दोहा सागर है अगम, कहीं न मिलती थाह.
उतनी गहराई मिले, जितना लो अवगाह.
रश्मि प्रभा जी-श्याम जी, स्वागत कर स्वीकार.
उपकृत हमको कीजिये, कुछ दोहे उच्चार..
डॉ. श्याम गुप्ता जी!
आपने बिलकुल सही कहा है, गोष्ठी १२ के प्रथम दोहे के तृतीय चरण में १३ के स्थान पर १४ मात्राएँ हैं. दोहा है-
दोहा दे शुभकामना, रहिये सदा प्रसन्न.
कीर्ति सफलता लाई है, बैसाखी आसन्न..
आँखों में तकलीफ के कारण जैसे-तैसे इस सामग्री को टंकित किया...चूक हुई, पूरी कक्षा और युग्म परिवार के प्रति खेद व्यक्त करता हूँ, भविष्य में अधिक सजग रहने का प्रयास होगा. तीसरे चरण को इस तरह १३ मात्राओं में रखा जा सकता है-
'लाई है यश-सफलता', शेष दोहा पूर्व की तरह.
शन्नो जी! आपको साधुवाद...निरंतर प्रयास करने और द्रुत गति से छंद पर अधिकार पाने के प्रयास के लिए. आये! आपकी पंक्तियों का मंथन करें.
दुखी बहुत ही मन हुआ, समझ ना कुछ आया
जब मिला आपका साथ, तब जरा लिख पाया
आदत गिनती की पड़ी, मनु का कहना मान
बूँद-बूँद पी ज्ञान की, अब आई मुसकान.
उक्त पंक्तियों में १३-१३ मात्रा हैं. यह दोहा का विधान है किन्तु प्रथम दो पंक्तियों में दीर्घ पदांत है जो दोहे में वर्जित है. इन्हें देख लीजिये. अंतिम दो पंक्तियाँ दोहा हैं और त्रुटिरहित हैं.
पाया मैंने बस तनिक, मुझे बहुत ना ज्ञान
मैं छोटी सी कंकरी, आप ज्ञान की खान
आप ज्ञान की खान, चमकते हीरे जिसमे
तुलना कोई करे, हो सके साहस किसमें
रहे सभी के साथ, 'शन्नो' को भी बताया
साथ आपका मिला, हमने बहुत ही पाया.
प्रथम ४ पंक्तियाँ बिलकुल सही हैं. अंतिम दो पंक्तियों विशेषकर अंतिम चरण को शायद आप परिवर्तित करना चाहें 'हमने बहुत ही पाया' पद के भाव को आप सी प्रतिभावान कवयित्री बेहतर तरीके से व्यक्त कर सकती है. कृपया एक प्रयास और...
कुंडली:
खड़ी हुई रसोई में, मैं करती थी कुछ काम
उसी समय याद आया, एक गाने का नाम
एक गाने का नाम, जिसमे आँसू भरे तराने
मूड में कुछ आकर, लगी मैं उसको गाने
मनु की बातें पढीं, 'शन्नो' बहुत हँस पड़ी
आज्ञा पा 'सलिल'की, मैं कुंडली लिखूं खड़ी.
रोला:
किया किचन में काम, लगी मैं गाने गाना
मनु ने जान तुंरत, शुरू कर दिया खिझाना
हंसी में फंसकर, फिर गयी किचन को भूल
ही, ही, ही मैं हंसी, मैं भी कैसी हूँ फूल.
इन दोनों रचनाओं में आपने प्रत्युत्पन्नमतित्व का परिचय दिया है, बधाई। यह गुण जिस कवि में हो वह हमेशा सराहा जाता है. आप रचना लिखने के बाद शीघ्रता न कर एक बार दोहरा लें तो वे बिलकुल सही हो जायेंगी.
रही रसोई में खडी, मैं करती कुछ काम
आया याद उसी समय, एक गीत का नाम
एक गीत का नाम, थे अश्रु भरे तराने
मस्ती में आ गयी, लगी मैं उसको गाने
मनु की बातें पढीं, हँस पड़ी 'शन्नो' बरबस.
बात 'सलिल' की मान, कुंडली लिखी मिले जस..
रोला:
किया किचन में काम, लगी मैं गाने गाना
मनु ने जान तुंरत, शुरू कर दिया खिझाना
फँसी हँसी में 'शन्नो', गयी किचन को भूल
ही, ही, ही मैं हँसी, लगी फूल या फूल.
तपन शर्मा said...
मात्रा का नहीं है भय, करूँ हमेशा जोड़
शब्दों का न ज्ञान मुझे, मैं शिल्प न दूँ तोड़..
रामचरित लो खोल, सोरठा देखने के लिये
जी भर कर लो बोल, हैं अनेकों उदाहरण
तपन जी! शुभकामनाएँ...दोहा लेखन का सफ़र बिना किसी हिचक के प्रारंभ कर दें, उक्त में किये जा रहे संशोधनों को समझें और तद्नुसार लिखें.
मात्रा का भय नहीं है ,करुँ हमेशा जोड़.
ज्ञान न शब्दों का मुझे, शिल्प न दूं मैं तोड़..
देख सोरठा छंद, रामचरित मानस उठा.
पा जी भर आनंद, हैं अनेकों उदाहरण
पूजा जी!
दोहा सत के निकट, ज्यों-, छिपा ह्रदय में सत्य
मिथ्या जग संसार यह , अजब कराये नृत्य .
ता-ता-थैया जगत की, समझ न आती रीत.
लालच की लौ ना बुझे, रुसवा हो मन मीत..
गुरु नानक देव के दोहों को अनूदित करने के प्रयास के लिए आप साधुवाद की पात्र हैं. मैंने इन्हें इस तरह किया है-
पहले मरण कुबूल कर, जीवन दी छंड आस.
हो सबनां दी रेनकां, आओ हमरे पास..
मृत्यु प्रथम स्वीकार कर, जीवन की तज आस.
सबकी जाग्रति हो सके,आओ मेरे पास..
सोचै सोच न होवई, जे सोची लखवार.
चुप्पै चुप्प न होवई, जे लाई लिवतार..
नहीं सोचने से मिले. सोचो लाखों बार.
हो कदापि वह चुप नहीं, कोशिश करो हजार..
इक दू जीभौ लख होहि, लख होवहि लख वीस.
लखु लखु गेडा आखिअहि, एकु नामु जगदीस..
जीभ एक-दो लाख या, बीसों लाखों बार.
बाद अनंतों चक्र के,हो जगदीश उचार..
जुड़े सुरिंदर जी नमन, रत्ती-रत्ती ज्ञान.
तब मिलता जब कर सकें, नित्य निरंतर ध्यान.
दोहा लेखन के कला दोहाकार की सामर्थ्य को निरंतर कसौटी पर कसती है. 'दोहा मंजरी' के रचनाकार श्री गजाधर कवि ने दोहा के २३ प्रकारों का वर्णन एक छंद में कर अपने नैपुण्य का परिचय दिया है-
भ्रमर सुभ्रामर शरभ श्येन मंडूक बखानहु.
मरकत करभ सु और नरहि हंसहि परिमानहु..
गनहु गयंद सु और पयोधर बल अवरेखहु.
वानर त्रिकल प्रतच्छ, कच्छपहु मच्छ विसेखहु.
शार्दूल अहिबरहु व्यालयुत वर विडाल अरु.अश्व्गनि
उद्दाम उदर अरु सर्प शुभ तेइस विधि दोहा करनि.
दोहा की चौपाल में आज हम आपको मिलवा रहे हैं एक अंग्रेज से. चकराइये मत, वे आपको दोहा तो सुनायेंगे पर अंगरेजी में नहीं हिन्दी में ही सुनायेंगे. इन महाशय क नाम है श्री फ्रेडरिक पिंकोट जो संवत १९४३ में भारत में थे. वे भारत में बाल शिक्षा के क्षेत्र में पुस्तक लिखनेवाले तथा उस समय के श्रेष्ठ साहित्यकारों से पत्राचार में दोहा-सोरठा का प्रयोग करनेवाले प्रथम अंग्रेज थे. श्री पिंकोट ने इंग्लैंड लौटकर नगरी तथा कैथी लिपि में 'बाल-दीपक' (४भाग) तथा 'विक्टोरिया चरित' पुस्तकें लिखीं. ये पुस्तकें खड्गविलास प्रेस बांकीपुर से मुद्रित हुईं थीं. श्री पिंकोट ने बाबू कार्तिक प्रसाद, भारतेंदु हरिश्चंद्र कों गद्य-पद्य में कई पत्र लिखे. दोहा-सोरठा के अद्भुत शैल्पिक सौंदर्य पर मुग्ध श्री पिंकोट रचित निम्न सोरठा तथा दोहा स्मरण कर हम उन्हें नमन करेंगे...इन छंदों कों कठिन पानेवाले सोचें कि हिन्दी न जाननेवाले इस अंग्रेज ने पहले हिंदी और फिर छंद-पिंगल कैसे सीखा होगा? क्या हमारी कठिनाई इससे भी अधिक है या हमारे प्रयास कम हैं? श्री पिंकोट ने पत्र का उत्तर न मिलने पर स्नेह-सिक्त शिकायत सोरठा रचकर की -
बैस वंस अवतंस, श्री बाबू हरिचंद जू.
छीर-नीर कलहंस, टुक उत्तर लिख दे मोहि.
श्रीयुत सकल कविंद, कुलनुत बाबू हरिचंद.
भारत हृदय सतार नभ, उदय रहो जनु चंद.
---शेष फिर