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Friday, May 25, 2007

बुचईया


बुचईया!
आज जब मरा
उसके मरने की उम्र नहीं थी
पर मौत को
छोटे-बड़े का
लाज-लिहाज़ कहाँ!

बाप तो ५ साल पहले ही
मर गया
जब बुचईया तुतलाता था।
बड़ा जुगाड़ी आदमी था
जब तक ज़िंदा रहा
बुचईया की माँ को
विधवा पेंशन मिलती थी
मरते ही
........
बंद।

बुचईया के मरते ही
उसकी माँ अनाथ हो गई,
एक वही तो जिया-खिला रहा था
अभागिन!
बेटे की उमर पा के
अजर हो गई।

जाने कौन रोग लग गया है
सब कहते हैं कोई नई बीमारी है
दिन-दिन वज़न गिरता है
हमेशा हरारत रहती है
शरीर पसनियाता है
बुचईया...........!
आँगन में तुलसी का बिरवा!
.....नरम माँस था
भक्क से जल गया।

शब्दार्थ-
पसनियाता था- पसीना होता था, बिरवा- पेड़, पौथा, भक्क से- जल्दी, तुरंत, बिना समय लगे।

कवि- मनीष वंदेमातरम्

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15 कविताप्रेमियों का कहना है :

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

मनीष जी,
देशज कविताओं में आपका कोई सानी नहीं है, गाँव, ग्रामीण परिवेश और आम जनजीवन के दर्द को आप जिस तरह से उकेरते हैं वह प्रसंशनीय है।

बहुत ही सुन्दर रचना।

*** राजीव रंजन प्रसाद

Mohinder56 का कहना है कि -

मनीष जी,

कोयले की खान में घुस कर ही पता लगाया जा सकता है कि वहां कितना अंधेरा, कितनी सीलन, कितनी कालिख है...आप आम आदमी का दर्द समझते हैं इसीलिये रचनाओं में से सत्य टपकता है..सुन्दर रचना.

विश्व दीपक का कहना है कि -

मनीष जी , गाँव में पल रहे दर्द का आपने जिस तरह से विश्लेषण किया है, वह काबिले-तारीफ है। देशज शब्दॊं से एक अच्छा वातावरण गढते हैं। मैं उम्मीद करता हूँ कि किसी दिन आप से बात हो सकेगी।
बधाई स्वीकारें।

विपुल का कहना है कि -

दिल को छू लेने वाली रचना.........
इस बार आपनें मेरी इच्छा पूरी कर दी ऐसी ही रचना की उम्मीद रहती है आपसे | सचमुच देशज शब्दो के प्रयोग से वातावरण का चित्रण करना आपको बख़ूबी आता है |सनीचरी की तरह यह कविता भी अपने उद्देश्य मे सफल हुई है और पूरी तीव्रता के साथ अपनी पीड़ा पाठक मन तक पहुचाती है| दर्द को शब्दो मे सफलता पूर्वक ढाला गया है |
एक और उत्क्र्ष्ट रचना के लिए बधाई स्वीकार करे .........

सुनीता शानू का कहना है कि -

मनीष जी बहुत खूबसूरत दिल को छू लेने वाली रचना है...पहले भी एसी ही एक रचना पढी थी शनिचरी जो हमे रुला गई थी और आज फ़िर वैसे ही बुचईया क्या जुगाड़ी आगमी था...हर शब्द दिल को छूलेने वाला है...
बड़ा जुगाड़ी आदमी था
जब तक ज़िंदा रहा
बुचईया की माँ को
विधवा पेंशन मिलती थी
मरते ही
........
बंद।बुचईया के मरते ही
उसकी माँ अनाथ हो गई,
एक वही तो जिया-खिला रहा था
अभागिन!
बेटे की उमर पा के
अजर हो गई।
बहुत-बहुत बधाई...
सुनीता(शानू)

रंजू भाटिया का कहना है कि -

सुंदर है इस तरह का पढ़ने को अब कम मिलता है ......दर्द को बहुत सच्चे लफ़्ज़ो में बयान किया है अपने ....

SahityaShilpi का कहना है कि -

एक और सुंदर रचना। देशज शब्दों में गाँव के दर्द को जीवंत करने में आप सफल रहे हैं। बधाई।

आशीष "अंशुमाली" का कहना है कि -

बेटे की उमर पा के
अजर हो गई।
कितना दर्द छुपा है इन पंक्तियों में.. कलम सार्थक हुई है।

Upasthit का कहना है कि -

वाह बाबू वाह... अब रुलायेगा क्या?

Medha P का कहना है कि -

आम जनजीवन के पीड़ा/दर्द को शब्दो मे सफलता पूर्वक ढाला गया है |
बधाई स्वीकारें।

Tushar Joshi का कहना है कि -

कविता पसंद आयी। आप चित्रकविता लिखते है। कविता पढ़ते साथ एक चित्र आखों के सामने बनता चला जाता है।

गौरव सोलंकी का कहना है कि -

बहुत खूब मनीष जी, आप जिस तरह एक सीधी सी बात को घुमा के सुन्दर और कंटीला वातावरण रचते हैं, हर बात सीधे अन्दर उतर जाती है।
मैं समझ सकता हूं कि भावना की किस तीव्रता से ऐसी पंक्तियाँ लिखी जाती होंगी।

बेटे की उमर पा के
अजर हो गई।
या फिर-
बड़ा जुगाड़ी आदमी था
जब तक ज़िंदा रहा
बुचईया की माँ को
विधवा पेंशन मिलती थी
मरते ही
........
बंद।

आपके पास भाषा की खूबसूरत मिल्कियत है और आप उसका और भी खूबसूरत इस्तेमाल करते हैं.बधाई स्वीकारें.

देवेश वशिष्ठ ' खबरी ' का कहना है कि -

बहुत ज्यादा हृदय स्पर्शी भाव।
पर बुचइया की माँ कितनी बार अनाथ होगी इस देश में?

Anonymous का कहना है कि -

कालजयी रचना!!!

सनिचरी के बाद आपकी दूसरी रचना है यह, जिसने रूला दिया, साधारण शब्दों में इतना दर्द समेटना वाकई असाधारण कार्य है, और यह आप ही कर सकते हैं।

आपकी कविताओं में सच्चाई झलकती है, बहुत सुन्दर!

पंकज का कहना है कि -

मनीष जी ज़मीन से जुड़े हुये व्यक्ति हैं;
वही उनकी रचनायें भी कहती हैं।

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