पुरबा बता दे, कहाँ की हवा है
सागर से पूछो, दरिया कहाँ है..
लहू जिसका पानी, है एसी जवानी
जो आँसू बिकेंगे, उन्ही में कहानी
जिसे दिखता सूरज, वो आशा दिवानी
जो पत्थर कभी थे, वो हैं पानी पानी..
वो लहरें उठी थीं, भंवर बन गयी हैं
जो उस पार पहुँचे, वो नौका कहाँ है
सागर से पूछो, दरिया कहाँ है..
बहुत मोड आये, तुम्ही मुड गये थे
जहाँ जोड पाये थे, तुम जुड गये थे
नमक जिसपे डाला, वो अंकुर नये थे
जो टूटे हैं, उन घोसलों में बये थे..
क्षितिज एक धोखा, झुके कैसे अंबर
चढे हौसला उसपे, जरिया कहाँ है
सागर से पूछो, दरिया कहाँ है..
कभी सात पर्दों को आँधी हटा कर
काटने वाले हाँथों की चाँदी हटा कर
जो मुर्दे जिला दे वो, एसी दवा कर
कि हर एक आँखों को पारस छुवा कर
कोई दीप बुझता हुआ आग धर ले
सांस लेती रहें चिनगियाँ ये दुआ है
सागर से पूछो, दरिया कहाँ है..
न नापो, बडी या कि छोटी मिलेगी
अगर सोच बाँटोगे, रोटी मिलेगी
जो पत्थर चलेंगे तो नीवें हिलेंगी
कलम गाड दोगे तो कलियाँ खिलेंगी
अंधेरे बहुत फैल जायें तो समझो
उठो अब कि अपना सवेरा हुआ है..
सागर से पूछो, दरिया कहाँ है..
*** राजीव रंजन प्रसाद
12.03.2007
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
शब्दों को सजाने की कला कोई आपसे सीखे। हर बार एक नया सुर पर दिल को हमेशा एक जैसी हीं मिठास मिलती है या यूँ कहें कि मिठास बढती जाती है।
इस कविता के माध्यम से आपने परिस्थितियों के सामने विवश न होने की जो शपथ ली है वो काबिले-तारीफ है।
आपने सच हीं कहा है कि आज का युवा-वर्ग अपने कर्तव्य से पलायन कर रहा है-
लहू जिसका पानी, है एसी जवानी
जो आँसू बिकेंगे, उन्ही में कहानी
जिसे दिखता सूरज, वो आशा दिवानी
जो पत्थर कभी थे, वो हैं पानी पानी..
कविता का अंत बड़ा हीं बढिया बन पड़ा है->
न नापो, बडी या कि छोटी मिलेगी
अगर सोच बाँटोगे, रोटी मिलेगी
जो पत्थर चलेंगे तो नीवें हिलेंगी
कलम गाड दोगे तो कलियाँ खिलेंगी
अंधेरे बहुत फैल जायें तो समझो
उठो अब कि अपना सवेरा हुआ है..
सागर से पूछो, दरिया कहाँ है..
इस कविता के लिये आपको बधाई।
न नापो, बडी या कि छोटी मिलेगी
अगर सोच बाँटोगे, रोटी मिलेगी
जो पत्थर चलेंगे तो नीवें हिलेंगी
कलम गाड दोगे तो कलियाँ खिलेंगी
अंधेरे बहुत फैल जायें तो समझो
उठो अब कि अपना सवेरा हुआ है..
सागर से पूछो, दरिया कहाँ है..
बेहद ख़ूबसूरत रचना है यह.....
abhinandan rajeev jee,,
antrkhoj ki ye kavita pasand aayi.aur "JO TUTE UN GHOSLOME BAYA THE",,GRT ,,KAHIn KUCHH HIL JATA HAI,,,
ek sawal ek niraakarn,,,donoko anuthe dhangse pesh kiya gaya hai,,,
ये पंक्तियां दिल को छू गयी
"वो लहरें उठी........... वो है पानी पानी"
"बहुत मोड आये............उन घोंसलों मे बये थे"
कलम गाड दोगे तो कलियां खिलेंगी......
आपने सुन्दर ढंग से लिखा है...प्रयत्न ही फलीभूत होंगे....
सुन्दर सरल शब्दों से बनी माला...
qah-qahaa aankh ka barataav badal detaa hai,
hansanevaale tujhe aansoo nazar aayen kaise.....
koi apani hi nazar se to hamen dekhegaa,
ek qatare ko samundar nazar aaye kaise.....
Bahut hi sundar geet likha hai aapne...nai baat naya andaaz...wah kya baat hai...dil khush ho gaya...
वाह राजीव जी, बहुत खूबसूरत गीत है। जितने खूबसूरत भाव हैं उतने ही खूबसूरती से शब्दों को पिरोया है आपने। किसी पँक्ति विशेष का उल्लेख करना बाकियों के साथ अन्याय होगा, इसलिये ऐसी कोशिश नहीं करूँगा। इतने सुन्दर गीत की तारीफ करने के लिये मेरे पास यथोचित शब्द नहीं हैं, अतः ज्यादा कुछ नहीं कहूँगा। बहुत बहुत बधाई। वैसे अब आपकी तबीयत कैसी है?
Lagta hai ye kavita geet hai,ismein rhythm hai jo padhte padhte mahsus ho raha hai.
Anya kavitaon ki tarah yeh samajik wyatha to pesh karati hai,lekin saraltase aur bina angar barsaye.
Vishes rup se-
अंधेरे बहुत फैल जायें तो समझो
उठो अब कि अपना सवेरा हुआ है..
सागर से पूछो, दरिया कहाँ है..
ye lines achhi lagi.
Kshitij ek dhokha, jhooke kaise ambar..
Behad khoobsoorat!! Rajiv jee, aisa prateet hota hai ki aapki yeh geet aapki apni hi kavitaon ko naye vastra pahna kar vida kar rahi hai ek aise safar ke liye jiski na disha gyat hai na hi manjil. Jaise, yuddh ko jata joddha, ya doli mein baithi dulhan, ya fir shayad kuchh buddhe sapnon apni chita ke jalne ka intezaar kar rahe hon..jis chita ke jalne ki khushboo sirf aapke dariyo ko pata hai. thode shabdon mein kahen toh, ek safar ka anth ya ek safar ki shuruat ya fir dono.
Aap kuchh dhoondh rahe hain rajiv jee. Aur shayad woh bhi aap hi ko khoj rahi hai. Mujhe viswaas hai ki yeh milan jaldi hi hoga aur ek naye safar ki shuruat hogi aap donon ki sath-sath.
Chalte rahiye. Badhai aur subhkaamnayein.
जिसे दिखता सूरज, वो आशा दीवानी
सच में आज के युवा वर्ग में इस तरह की सोच होनी चाहिए।
परन्तु होता क्या है, कल के पत्थर आज पानी की तरह तरल हो जाते हैं।
कवि खोज रहा है उन नौकाओं को जो इन लहरों के भँवर रूपी मरीचिका में न फँसकर यह भवबाधा पार करें।
अम्बर को पता है कि क्षितिज का अस्तित्व आभासी है इसीलिए तो वो इस भ्रम में नहीं पड़ता।
कवि का पाठक से आव्हान-
कभी सात पर्दों की आँधी हटा कर
काटने वाले हाँथों की चाँदी हटा कर
जो मुर्दे जिला दे वो, ऐसी दवा कर
कि हर एक आँख को पारस छुवा कर
आशावाद की पराकाष्ठा-
कोई दीप बुझता हुआ आग धर ले
सांस लेती रहें चिनगियाँ ये दुआ है
अंतिम छंद तो लड़ने की शक्ति का पुनर्दान करते हैं।
वर्तमान युग की युवा पीढी मे हर कहीं फ़ैली निराशा और जिओ जैसा जीवन है, पर एक पैनी नजर और आशा के ढेरों दीपकों से जगमग हर क्षण नवीनता का अनुसन्धान करने का आग्रह, इतना घुला मिला है यहां कि कविता बस बहकती सी पाठक को छू कर निकल जाती है । उस पर शब्द चयन और गति...कुछ भी कहना कविता के प्रति अन्याय होगा ।
बहुत खूब राजीव जी । आपकी कविताओं पर बार बार ऐसी प्रतिक्रिया देना अखरने लगा है। कभी तो कुछ ऐसा लिखो कि मैं भी कुछ लिख सकूं ।
भई राजीव जी,
मैने पहली बार शायद आपका कोई गीत पढ़ा है। और विश्वास मानिये, मैं इस से प्रभावि हुये बिना ना रह सका।
"बहुत मोड आये............उन घोंसलों मे बये थे"
यह पंक्तियाँ पसन्द आईं विशेषकर।
आप अपनी आवज़ में इस गीत को ब्लोग पर उपलोड करें, आनंद आयेगा, ऐसा मेरा विशवास है।
सादर
रिपुदमन
राजीव जी विलंब से टिप्पणी के लिये क्षमा चाहूंगा.
गीत अति सुंदर है और आपके प्रयासो को सार्थक करता है.
क्षितिज एक धोखा, झुके कैसे अंबर
चढे हौसला उसपे, जरिया कहाँ है
इन पक्तियो की विशेष सराहना करना चाहूंगा , ये आपके गीत की सबसे उत्तम पंक्तिया है |
पुरबा बता दे, कहाँ की हवा है
सागर से पूछो, दरिया कहाँ है..
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बहुत सुन्दर गीत
काव्य की हर विधा पर आपके समान अधिकार से अभिभूत हूँ|
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"जो उस पार पहुँचे, वो नौका कहाँ है"
"नमक जिसपे डाला, वो अंकुर नये थे
जो टूटे हैं, उन घोसलों में बये थे.."
"जो पत्थर चलेंगे तो नीवें हिलेंगी
कलम गाड दोगे तो कलियाँ खिलेंगी"
प्रेरक, सुन्दर प्रवाह, अद्भुत :)
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अनुपम कृति
सस्नेह
गौरव
न नापो, बडी या कि छोटी मिलेगी
अगर सोच....
अच्छी लगी बात।
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