मीडिया कर्मी देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी' ने हिन्द-युग्म की स्थाई सदस्यता कल ही स्वीकार की है। पिछले माह की प्रतियोगिता में इन्होंने हिस्सा भी लिया था । और उनकी कविता "चल यार कुछ 'सद्दा' लूटें॰॰" ने ज़ज़ों को ध्यान भी आकृष्ट किया था। इनकी इस कविता के 'सद्दा' शब्द ने हमारे ज़ज़ों को बहुत अधिक परेशान किया। कविता के भावों से तो ऐसा लग रहा था कि सद्दा का अर्थ पतंग की डोरी से है, मगर पक्का नहीं हो पा रहा था। अंततः मोहिन्दर जी ने बताया कि शुद्ध शब्द 'सद्दी' है जिसका अर्थ है पतंग की सादी डोरी। सम्भव है कवि के स्थानीय लोगों के बीच यह शब्द इस रूप में ही जाना जाता हो। प्रथम चरण के चारों निर्णयकर्ताओं द्वारा दिए गये औसत अंकों के आधार पर ख़बरी की यह कविता छठवें पायदान पर थी और दूसरे चरण के निर्णकर्ता ने इसे चौथा स्थान दिया था। मगर तीसरे चरण के ज़ज़ ने इसे आगे फ़ारवर्ड नहीं किया। आज हम वशिष्ठ जी की यही कविता यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं। अगले रविवार से वशिष्ठ जी अपनी कविताएँ स्वयम् प्रकाशित करेंगे।
यार कोई तरक़ीब बता
तरक़ीब बता,
पच्चीस पैसे की जुगाड़ की।
वो वाले पच्चीस पैसे,
जिसकी चार संतरे वाली गोलियाँ आती थीं।
तरक़ीब बता,
चोरी करनी है!
अपने ही घर में कटोरी भर अनाज की...।
आज सपने में भोंपू वाली बर्फ़ बिकी थी!
मुझे 'पीछे देखो मार खाई' वाले खेल दोबारा खेलने हैं...
जानी-अनजानी गोदों को,
अंकल,आण्टी,चाचा, ताई, मौसी,
दीदी,मामा,नाना,दादा,दादी कहना है।
यार क्या इतना बड़ा हो गया हूँ
कि रोज़ काम पर जाना पड़ेगा?
ट्यूशन वाले मास्टर जी का काम नहीं किया है,
' आज फिर पेट दर्द का बहाना बना लूँ॰॰॰'?
ये रोज़-रोज़ के प्रीतिभोज बेस्वादे हैं।
अगली रामनवमी का इंतज़ार करूँगा।
खूब घरों में जाऊँगा 'लांगुरा' बनकर।
खूब पैसे मिलेंगे तब...
शाकालाका वाली पेंसिल खरीदकर चिढाऊँगा दोस्तों को।
वो 'जवान' है, नज़रें चुरा लेती है।
चल उससे बचपन वाली होली खेलते हैं,
यार चल कुछ 'सद्दा' लूटें॰॰
मुझे पतंग उड़ानी है॰॰॰॰।
कवि- देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'
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14 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत ख़ूब ....बचपन की याद दिला दी आपने :)
वो वाले पच्चीस पैसे,
जिसकी चार संतरे वाली गोलियाँ आती थीं।
तरक़ीब बता,
चोरी करनी है!
अपने ही घर में कटोरी भर अनाज की...।
आज सपने में भोंपू वाली बर्फ़ बिकी थी!
सुन्दर रचना है। बधाई ।
"सद्दा" का एक अर्थ पंजाबी मे "बुलावा" भी होता है।
देवेशजी,
आपकी यह कविता बचपन में ले जाती है, "सद्दा" को हमलोग यहाँ "मंझा" कहते हैं, बचपन खूब लूटा करते थे, आपने यादें ताजा कर दी।
बहुत खूब लिखा है!!!
सर्वप्रथम देवेश जी, आपका हिन्द-युग्म पर बहुत-बहुत अभिनंदन। आपने इस कविता से हमलोगों को बचपन में पहुँचा दिया है। वैसे सभी का बचपन एक जैसा नहीं होता। पर बचपन को मिस करना शायद सभी के जीवन में कॉमन होता है। आगे से हमें और बेहतर कविता पढ़ने को मिलेगी, इसका हमें विश्वास है।
देवेश जी..
यह कविता गुदगुदाती, झकझोरती हुई सुन्दर रचना है। आपका हिन्द युग्म के स्थायी सदस्य के रूप में अभिनंदन।
*** राजीव रंजन प्रसाद
नये घर में आ गया हूँ, थोडा सा इधर उधर खिसककर जगह बन जायेगी।
कल पूरे दिन मैं नावाकिफ था, कि कुछ ऐसा भी हो गया है।
पहली बात में हिन्द-युग्म प्रयास और उसकी प्यास को आभिनंदन करता हूँ।
जहाँ तक बात 'सद्दी' की है तो, मैं भाई मैं ठहरा ब्रजवासी। मैं पतंग की आधार डोर को यहाँ हम सद्दा ही कहते थे, बचपन में तो व्याकरण की समझ बिल्कुल होती ही नहीं है। बस इक कोरी सादगी होती है। बचपन को क्या फर्क पडता है सद्दे से पतंग उडे या सद्दी से,बस पतंग उडनी चाहिये।
शैलेश जी और रंजन जी का विशेष आभार देना चाहूँगा, यकीनन आहे युग्म पाठको को ज्यादा बेहतर कविता पढने मिलेगी।
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
कब से पलकें बिछायें
निहार रहे थे आपके आने को।
कब आओगें
अपनी कविताओं को पढ़ा कर हसाने को।
आपके आने से
यह गलियॉ पहले ज्यादा रौशन होगी।
आप जैसे और मिलेगें तो
हिन्दी और हिन्द युग्म की बरकत होगी।
आपकी यह कविता
और को बचपन की याद दिलाती है।
हम तो पंतग उड़ाना सीख न सकें,
यह बात हमें गम मे ड़बाती है।
ढेरों शुभकामनाऐं।
तरक़ीब बता,
चोरी करनी है!
अपने ही घर में कटोरी भर अनाज की...।
आज सपने में भोंपू वाली बर्फ़ बिकी थी!
बिल्कुल ही स्वाभाविक तरीके से लिखी गयी रचना।
मुझे तो मेरे बचपन में खींच ले गयी।
कहना ही होगा कि आप ने बहुत शानदार एन्ट्री की है, अब ये आप की जिम्मेदारी होगी कि भविष्य हमें निराश न करें।
खबरी जी
आपका लिखा गद्य अच्छा लगता है.
माफी चाहूँगा, पर यह भी मुझे कविता नहीं, गद्य ही लगी.
ऐसा कहते हुए संकोच अवश्य होता है, पर आपने प्रतिक्रिया चाही थी, सो ईमानदारी से जो लगा सो कह दिया. कृपया बुरा न मानें.
खबरी जी,
अभिनन्दन, स्वागत
आपको पढने का अवसर प्राप्त हुआ है मुझे पहले भी
सो यही कहना चाहता हूँ कि आपकी कवितायें इतनी सहज हैं कि बडी अपनी सी लगती हैं|बिल्कुल आम आदमी की कविता, देशज शब्दों के सटीक चयन में माहिर कहूँ या आपकी शैली ही यही है :-)
बधाई, और युग्म का सदस्य बनने के लिये हार्दिक आभार कि अब नियमित रूप से आपको पढ सकूँगा|
"हिन्द-युग्म" को भी बधाई
सस्नेह
गौरव शुक्ल
खबरी भैया,
"कोई लौटा दें॰॰॰बचपन के दिन॰॰॰"
इस कविता के लिये आपको कोरा धन्यवाद देकर मै औपचारिक नही होना चाहता हूं, बस यही चाहता हूँ कि इस कविता के माध्यम से जो रिश्ता आपने हमारे दिल के साथ जोडा है, वह हमेशा यूँ ही कायम रहे।
अभी बचपन कल का ही बीता दिन लगता है, जब पतंग और मंझा दोनो खूब लूटा करते थे।
और फिर बर्फ का गोला खाये भी बहुत दिन हो गये, पर हां ऎक बात अवश्य है मुह तो पानी से आपने भर ही दिया।
"वो जवान है,नजरें चुरा लेती है,
॰॰॰॰॰॰बचपन की होली खेलें॰॰॰"
कितने निःस्वार्थ भाव है, कि मन अनायास ही कह उठता है॰॰॰ वाह ।
कविता के बाद जब आपकी टिप्पणी पढी॰॰॰॰तो लगा जगह तो आपने कभी की बना ली॰॰॰हमारे दिलों में।
बिल्कुल सही बात है॰॰॰सद्दा हो या सद्दी॰॰॰॰हमें तो बस "पतंग" लूटने से मतलब है॰॰और वो तो आपने लूट ही ली।
काव्य समन्दर और ठाठें मारे, ऎसी आशायें आशायें है ।
आर्य मनु, उदयपुर, मेवाड
बचपन की याद ताजा हो गयी।
ये कविता एक अच्छी कोशिश है... कही कहीं इस पर कुछ पढ़ी-सुनी रचनाओं के प्रभाव नज़र आते हैं..
जैसे
गुलज़ार ने लिखा है
मुझको भी तरक़ीब सिखा दे यार जुलाहे...
वो नज़्म रिश्तों पर लिखी गई थी...
ये बचपन में ले जाती है.. लिहाज़ा एक बढ़िया कोशिश है....
लगे रहो देवेश
मैं जो भी हूं तुम्हारे काफी करीब हूं
this poem is very good...........
kavita ne bachapan ki yaad dila di ..............
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