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Tuesday, March 13, 2007

संस्कृति पलायन


आधुनिकता की आपा-धापी
चिरसंचित संस्कृति पर भारी है
दो पीढ़ियों का अन्तराल बता कर
ध्यान बटाना जारी है
संबोधनों की वक्रता ने
संबंधों की मधुरता लीली है
भाई तो "ब्रो" हो गया
बहना को "सिस" बना डाला
पिता श्री तो "डेड" हो गये
माता श्री को "मोम" बना डाला
चाचा, ताऊ, मौसा, मामा, फूफा
एक शब्द "अंकल" में कैद हुये
"आंटी" पुकारे तो कौन सुने
चाची, तायी, मौसी, मामी और
बुआ में मतभेद हो गये
पांव छूने का गया जमाना
आशीर्वाद अब नहीं जरूरी
गुडमार्निंग से काम चलाते
झुकने से रखी जाती दूरी
हाय हैलो लागे प्यारा
यार यार बुलाना फैशन है
किसके कितने "बी एफ" "ज़ी एफ"
ये पापुलेरिटी आप्रेशन है
इंटेलीजैंस का माप जोख है
फर्राटे की इंगलिश से
झाडू, पोछा, रसोई, बर्तन
ये सब गुजरे कल की बाते हैं
फास्ट फूड का आया जमाना
पीजा, पास्ता, बर्गर, न्यूडल
इन सब की जमी हुयी विदेशी हाटें हैं
बाल बढ़ा कर लड़के घूमें,
बाल कटा कर छोरियां
कपड़े केवल कट पीस रह गये
जिन्हें थामें पतली डोरियां
डिस्को और नाईट पार्टी से
नजदीकी जितनी
पूजा और मन्दिर से
उतनी दूरियां
सुन्दरता की होड़ में देखो
अंग प्रदर्शन की मजबूरियां
घाट खो गये,
पनघट सूने
केवल नल तक सीमित
हो गयी हैं पनहारियां
टैरस गार्डन बन कर रह गयी
आंगन की वो क्यारियां
खेत खलिहान बेच बेच कर
कहां जा रहे जाने लोग
मेरे स्वर्ग से सुन्दर गांव को
लग गया कोई शहरी रोग

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9 कविताप्रेमियों का कहना है :

Mohinder56 का कहना है कि -

कृप्या प्रथम पंक्ति में "आप धापी" को "आपा धापी" पढें...
असुविधा के लिये खेद है

विश्व दीपक का कहना है कि -

मोहिन्दर जी, मुझे महसूस हो रहा है कि आपने इस कविता को "आधुनिकता और गांव का विकास" लिखने के दौरान रचा है। खैर कोई बात नहीं । कविता बड़ी हीं अच्छी है। कुछ छंद दिल को झकझोरते हैं। उदाहरणार्थ->

आधुनिकता की आप धापी
चिरसंचित संस्कृति पर भारी है
दो पीढीयों का अन्तराल बता कर
ध्यान बटाना जारी है
संबोधनों की वक्रता ने
संबंधों की मधुरता लीली है

डिस्को और नाईट पार्टी से
नजदीकी जितनी
पूजा और मन्दिर से
उतनी दूरियां
सुन्दरता की होड में देखो
अंग प्रदर्शन की मजबूरियां

खेत खलिहान बेच बेच कर
कहां जा रहे जाने लोग
मेरे स्वर्ग से सुन्दर गांव को
लग गया कोई शहरी रोग

यूँ हीं लिखते रहिये।

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

मोहिन्दर जी,
यही नये दौर की कविता है और इस दौर पर आपका व्यंग्य भी एसा ही है जैसे लोहा ही लोहे को काट सकता हो..आपने सत्य कहा है:

"संबोधनों की वक्रता ने
संबंधों की मधुरता लीली है"

"खेत खलिहान बेच बेच कर
कहां जा रहे जाने लोग
मेरे स्वर्ग से सुन्दर गांव को
लग गया कोई शहरी रोग"

कविता तो सुन्दर है ही, मै कविता जिस भाषा में लिखी गयी है उसके लिये भी आपको बधाई देता हूँ..

*** राजीव रंजन प्रसाद

रंजू भाटिया का कहना है कि -

आधुनिकता की आपा-धापी
चिरसंचित संस्कृति पर भारी है
दो पीढ़ियों का अन्तराल बता कर
ध्यान बटाना जारी है

सही लिखा है आपने..

पनघट सूने
केवल नल तक सीमित
हो गयी हैं पनहारियां
टैरस गार्डन बन कर रह गयी
आंगन की वो क्यारियां

जो बदलाव हम अपने आस पास तेज़ी से होता देख रहे हैं
वह आपने अपने लफ़्ज़ो में बहुत सुंदर तरीक़े से बताया है .

भाषा बहुत सरल और बाँध लेने वाली है
सुंदर रचना के लिए बधाई ..

princcess का कहना है कि -

itnaa akelapan???kabhi kabhi aadmiko apne aapse bhi Dar lagtaa hai ya vo apne aapse dur jana chahtaa haI,,,koi kuchh bole bat kare,,,kya bat?vo zaruri nahi ki kisi khaas mudde par ho,bas kuchh ho,,,,,

ye manaski ek avasthaa hai jahaa maun nahi rhanaa hai bas kisiko kuchh bolna hai aur kavike akelepanko dur karna hai,,,

nice,,,

Anonymous का कहना है कि -

gud comparisons.....gud poem..

SahityaShilpi का कहना है कि -

मोहिन्दर जी, आपने आज की अंधी दौड़ पर अच्छी टिप्पणी की है। कविता के भाव बहुत अच्छे हैं।

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

मोहिन्दर जी।

इस कविता के माध्यम से आपने आचरण, व्यवहार, पहनावा, खान-पान आदि में हुए परिवर्तनों में से सभी पर प्रकाश डाला है।
विषय पुराना है मगर फिर भी आपने इसे खूब लिखा है।
कुछ उपमायें नई हैं-

पापुलेरिटी आप्रेशन
टैरस गार्डन

Upasthit का कहना है कि -

व्यंग है, मैं भी समझ गया ।
मेहनत है, काफ़ी है, पर इतनी बार इतनी ही मेहनत पढी सुनी कही जा चुकी है कि बोर भी भरपूर कर रहे हैं अब ऐसे व्यंग ।
एक प्रश्न जो ऐसे व्यंगों को पढ कर सर उठाता है , हमारी वर्षों पुरानी संस्कृति इतनी क्षणभंगुर है क्या ? बाजार इतना विकराल होता जायेगा कि लील लेगा वह भी जो हम अब तक संजोकर रख सके हैं ? हम युवा पीढी पर यों व्यंग रचने वालों इस बाजार से लड़ सकने के रास्ते भी दिखाऒ फ़िर रोना रोना अपनी "सिस","मोम", "डेड" या "अंकल" भर से उजाड़ हो जाने वाली संस्कृति का...
व्यंगों का स्वागत है....पर आशा है आगे अच्छे पढने को मिलेंगे ।

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