मैंने चाहा जब भी उड़ना
नील गगन में पंख पसार
शुष्क धरा पर ले आया
अन्त:करण मेरा हर बार
क्या वह मेरे हिस्से का अम्बर है
जिस पर मैंने डैने हैं फैलाये
या पंख मेरे ये अपने हैं
बन्दर-बाँट में जो मेरे हिस्से में आये
कहीं प्लेटें पकवानों की फिंकती
कहीं भूख खड़ी कचरे के ढेरों पर
किस के हिस्से की कालिमा छा गई
इन उजले भोर-सवेरों पर
निजी बंगलों में तरण-ताल जहाँ
लबालब भरे पड़े हैं मीठे पानी से
वहीं सूखे नल पर भीड़ लगी है
प्रतीक्षा रत जल की रवानी में
वातानुकूलित कमरों में होती घुसफुस
सूरज की तपिश के बारे में
धूप में ही सुसताती मेहनत
फ़ुटपाथ और सडकों किनारों में
नेताओं के झुँड ने चर ली
हरियाली सारी मेहनत के खेतों की
अफसर शाही धूल चाटती
अँगूठा-छापों के बूटों की
खुली संस्कृति विदेशी चैनल
साइवर कैफ़ों की धूम मची
फ़ोन कैमरा और मोबाइल
नग्न एम एम एस बनी एक कड़ी
हैलो हाय और मस्त धुनों पर
देश के भावी कर्णधार झूम रहे हैं
टपके तो लपके हम यही सोच कर
कपट शिकारी घूम रहे हैं
एक घुटन का साम्राज्य है
बहती नहीं जब कोई वयार
कैसे उड़ूँ मैं नील गगन में
बिँधे हुए पंखों से कैसे पाऊँ पार
मैंने चाहा जब भी उड़ना
नील गगन में पंख पसार
शुष्क धरा पर ले आया
अन्त:करण मेरा हर बार
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14 कविताप्रेमियों का कहना है :
र"मैँने चाहा जब भी उडना
नील गगन मेँ पँख पसार
शुष्क धरा पर ले आया
अन्त:करण मेरा हर बार"
पहली चार पंक्तियाँ पढते ही मन प्रसन्न हो गया। गंभीर और बहुत सुन्दर कविता है मोहिन्दर जी।
"या पँख मेरे ये अपने हैँ
बन्दर बाँट मेँ जो मेरे हिस्से मेँ आये"
"वहीँ सूखे नल पर भीड लगी है"
"धूप मेँ ही सुसताती मेहनत
फ़ुटपाथ और सडकोँ किनारोँ मेँ"
"अफसर शाही धूल चाटती
अँगूठा-छापोँ के बूटोँ की"
"कैसे ऊडूँ मेँ नील गगन मेँ
बिँधे हुए पँखोँ से कैसे पाऊँ पार"
बहुत सशक्तता से व्यवस्था पर आपने प्रहार किया है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
टैगोर ने इकबाल के कानों में धीरे से कहा
ईलू-ईलू मुल्क का नेशनल तराना हो गया।
sundar hai..
kahin kahin shabd kam kiye ja sakte the..
jaise main do baar ek hi panktee me..
beautiful expression.
मोहिन्दर जी हमेशा की तरह एक सशक्त रचना लेकर आये है आप,..गलतियाँ निकालना अपने बस की बात नही ये काम तो अधिक बुध्दि वाले ही कर सकते है...प्रथम चार पक्तिंयाँ बेहद पसन्द आई...
मैंने चाहा जब भी उड़ना
नील गगन में पंख पसार
शुष्क धरा पर ले आया
अन्त:करण मेरा हर बार
क्या कहे आपकी लेखनी में जादू है जो हमे बांधे रखता है...बहुत सुंदर।
बधाई स्वीकार करें...
सुनीता चोटिया(शानू)
मैंने चाहा जब भी उड़ना
नील गगन में पंख पसार
शुष्क धरा पर ले आया
अन्त:करण मेरा हर बार
The best lines.....
नेताओं के झुँड ने चर ली
हरियाली सारी मेहनत के खेतों की
अफसर शाही धूल चाटती
अँगूठा-छापों के बूटों की
karara prahaar....
एक घुटन का साम्राज्य है
बहती नहीं जब कोई वयार
कैसे उड़ूँ मैं नील गगन में
बिँधे हुए पंखों से कैसे पाऊँ पार
mazboot mahatyakaansha...
Gud one....keep writing
बहुत सुन्दर रचना है आज यही सब तो दीख पड़ता है यथा-
नेताओं के झुँड ने चर ली
हरियाली सारी मेहनत के खेतों की
अफसर शाही धूल चाटती
अँगूठा-छापों के बूटों की
मोहिंद्र जी बहुत ख़ूब लिखा है आपने ...
एक घुटन का साम्राज्य है
बहती नहीं जब कोई वयार
कैसे उड़ूँ मैं नील गगन में
बिँधे हुए पंखों से कैसे पाऊँ पार
मैंने चाहा जब भी उड़ना
नील गगन में पंख पसार
शुष्क धरा पर ले आया
अन्त:करण मेरा हर बार
व्यथा का चित्रण अचूक किया है आपने। कुछ दिनों पहले मधुर भांडारकर की ट्रेफिक सिग्नल फिल्म देखी थी तब यही सारे विचार मन में उमड़े थे।
बढिया कविता। बधाई।
मोहिन्दर जी,
कविताएँ जब दिल से लिखी जाती हैं तो उनसे ऐसा ही रस फूटता है। आपकी इस कविता की हर पंक्ति एक मजबूत अहसास है। सामाजिक विदम्बनाओं पर आपकी नैसर्गिक संवेदनाओं का चित्रण हैं।
बिलकुल अलग सी सोच-
या पंख मेरे ये अपने हैं
बन्दर-बाँट में जो मेरे हिस्से में आये
वास्तविकता के २००% करीब-
वातानुकूलित कमरों में होती घुसफुस
सूरज की तपिश के बारे में
धूप में ही सुसताती मेहनत
फ़ुटपाथ और सडकों किनारों में
अफसर शाही धूल चाटती
अँगूठा-छापों के बूटों की
यह बात हर काल के कवि-लेखक उठाते रहे हैं-
हैलो हाय और मस्त धुनों पर
देश के भावी कर्णधार झूम रहे हैं
टपके तो लपके हम यही सोच कर
कपट शिकारी घूम रहे हैं
हमेशा की तरह एक और खूबसूरत कविता। मोहिन्दर भाई, इसके बारे में इससे ज्यादा कहने को मेरे पास कुछ नहीं। आपकी अगली रचना का इन्तजार रहेगा।
मोहिन्दरजी,
तंत्र का संचालन अकुशल नेतृत्व में हो तो इससे कुशल कार्य की अपेक्षा नहीं की जा सकती, यह विडम्बना है।
जनता का जागरूक होना जितना आवश्यका है उतना ही आवश्यक है कि उनमें से कुशल संचालक आगे आकर इसके संचालन का जिम्मा लें, वरना आने वाले कवि भी ऐसा लिखेंगें -
"या पँख मेरे ये अपने हैँ
बन्दर बाँट मेँ जो मेरे हिस्से मेँ आये"
सस्नेह,
गिरिराज जोशी "कविराज"
hhmmmmm...
Theek likhaa hai....
वाह, बहुत सुन्दर लिखा मोहिन्दर जी
"नेताओं के झुँड ने चर ली
हरियाली सारी मेहनत के खेतों की
अफसर शाही धूल चाटती
अँगूठा-छापों के बूटों की"
"एक घुटन का साम्राज्य है
बहती नहीं जब कोई वयार
कैसे उड़ूँ मैं नील गगन में
बिँधे हुए पंखों से कैसे पाऊँ पार"
नग्न सत्य को उजागर करती है यह कविता ..बहुत बधाई
सस्नेह
गौरव शुक्ल
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