मेरे शब्द खो गये, मैं बेचैन हूं,
कण्ठ दो मुझे, मुझे आवाज़ होना है
मुझे जीना नहीं आता, ना ही सीखना चाहता,
काल दो मुझको, मुझे आज़ाद होना है
प्रथम या अन्तिम कोई, स्थान मत छोड़ो,
मुझे रुतबा नहीं आता, मुझे अरमान होना है
शिकायत की सी भाषा है, मगर सब वेदनायें हैं,
मेरा नाम मत लिखो, मुझे गुमनाम होना है
ना चाहूं भेंट मैं बनना, ना ही ईनाम के लायक,
गिरा दो उसकी झोली में, मुझे बस दान होना है
मेरे हाथों में अक्षर हैं और मुख पे सन्नाटा,
कुछ शर्म दो मुझको, मुझे इन्सान होना है
मुझे छूना नहीं आता, मुझे बस तोड़ देना है,
बेबस सा भले ही हूं, मुझे अधिकार होना है
सुनूंगा आह फिर भी मैं, उनके भी कान होते हैं,
मुझे दीवार चुनवा दो, जरा बेजान होना है
जो कहना है कभी सीधे से कह नहीं पाता,
कोई सब मुश्किलें फेंको, मुझे आसान होना है
नियम कुछ मैं नहीं मानूं, पुरानी राह ना जानूं,
हदें सब तोड़ दूंगा मैं, मुझे आकाश होना है
मेरे चक्कर में पर सारे जमाने को नहीं भूलो
मुझे बस आज रहना है और कल कूच होना है
सुनो तुम ध्यान से हर बात पे कान तो रखना
न जाने किस की साजिश है, मुझे बलिदान होना है
सुनो ना गौर से मुझको, ना ही मायने सोचो,
अपना काम निपटाओ, मुझे बेकार होना है
बैठो फ़रिश्तों से जरा सुलह तो कर लें,
मेरा भी एक सपना है, मुझे भगवान होना है
समझ में जो नहीं आया, उसे सोचो ना रह रहकर,
ये दिल से बात निकली है, जरूरी दिल का होना है
जो देरी मुझे यहाँ कविता लिखने में हुई, उसके लिये मैं क्षमा प्रार्थी हूं. अब यहाँ मेरी दो कवितायें आ गयी हैं, पाठकों के विचार सादर आमन्त्रित हैं.
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14 कविताप्रेमियों का कहना है :
गौरव जी, बिल्कुल सच कह रहा हूँ कि हिन्द-युग्म पर मैंने इतनी बेहतरीन गज़ल नहीं पढ़ी।
मेरी समझ में नहीं आ रहा कि किन पंक्तियों की तारीफ करूँ।खैर,कुछ शे़र जो दिल को छू गये ,वो हैं
जो कहना है कभी सीधे से कह नहीं पाता,
कोई सब मुश्किलें फेंको, मुझे आसान होना है
बैठो फ़रिश्तों से जरा सुलह तो कर लें,
मेरा भी एक सपना है, मुझे भगवान होना है
और जो सबसे अच्छा लगा, वह है
समझ में जो नहीं आया, उसे सोचो ना रह रहकर,
ये दिल से बात निकली है, जरूरी दिल का होना है।
आप ने मेरी भूख बढा दी,आप की अगली गज़ल का इन्तज़ार रहेगा।
गौरव जी, मैं प्रसन्न हूँ कि हिन्द युग्म को आपके रूप में प्रतिभाशाली कवि मिला है..बहुत सुन्दर रचना।
मेरे शब्द खो गये, मैं बेचैन हूं,
कण्ठ दो मुझे, मुझे आवाज़ होना है
प्रथम या अन्तिम कोई, स्थान मत छोड़ो,
मुझे रुतबा नहीं आता, मुझे अरमान होना है
शिकायत की सी भाषा है, मगर सब वेदनायें हैं,
मेरा नाम मत लिखो, मुझे गुमनाम होना है
कुछ शर्म दो मुझको, मुझे इन्सान होना है
हदें सब तोड़ दूंगा मैं, मुझे आकाश होना है
बैठो फ़रिश्तों से जरा सुलह तो कर लें,
मेरा भी एक सपना है, मुझे भगवान होना है
बहुत सुन्दर रचना बधाई..
*** राजीव रंजन प्रसाद
कहा जाता है कि मेहनत का फल मीठा होता है। इस यूनिकवि की इस कविता को प्रकाशित करवाने हेतु राजीव रंजन प्रसाद ने बहुत कोशिशें की है। गौरव सोलंकी जी के मित्र से यूनिकवि का पता पूछा गया, १५-१६ घण्टों की टेंशन के बाद रवीन्द्र ने उनकी एक कविता भेजी। चिट्ठाचर्चा और नारद वाले ईनामी कविता का इंतज़ार करते रहे। शायद कुछलोग तो अब कल ही कविता पढ़ पायेंगे मगर जब पढ़ेंगे तो शायद यही कहेंगे कि गौरव दूसरे दुष्यंत कुमार हैं।
इस ग़ज़ल के अगर कुछ शेरों को मैं बोल्ड करके लिख दूँ, कि पसंद आईं तो मैं खुद से ही न्याय नहीं कर पाऊँगा। किसी भी शेर को कम अधिक करके मापना मुश्किल है।
हिन्द-युग्म परिवार में आपका स्वागत है।
आपकी रचना बहुत अच्छी लगी ।
घुघूती बासूती
Excellent !!!
अच्छी कविता और अच्छे भाव
स्वगत है हिन्द युग्म पर
मेरे हाथों में अक्षर हैं और मुख पे सन्नाटा,
कुछ शर्म दो मुझको, मुझे इन्सान होना है
वाह!! बहुत ख़ूब ...
जो कहना है कभी सीधे से कह नहीं पाता,
कोई सब मुश्किलें फेंको, मुझे आसान होना है
बहुत ही सुंदर अल्फ़ाज़ो से सजी यह ग़ज़ल बहुत ही बेहतरीन लगी
पढ़ के इसको बहुत ही अच्छा लगा ...
भावना गुंथ जाये जिस्में औंचक अनंत अनुबन्ध होना
औ' मुक्त कंठ से गा सकूं मैं वह हृदय का छंद होना
कि रीतीयों का रशमि-रथ चढ़ नाद गूंज आये परस्पर
निर्भीक सी प्रिय भीष्म की वह एक तुम सौगंध होना
लिखते रहें.....
Welcome to Hind-Yugm
aapki gazal behad khoobsurat aur kalpanaaon se bhari hui hai....ek ek shabd hriday mai utarta hai....
Bhadhai Sweekaren
मैंन अपने ब्लाग पर एक लेख लिखा था "एक अदद टिप्पणी "comment" का सवाल है बाबा" जिसमें मैंने लिखा था सभी टिप्पणीकार केवल प्रशन्सा ही करते है...कोई आलोचना नही करता जिससे हमें अपनी कमियों का पता चले..
इसे आलोचना ना माने...सुझाव समझें
कविता कि प्रथम दो पंक्तियों में विरोधाभास है..पहली में कंठ की मांग है..(सकारात्मक)...दूसरी में मृत्यू ..(नाकारात्मक)...और फिर यह बार बार हुआ है... कहीं +व कहीं -व
यदि एक पक्ष को ले कर रचना होती, यही शब्द होते तो सोने पर सुहागा होता...और अंत में चार पंक्तियों का धमाका होता जो चलाये गये पक्ष को साबित करने कि लिये होता..
यदि आप को बुरा लगे तो क्षमा प्रार्थी..
पूरी कविता पढकर यह तो स्पष्ट होता है कि कवि कहना क्या चाहता है पर कविता भटक रही है, बार बार, हर दूसरी तीसरी पन्क्ति मे ।
पर पूरे भट्काव के साथ भी कविता प्रभावित करती है । विरोधाभास हमेशा ही आकर्षित ही करता है,पर कवि केवल विरोधाभास के दम, पाठकों की वाह वाह ही न बटोरो.....
गौरव जी, आपकी ग़ज़ल तो पहले ही पढ़ ली थी पर इस पर अपने विचार आज रख रहा हूँ। देरी के लिये क्षमाप्रार्थी हूँ। कोशिश अच्छी है पर कुछ कमियाँ अखरतीं हैं। एक-दो कमियों की तरफ तो मोहिन्दर जी और उपस्थित जी इंगित कर ही चुके हैं, पर भावों के विरोधाभाष के अतिरिक्त ग़ज़ल के कई अशआर (शेरों) की बहर में बहुत अंतर है। कम से कम शेर की दोनों पँक्तियों की बहर तो एक जैसी होनी ही चाहिये। इसके अलावा कई अशआरों का काफ़िया भी अलग अलग है। इन सब के चलते कुछ शेर अच्छे होने पर भी ग़ज़ल उतनी खूबसूरत नहीं हो पाई। आशा है कि आगे आपकी और अच्छी ग़ज़लें पढ़ने को मिलेंगी।
मोहिन्दर जी, रवीन्द्र जी और अजय जी, आपका शुक्रगुजार हूं कि आपने सिर्फ तारीफ ही नहीं की, कमियाँ भी देखी.
कहीं कहीं जो विरोधाभास है वो मुझे भी महसूस हुआ था लेकिन लिखने के बाद संशोधन करना मेरे बस में नहीं रहता इसलिये सब बना रहा. पूरी गज़ल एक मकसद बयान करती है, ऐसा भी मैंने कभी नहीं कहा और अगर ऐसा नहीं भी है, तब भी मुझे नहीं लगा कि गज़ल इस बात से बुरी गज़ल हो जाती है.
अजय जी, गज़ल की कक्षा का मैं नया विद्यार्थी हूं इसलिये ऐसी कमियाँ कुछ समय के लिये सहन कर लीजिये.भाव सम्प्रेषण मेरे लिये अहम रहा, बाकी सब चीजों से, इसलिये ऐसी कमियाँ रह गयीं.
पंकज जी, आपकी भूख जल्द ही मिटाने की कोशिश करूंगा, वैसे अब उम्मीदें बढ गयी हैं तो कुछ मुश्किल है...
शैलेश जी ने जो दूसरे दुष्यंत कुमार की उपमा दी है, उस से मैं बहुत कृतार्थ हुआ. इतना प्यार मिला, उसके लिये बहुत धन्यवाद
मेरे हाथों में अक्षर हैं और मुख पे सन्नाटा,
कुछ शर्म दो मुझको, मुझे इन्सान होना है...
Gaurav bhai, shabd nahi hai.... kaishe prashansa karun, lekin aapki kavitaon me jaan hai, meaning hai.....har wo baat hai jo soye inshan ko jaga de....keep it up!
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