्रयासों के प्रोत्साहन हेतु उन्होंने मई महीने की प्रतियोगिता में भाग लिया था जहाँ उनकी कविता 'आम आदमी' १०वें पायदान तक पहुँच गई थी। प्रथम चरण के ज़ज़मेंट के बाद यह कविता ११वें स्थान पर थी लेकिन जब दूसरे चरण के अंक भी सम्मिलित किए गये तो इसका स्थान १०वाँ हो गया।
कविता- आम आदमी
लफ्ज़ रूखे, स्वर अधूरे उसके,
सहमी-सी है आवाज़ भी,
सिक्कों की झंकारें सुनता है
सूना है दिल का साज़ भी,
तनहाइयों की भीड़ में गुम
दुनिया के मेलों में,
ज़िन्दगी का बोझ लदे
कभी बसों में, कभी रेलों में,
पिसता है वो हालात की चक्कियों में,
रहता है वो शहरों में, बस्तियों में,
घुटे तंग कमरों में आँखें खोलता
महँगाई के बाज़ारों में खुद को तोलता,
थोड़ा सा जीता थोड़ा सा मरता
थोड़ा सा रोता थोड़ा सा हँसता,
रोज़ यूँ ही चलता- आम आदमी।
मौन-दर्शी हर बात का
धूप का बरसात का
आ जाता बहकाओं में
खो जाता अफ़वाहों में
मिलावटी हवाओं में,
मिल जाता है अक्सर कतारों में
राशन की दुकानों में,
दिख जाता है अक्सर बाज़ारों में
रास्तों में चौराहों में,
अपनी बारी का इंतज़ार करता
दफ़्तरों-अस्पतालों के बरामदों में ,
क्यों है आख़िर अपनी ही सत्ता से
कटा-छठा
क्यों है यूं अपने ही वतन में अजनबी- आम आदमी।
कवयिता- सजीव सारथी
प्रथम चरण का निर्णय- ७॰७५, ६, ५, ७॰५, ७
औसत अंक- ६॰६५
दूसरे चरण का निर्णय- ६॰२५, ६॰२५, ९, ६॰६५ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ७॰०३७५
पुरस्कार- डॉ॰ कुमार विश्वास की काव्य-पुस्तक 'कोई दीवाना कहता है' की स्वहस्ताक्षरित प्रति।
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6 कविताप्रेमियों का कहना है :
थोड़ा सा जीता थोड़ा सा मरता
थोड़ा सा रोता थोड़ा सा हँसता,
रोज़ यूँ ही चलता- आम आदमी।
क्यों है आख़िर अपनी ही सत्ता से
कटा-छटा
क्यों है यूं अपने ही वतन में अजनबी- आम आदमी।
सजीव जी। युग्म पर आपको देख कर प्रसन्नता हुई। उत्कृष्ट रचना।
*** राजीव रंजन प्रसाद
जनाब खुल के लिखिए। आप जॊ हुनर छिपाए हैं वह तॊ बहुत दुर्लभ है।
क्यों है आख़िर अपनी ही सत्ता से
कटा-छठा
क्यों है यूं अपने ही वतन में अजनबी- आम आदमी।
बहुत कुछ कह गयी गयी आख़िरी पंक्तियाँ...
एक आम आदमी के दर्द को आप ने बखूबी ज़ाहिर किया है. अति सुंदर!
आम इंसान के दर्द का सजीव चित्रण ।
"क्यों है यूं अपने ही वतन में अजनबी- आम आदमी।"
पंक्ति दिल को बेध गई, सोचने पर विवश कर गई ।
और यही हर कविता का मूल है, जिसमे आपका यह प्रयास निश्चित ही सफल हुआ है ।
एक ऐसा यक्ष प्रश्न आपने पूछा है, जिसका प्रत्युत्तर मिलना मुश्किल है।
आभार स्वीकार करें ।
आर्यमनु ।
आम आदमी की आम बातें विशेष तरीके से। अच्छा लगा पढ़कर
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