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गोपी ढाबे वाला और दुखों के बर्फ तक हमारा पहुँचना


काव्यसदी की दूसरी कड़ी में आप सुरेश सेन निशांत की कविताएँ पढ़ रहे हैं। आज हम इनकी तीन नई कविताएँ लेकर उपस्थित हैं। सुरेश सेन की कविताओं के विन्यास में पहाड़ी सुख-दुख अपनी संपूर्ण वास्तविकता के साथ मौज़ूद है। इनकी कविताओं की खिड़की से कूदकर कब हम उस पहाड़ी जीवन में शामिल हो जाते हैं, हमें पता भी नहीं चलता।

गोपी ढाबे वाला

बहुत दिनों बाद हुआ आना
इस पुराने शहर में
वहीं रुकता हूँ
वहीं खाता हूँ खाना
उसी बरसों पुरानी मेज पर
उस पुराने से ढाबे में।

कुछ भी नहीं बदला है
नहीं बदली है गोपी ढाबे वाले की
वह पुरानी-सी कमीज
काँधें पे पुराना गमछा
बातचीत का उसका अंदाज।

वैसा ही था
तड़के वाली दाल का भी स्वाद
तंदुरी रोटी की महक।

कुछ भी नहीं बदला
यहाँ तक की ग्राहकों की शक्लें
उनकी बोल-चाल का ढंग
ढाबे के बाहर खड़े सुस्ता रहे
खाली रिक्शों की उदासी तक।

उस कोने वाली मेज पर
वैसे ही बैठा खा रहा है खाना
चुपचाप एक लड़का
कुछ सोचता हुआ-सा, चिन्तित
शायद वह भी ढूँढ़ रहा है ट्यूशन
या कोई पार्ट टाईम जॉब
शायद करना है जुगाड़
अभी उसे कमरे के किराया का।

सोच-सोच कर कुम्हला रहा है उसका मन
कि कर भी पाएगा पढ़ाई पूरी
या धकेल देगा वापिस यह शहर
उन पथरीले पहाड़ों पर
जहाँ उगती है ढेर सारी मुसीबतें-ही-मुसीबतें
जहाँ दीमक लगे जर्जर पुलों को
ईश्वर के सहारे लाँघना पड़ता है हर रोज।

जहाँ जरा-सा बीमार होने का मतलब है
जिन्दगी के दरवाजे पर
मौत की दस्तक।

हैरान हूँ और खुश भी
दस वर्षों के बाद भी
नहीं भूला है गोपी
अपने ग्राहकों की शक्लें
पूछता रहा आत्मीयता से
घर-परिवार की सुख शान्ति।

इस बीच बहुत कुछ बदल गया
इस शहर में
बड़े-बड़े माल सेन्टरों ने
दाब लिया है
बड़े-बड़े लोगों का व्यापार
बड़ी-बड़ी अमीर कंपनियाँ
समा गई हैं बड़ी विदेशी
कंपनियों के पेट में।

नाम-निशान तक नहीं रहा
कई नामचीन लोगों का।

पुराने दोस्त इस तरह मिले
इतना भर दिया वक्त
जैसे पूछ रहा हो कोई अजनबी उनसे
अपने गंतव्य का पता।

निरन्तर विकसित हो रहे इस शहर में
उस गोपी ढाबे वाले की आत्मीयता ने
बचाए रखी मेरे सामने मेरी ही लाज।

सभी पुराने दोस्तों के बारे में भी
पूछता रहा बार-बार।

खास हिदायत देकर कहा उसने
रोटी बाँटने वाले लड़के को
बाबू जी खाना खाते हुए
पानी में नींबू लेते हैं जरूर।

मैं हैरान था और खुश भी
कि इस तरह की बातें तो
माँएँ ही रखती हैं याद
अपने बेटों के बारे में।

क्या इतना गहरे बैठे हुए थे
उसके अंतस में हम।

खाने के बाद गोपी ढाबे वाले ने
मुझसे पैसे नहीं लिये रोटी के
मेरे लाख अनुनय के बावजूद।

मैं इस तरह निकला वहाँ से
आँखें पोंछता हुआ
जैसे माँ की रसोई से निकला होऊँ
बरसों बाद खाना खा कर।


पहुँचना

मैं चाहता हूँ पहुँचना
तुम्हारे पास
जैसे दिन भर
काम पे गयी
थकी माँ पहुँचती है
अपने नन्हे बच्चे के पास।

सबसे कीमती पल होते हैं
इस धरती के वे
उसी तरह के
किसी कीमती पल-सा
पहुँचना चाहता हूँ तुम्हारे पास।

मैं चाहता हूँ पहुँचना
तुम्हारे पास
जैसे बरसों बंजर पड़ी
धरती के पास पहुँचते हैं
हलवाहे के पाँव
बैलों के खुर
और पोटली में रखे बीज
धरती की खुशियों में उतरते हुए
मैं पहुँचना चाहता हूँ तुम्हारे पास।

मैं चाहता हूँ
बारिश के इस जल सा
धरती की नसों में चलते-चलते
पेड़ों की हरी पत्तियों तक पहुँचूँ
फलों की मुस्कुराहट में उतरूँ
उनकी मीठास बन
तुम्हारे ओंठों तक पहुँचना चाहता हूँ

अँधेरे घर में
ढिबरी में पड़े तेल सा
जलते हुए
तुम्हारे साथ-साथ
अँधेरे से उजाले तक का
सफर तय करना चाहता हूँ।

निराशा भरे इस समय में
मैं तुम्हारे पास
संतों के प्रवचनों-सा नहीं
विज्ञापनों में फैली
व्यापारियों की चिकनी भाषा-सा नहीं
मैं कविता की गोद में बैठी
किसी सरल आत्मीय पंक्ति-सा
पहुँचना चाहता हूँ।

मैं चाहता हूँ
मैं पहुँचूँ तुम्हारे पास
जैसे कर्जे में फँसे
बूढ़े किसान पिता के पास
दूर कमाने गये
बेटे का मनीऑर्डर पहुँचता है।

आँखों में खुशी के आँसू छलकता
एक उम्मीद-सा
मैं पहुँचना चाहता हूँ
तुम्हारे पास
तुम्हारे हाथों में
तुम्हारी आँखों में।

दुखों भरी बर्फ

दुखों भरी बर्फ जब पिघलेगी
तो खिलेंगे फूल-ही-फूल
इन पतझरी वृक्षों पर।
इन घासनियों में
उग आएगी नर्म हरी घास खूब
हम खुशी-खुशी घूमेंगे
इन घाटियों में अपने मवेशियों संग
मन पसंद गीत गुनगुनाते हुए।
दुखों भरी बर्फ जब पिघलेगी
दोस्त बिना बुलाए ही
आ जाएँगे हमारे घर
अचानक आ मिली खुशी की तरह
आ बैठेंगे हमारी देहरी पर
गुनगुनी धूप-सा मुस्कराते हुए।
हवा में भीनी गंध
अपने पंखों पे लादे
आ बैठेगी बसंत की चिड़िया
हमारे आँगन में
चहल कदमी करता
दूर से देखेगा हमें
हमारा छोटा-सा शर्मिला सुख।
दुखों भरी बर्फ जब पिघलेगी
हमारी जंग लगी दरातियों के चेहरों पर
आ जाएगी अनोखी उत्साह से भरी चमक
खेतों के चेहरे खिल उठेंगे
धूप हमारी आगवानी में
निखर-निखर जाएगी
हम मधुमक्खियों की तरह गुनगुनाते हुए
निकलेंगे अपने काम पर
नहीं फिसलेंगे
उस फिसलन भरी पगडंडी पर
किसी मवेशी के पाँव
नहीं मरेगी किसी की दुधारू गाय
नहीं बिकेगा कभी किसी का कोई खेत।
दुख भरी बर्फ का रंग
पहाड़ों पर गिरी इस मासूम बर्फ-सा
सफेद नहीं होता।
वह बादलों से नन्हें कणों के रूप में
नहीं झरती हमारे खेतों, घरों और देह पर
वह गिरती है कीच बनकर
धसकते पहाड़ों पर से
वह गिरती है शराब का रूप धर
पिता के जिस्म पर
माँ के कलेजे पर
हमारे भविष्य पर।
बदसलूकी की तरह गिरती है
जंगल में लकड़ियाँ लाने गई
बहिन की जिंदगी पर।
दुखों भरी बर्फ रोक देती है
स्कूल जाते बच्चों के रास्ते
उनके ककहरों के रंगों को
कर देती है धुंधला
छीन लेती है उनके भविष्य के चेहरों से
मासूम चमक
उनके हथेलियों को
बना देती है खुरदरा
भर देती है जख्मों से
उनके नन्हें कोमल पाँव।
दुखों भरी बर्फ पर
सूरज की तपिश का
नहीं होता कोई असर
अपने आप नहीं पिघलती।
वह पिघलती है
बुलंद हौंसलों से
विचारों की तपिश से
हमारे लड़ने के अंदाज से।
दुखों भरी बर्फ जब पिघलेगी
तो खिलेंगे फूल-ही-फूल
इन पतझरी वृक्षों पर।

काव्यसदी-2: सेब की मीठी चिट्ठियों में लकड़हारों का दर्द


आज हम काव्यसदी की दूसरी कड़ी लेकर उपस्थित हैं। इसमें आप पढ़ेंगे युवा कवि सुरेश सेन निशांत की कविताएँ।

सुरेश सेन निशांत


जन्म- 12 अगस्त 1959
1986 से लिखना शुरू किया। लगभग पाँच साल तक गजलें लिखते रहे। तभी एक मित्र ने ‘पहल’ पढ़ने को दी। ‘पहल’ से मिलना, उसे पढ़ना इनके लिए बहुत ही अदभुत अनुभव रहा। कविता को पढ़ने की समझ बनी। 1992 से कविता लिखना शुरू किया। हाल ही में कुछ कविताएँ महत्वपूर्ण पत-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं।
शिक्षा: दसवीं तक पढ़ाई के वाद विद्युत संकाय में डिप्लोमा। वर्तमान में कनिष्ठ अभियंता के पद पर कार्यरत।
मनपसंद कवि: त्रिलोचन, विजेन्द्र, केदारनाथ अग्रवाल, कुमार अबुंज, राजेश जोशी, अरूण कमल, एकांत व स्वप्निल श्रीवास्तव और पाश।
विदेशी कवियों में: नाजिम हिकमत, महमूद दरवेश।
पुरस्कार और सम्मान: पहला प्रफुल्ल स्मृति सम्मान, सूत्र सम्मान 2008, सेतू सम्मान 2011
कविता संग्रह: वे जो लकड़हारे नहीं हैं - 2010, ‘आकण्ठ’ पत्रिका का हिमाचल समकालीन कविता विशेषांक का सम्पादन।
सेब

सेब नहीं चिट्ठी है
पहाड़ों से भेजी है हमने
अपनी कुशलता की

सुदूर बैठे आप
जब भी चखते हैं यह फल
चिड़िया की चहचहाहट
पहाड़ों का संगीत
ध्रती की खुशी और हमारा प्यार
अनायास ही पहुँच जाता है आप तक

भिगो देता है
जिस्म के पोर-पोर।

कहती है इसकी मिठास
बहुत पुरानी और एक-सी है
इस जीवन को खुशनुमा बनाने की
हमारी ललक।

बहुत पुरानी और एक-सी है
हमारी आँखों में बैठे इस जल में
झिलमिलाती प्यार भरी इच्छाएँ।

पहाड़ों से हमने
अपने पसीने की स्याही से
खुरदरे हाथों से
लिखी है यह चिट्ठी
कि बहुत पुराने और एक-से हैं
हमारे और आपके दुख
तथा दुश्मनों के चेहरे

बहुत पुरानी और एक-सी है
हमारी खुद्दारी और हठ

धरती का हल की फाल से नहीं
अपने मज़बूत इरादों की नोक से
बनाते हैं हम उर्वरा।

उकेरे हैं इस चिट्ठी में हमने
धरती के सबसे प्यारे रंग
भरी है सूरज की किरणों की मुस्कान
दुर्गम पहाड़ों से
हर बरस भेजते हैं हम चिट्ठी
संदेशा अपनी कुशलता का
सेब नहीं।


पीठ

सुरेश सेन की विश्वसनीय कविताई का राज है अकृत्रिमता, सहजता, अभिन्नता और अनौपचारिकता। वे अपने विषय के प्रति सर्जक के भाव से नहीं, दर्शक के भाव से नहीं, मित्र के भाव से, हितैषी के भाव से या भक्त के भाव से जुड़ते हैं। विषय से उनकी दूरी बस उतनी ही है कि अपनी नज़रों से साफ-साफ उसे देख पायें। उसको संपूर्णता में समझ पायें, और व्यापक संदर्भों में उसके मूल्य को परख पायें। निशांत विषय को जीने वाले उसमें रमने वाले, उसके दुखद या सुखद रंग में रंग जाने वाले कवि हैं। वे ऐसा कोई मुद्दा उठाते ही नहीं, जो उनकी आत्मा को उद्वेलित न करता हो, जो उन्हें भीतर से आकुल-व्याकुल या प्रफुल्ल ना करता हो। जिसके वजूद का एहसास उनके भीतर को सिहरन से ना भर दे। जहाँ भी सूचनात्मक या परिचयात्मक तौर पर उन्होंने किसी विषय को उठाया है, वहाँ वे अपने असली रंग में नहीं दिखे हैं।
-भरत प्रसाद
यह दस वर्ष के लड़के की पीठ है
पीठ कहाँ हरी दूब से सजा
खेल का मैदान है
जहाँ खेलते हैं दिनभर छोटे-छोटे बच्चे।

इस पीठ पर
नहीं है किताबों से भरे
बस्ते का बोझ।
इस पीठ को
नहीं करती मालिश माताएँ।
इस पीठ को नहीं थपथपाते हैं उनके पिता।
इस दस बरस की नाजुक सी पीठ पर है
विधवा माँ और
दो छोटे भाइयों का भारी बोझ।
रात गहरी नींद में
इस थकी पीठ को
अपने आँसुओं से देती है टकोर एक माँ।
एक छोटी बहिन
अपनी नन्ही उँगलियों से
करती है मालिश
सुबह-सुबह भरी रहती है
उत्साह से पीठ।

इस पीठ पर
कभी-कभी उपड़े होते हैं
बेंत की मार के गहरे नीले निशान।

इस पीठ पर
प्यार से हाथ फेरो
तो कोई भी सुन सकता है
दबी हुई सिसकियाँ।

इतना सब कुछ होने के बावजूद
यह पीठ बड़ी हो रही है

यह पीठ चौड़ी हो रही है
यह पीठ ज्यादा बोझा उठाना सीख रही है।

उम्र के साथ-साथ
यह पीठ कमजोर भी होने लगेगी
टेढ़ी होने लगेगी जिन्दगी के बोझ से
एक दिन नहीं खेल पाएँगे इस पर बच्चे।

एक दिन ठीक से घोड़ा नहीं बन पाएगी
होगी तकलीफ बच्चों को
इस पीठ पर सवारी करने में।

वे प्यार से समझाएँगे इस पीठ को
कि घर जाओ और आराम करो
अब आराम करने की उम्र है तुम्हारी
और मँगवा लेंगे
उसके दस बरस के बेटे की पीठ
वह कोमल होगी
खूब हरी होगी
जिस पर खेल सकेंगे
मजे से उनके बच्चे।

वे जो लकड़हारे नहीं हैं

यह जो स्थानीय अखबारों में
छपा है फोटू
वन माफिया के पकड़े गये गुर्गों का।
दीन-हीन फटेहाल
निरीह से जो बैठे हैं पाँच जन एक पंक्ति में
ही हैं वन माफिया के पकड़े गये गुर्गे।
फोटू में इनके पीछे गर्व से
सीना ताने जो खड़े हैं
ये पुलिस और वन विभाग महकमे के
मँझोले घाघ अफसर हैं।
नहीं की मुस्तैदी में
कई दिनों की मेहनत के बाद
गुप्त सूचना के आधार पे पकड़े गये हैं ये।
फोटू में इन अफसरों के चेहरों से
झलकती आभा बता रही है
कि वे इस प्रशंसनीय कार्य के लिये
माननीय राष्ट्रपति जी की ओर
निहार रहे हैं किसी पदक के लिये।

जिसके लिये कर भी रहे हैं
ये सभी चारा-जोरी
खंगाल रहे हैं अपने-अपने सोर्स
कुछ ने तो लिखवा भी दिये हैं
अपने-अपने नामों के सिफारशी पत्रा ।

गुप्त सूचना मे भी है कि
ये पाँचों बचपन से ही रहते आये हैं
जंगल में इन पेड़ों के बीच
जंगल के एक-एक रास्ते से
जंगल की एक-एक बूटी से
और घास तक से वाकिफ हैं ये।
इन्हें पता रहता है
कौन-सी बूटी के मरहम से भरता है घाव

कौन सी बूटी के सेवन से
उतर जाता है पुराना बुखार।
किस बूटी को खिलाने से
नये दूध में उतर जाती है बाँझ गाय।

वे ये भी जानते हैं
कौन से पेड़ की लकड़ी
ठीक रहती है हल की फाल के लिये
वे जलती हुई सुखी पत्तियों की
गंध से बता सकते हैं
किसी भी पेड़ की जाति और वंश।

हैरानी की बात तो ये है
कि इन्हें पता है
कि जंगल और पेड़ जिस दिन
हो जाएँगे खत्म
सूखती हुई नदी के पानी सा
तिरोहित हो जायेंगे उनके गीत
उनके सपने, उनके उत्सव और वे भी।
ये कितनी बड़ी विडम्बना है
ये सब जानते हुए भी
पेड़ काटते हुए पकड़े गये हैं वे।

वे सचमुच नहीं काटते कोई पेड़
अगर उनमें से एक को
नहीं लाना होता
बहिन के ब्याह का सामान
दूजे की पत्‍नी ने माँगा है
इन सर्दियों के लिये
सस्ती सी ऊन का स्वेटर
तीजे को खरीदनी है
बच्चों की किताबें
चौथे को ढांख से गिरी

अपनी माँ का कराना है
शहर में मंहगा इलाज।
पाँचवे के पास तो नहीं है
दो जून रोटी के लिये कोई और भी चारा।
पर इनकी ये मजबूरियों और भावुकता
और ईमानदारी से भरा बयान
निर्दोष तो सिद्ध नहीं कर सकता इन्हें
माफ तो नहीं हो सकता इनका ये जुर्म।

कड़ी सज़ा बहुत जरूरी है
तेज़ी से खत्म हो रहे
जंगलों को बचाने के लिये
कहेंगे माननीय न्यायधीश
इन्हें न्याय सुनाते हुए।

और न्याय की यही असली भूमिका भी है
इनके जीवन में ।
पर्यावरण प्रेमियों के लिये भी
राहत का विषय है इनका पकड़ा जाना।

पुलिस और वन विभाग के
पत्रकारों के साथ
अच्छे सम्बन्धों का नतीजा है
कि विभाग के अफसरों की
कार्य कुशलता का
हुआ है खूब बखान सभी अखबारों में
और छपा है ये फोटू भी
फोटू में साफ दिख रही है
वन माफिया के पकड़े गये
इन आदमियों के चेहरे पे फैली थकान।

लगता है रात भर ढोते रहे हैं
इनके मजबूत कंधे
इन पेड़ों के कीमती शव
उस सड़क तक
जहाँ खुलती है उस पैसे वाले
लकड़ी के खरीददार की चमचमाती दुनिया
और हर बार वे लौट आते हैं वहीं से
अपनी अंधेरी दुनिया में ।

उन्हें नहीं पता
कहाँ जाते हैं
इन पेड़ों के
कीमती जिस्म।

किस हाट बिकते हैं
सचमुच उन्हें नहीं पता।

वे तो बस
काटते हैं पेड़।