अब तक हम मई माह की प्रतियोगिता की टॉप १० कविताओं में से ६ को प्रकाशित कर चुके हैं। आज बारी है सातवीं पायदान की कविता 'दीप जले अब कैसे?' की जिसकी रचयिता हैं अमिता मिश्र 'नीर'। इन्होंने अपनी इस कविता को शुषा फॉन्ट में टाइप करके भेजा था, मगर खुशी की बात यह है कि इन्होंने अब यूनिकोड में लिखना सीख लिया है।
कविता- दीप जले अब कैसे?
दीपक दर का स्नेह बह रहा
दीप जले अब कैसे?
हाँ अनमोल प्यार बिकता है
जग में दो-दो पैसे
दीप जले अब कैसे ?
कहो बावली! इन आँखों से
रूदन लाल क्यों होतीं
दुनियॉ बड़ी निष्ठुर है कह दो
नयन लाल क्यों खोती,
ये सच है किन्हीं चरण का
मधुर पास मन पाया,
थाम कलेजा पाया था जो,
हाय मिले अब कैसे ?
दीप जले अब कैसे ?
प्रेम जलन में ही खिलता है
यथा फूल काटों में,
भोली भाव तुला करता है
त्यागों के बाटों में,
इन गीली आँखों को अब
मिले उजाला कैसे ?
दीप जले अब कैसे?
निर्धन नयनों के धन निखरे
मोती बिखरे जैसे,
उनकी ही धुँधली छाया में
चलना है जैसे-तैसे,
लघु दुनिया अँधियारे मन की
ज्योति मिले अब कैसे?
दीप जले अब कैसे?
शूलाचित डग कठिन लक्ष्य
हैं मुस्कानें मुर्झायी....
मेरे सपनों की पड़ती हैं
मानस जल में छाँईं.....
लाल-लाल मदिरा छलकी
जाती है लघु प्याले से
जिसको तुमने अँधियारे में
अपना मीत बनाया
रूठे हैं ये लोचन मेरे
रोते हाय छले से
दीप जले अब कैसे?
कवियित्री- अमिता मिश्र 'नीर'
प्रथम चरण के अंक- ८, ७, ७, ८॰५, ५
औसत अंक- ७॰१
प्रथम चरण के ज़ज़मेंट के बाद स्थान- सातवाँ
दूसरे चरण के अंक- ७॰५, ८॰५, ६, ७॰१ (पिछले चरण का औसत अंक)
औसत अंक- ७॰२७५
दूसरे चरण के ज़ज़मेंट के बाद स्थान- सातवाँ
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10 कविताप्रेमियों का कहना है :
हाँ अनमोल प्यार बिकता है
जग में दो-दो पैसे
दीप जले अब कैसे ?
बहुत अच्छी पक्तियाँ है...
कहीं कहीं कविता कुछ अनमना सा कर देती है...मन को जैसे की परेशान कर देती है...
कहो बावली! इन आँखों से
रूदन लाल क्यों होतीं
दुनियॉ बड़ी निष्ठुर है कह दो
नयन लाल क्यों खोती,
ये सच है किन्हीं चरण का
मधुर पास मन पाया,
थाम कलेजा पाया था जो,
हाय मिले अब कैसे ?
दीप जले अब कैसे ?
शुभ कामनायें
सुनीता(शानू)
Bahut sundar rachnaa hai.
vaah bahut khub..kavita sundar hai.. aage ki pratiyogita ke liye subhkamnayen
सुन्दर रचना है, भावों को बडे अच्छी ढंग से उकेरा है आप की लेखनी ने.
bahut sundar rachna hai.
badhai sweekarein.
अमिताजी,
कविता के लिये आपने बहुत ही सुन्दर विषय चुना है, वर्तमान में प्यार की महत्ता दिनों-दिन कम होती जा रही है, "प्यार बिकता है", आज की कड़्वी सच्चाई बन चुका है। सचमुच "दीप जले अब कैसे?"....
इस खूबसूरत रचना के लिये बधाई स्वीकार करें।
रचना बहुत ही अच्छी है विशेषकर आपका शब्द चयन।
"दीपक दर का स्नेह बह रहा
दीप जले अब कैसे?"
"भोली भाव तुला करता है
त्यागों के बाटों में,
इन गीली आँखों को अब
मिले उजाला कैसे ?"
बहुत बधाई।
*** राजीव रंजन प्रसाद
अमिता जी, बेहद सुंदर रचना. भाषा को थोड़ा और सामयिक रखतीं तो शायद और भी प्रभावी होती. फिर भी कुछ पँक्तियाँ बहुत पसंद आयीं.
हाँ अनमोल प्यार बिकता है
जग में दो-दो पैसे
दीप जले अब कैसे ?
कहो बावली! इन आँखों से
रूदन लाल क्यों होतीं
दुनियॉ बड़ी निष्ठुर है कह दो
नयन लाल क्यों खोती,
ये सच है किन्हीं चरण का
मधुर पास मन पाया,
थाम कलेजा पाया था जो,
हाय मिले अब कैसे ?
दीप जले अब कैसे ?
बधाई और अगली प्रतियोगिता के लिये शुभकामनायें.
प्रेम जलन में ही खिलता है
यथा फूल काटों में,
भोली भाव तुला करता है
त्यागों के बाटों में,
इन गीली आँखों को अब
मिले उजाला कैसे ?
दीप जले अब कैसे?
बहुत बहुत सुंदर और सच लिखा है ...
प्रेम जलन में ही खिलता है
यथा फूल काटों में,
भोली भाव तुला करता है
त्यागों के बाटों में,
इन गीली आँखों को अब
मिले उजाला कैसे ?
दीप जले अब कैसे?
दीप जरूर जलेगा प्रयत्न करते रहें
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