सुबह
आँख खुलते ही मैंने देखा
मच्छरदानी के भीतर बहुत से मच्छर हैं
मोटे-मोटे, लाल-लाल
मेरा खून पीकर मस्त
छोटे-छोटे छिद्रों से
बाहर निकलने का मार्ग ढूँढ़ने में व्यस्त
लम्बे पैरों वाले रक्त पिपासु मच्छर !
नहीं
कोई मुझे काट नहीं रहा था
न ही मेरे शरीर का कोई अंग
इनके काटने से दुःख रहा था
मैंने सोचा
मुक्त कर दूं इन्हें कैद से
नाहक क्यों गंदा करूं अपना हाथ
इन्हें मारकर।
तभी अखबार वाला अखबार दे गया
लेटे-लेटे पढ़ने के लिए उठाया
हेडलाइन्स पर निगाह गई-
मुम्बई में आतंकवादियों द्वारा सौ से अधिक लोगों की हत्या
मरने वालों में
हेमंत करकरे, अशोक काम्टे, विजय सालस्कर भी-----
आगे पढ़ने की इच्छा नहीं हुई
मुझे अपनी भूल का एहसास हुआ
मैने मच्छरदानी को चारों ओर से कस कर बंद कर दिया
और चुन चुनकर मच्छरों को मारने लगा।
हर बार
जब मेरी हथेलियाँ आपस में टकरातीं
तो उससे निकलने वाली करतल ध्वनि
मुझे और हिंसक बना देती
धीरे-धीरे सारे मच्छर मर गये
मैंने देखा-
मेरी हथेलियों में मेरा ही खून उतर आया था
मैंने उठकर हाथ धोया
और चाय की प्याली में
नई सुबह की धूप घोलकर पीने लगा।
--देवेन्द्र कुमार पाण्डेय