देखूँ जब पर्वतों को रंग उड कर
बादल बन जाता है
छू कर गुजरा कोई अभी-अभी
मेरा रुआँ झूम जाता है
उन चरागों की शमा बुझती नहीं
जिनके तले घना अँधेरा होता है
तुम्हें अक्सर महसूस करती रूह
बहती इन साँसों से नाता है
तेरे लिये जग छोड भी दूँ मगर
गैरों पर यकीन नहीं आता है
जब तलक तेरा नूर चमके मैं रहूँ
फिर हो जाये जो होता है
जो हो रहा है सब अच्छे के लिये
सोचकर हर सितम सहते जाते है
न जाने कितना मन भारी बादल का
वो बिन थमें बरसता जाता है
छू कर गुजरा कुछ अभी-अभी
मेरा रोआ झूम जाता है...
********** अनुपमा चौहान **********
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11 कविताप्रेमियों का कहना है :
मेरा तॊ रॊम रॊम झूम गया। आपकी भाषा में कहूं तॊ छू कर गुजरा कोई अभी-अभी
मेरा रुआँ झूम जाता है
जो हो रहा है सब अच्छे के लिये
सोचकर हर सितम सहते जाते है
न जाने कितना मन भारी बादल का
वो बिन थमें बरसता जाता है
बहुत से भाव दिखे मुझे इस रचना में .सुंदर है दिल को छूने वाली
तेरे लिये जग छोड भी दूँ मगर
गैरों पर यकीन नहीं आता है
जब तलक तेरा नूर चमके मैं रहूँ
फिर हो जाये जो होता है
बहुत खूब, अनुपमा जी! प्रेम की ये अभिव्यक्ति काबिले-तारीफ है. बधाई स्वीकारें.
"न जाने कितना मन भारी बादल का
वो बिन थमें बरसता जाता है"
वाह कितने सुन्दर भाव है।
दिल को छू गई आपकी अभिव्यक्ति॰॰॰॰
बधाई आपको,
आर्यमनु
अनुपमाजी, बहुत दिनों के बाद आपकी कविता पढने को मिली ।
तुम्हें अक्सर महसूस करती रूह
बहती इन साँसों से नाता है
जो हो रहा है सब अच्छे के लिये
सोचकर हर सितम सहते जाते है
न जाने कितना मन भारी बादल का
वो बिन थमें बरसता जाता है
वाह, कितनी सुंद्र पंक्तियां है ।
ज़्यादा नहीं जमी, मगर फ़िर भी यह अंतरा पसंद आया-
न जाने कितना मन भारी बादल का
वो बिन थमें बरसता जाता है
तेरे लिये जग छोड भी दूँ मगर
गैरों पर यकीन नहीं आता है
जब तलक तेरा नूर चमके मैं रहूँ
फिर हो जाये जो होता है
बहुत जोरदार लिखा है आपने अनुपमा जी।हर भाव मुखरित हुए हैं इसमें।
बधाई स्वीकारें।
अनुपमा जी,
सुन्दर रचना है... कहां हैं आप आजकल
तेरे आने के इन्तजार में न जाने कितने चिराग बुझ गये
अब आ गये हो तो फ़िर महफ़िल में बहार आयेगी
देखूँ जब पर्वतों को रंग उड कर
बादल बन जाता है
उन चरागों की शमा बुझती नहीं
जिनके तले घना अँधेरा होता है
जब तलक तेरा नूर चमके मैं रहूँ
न जाने कितना मन भारी बादल का
वो बिन थमें बरसता जाता है
टुकडे-टुकडे में बहुत गहरी गहरी बातें कहीं हैं आपने। अच्छी रचना है।
***राजीव रंजन प्रसाद
आज नेट से बहुत परेशान रही हूँ चाह कर भी टिप्पणी ढ़ंग से नही दे पाई हूँ...आप बहुत गहरे भाव रखती है...कुछ पक्तिया विशेष पसंद आई है...
न जाने कितना मन भारी बादल का
वो बिन थमें बरसता जाता है
छू कर गुजरा कोई अभी-अभी
मेरा रुआँ झूम जाता है
शानू
"न जाने कितना मन भारी बादल का
वो बिन थमें बरसता जाता है"
अच्छा लिखा, सुन्दर रचना के लिये बधाई
सस्नेह
गौरव शुक्ल
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