स्त्री को बचना चाहिए
इसलिए नहीं कि
उसे तुम्हारी प्रेयसी बनना है,
उसे तुम्हारी पत्नी बनना है ।
इसलिए नहीं कि उसे तुम्हारी बहन बनना है।
इसलिए भी नहीं
कि
वह तुम्हारी जननी है और तुम जैसों को आगे भी पैदा करती रहे।
उसे बचना चाहिए,
बल्कि उसे बचने का पूरा हक़ है - राजनैतिक हक़,
इसलिए कि वह भी तुम्हारी तरह हाड़-माँस की इन्सान है।
तुम ने उसे देवमन्दिर कहा और बना दिया देवदासी।
'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते..' और 'कार्येषु दासी शयनेषु रम्भा' को
एक साथ तुम्हारा ही पाखण्डी दर्शन साध सकता था !
देवी बनाना या उसे श्रद्धा बताना भी तो अपमान है
उस की इन्सानियत का -
उस की इच्छा, वासना, भोग-त्यागमय सहज स्पन्दनों का
या है उसे जड़ता प्रदान कर देना,
पत्थर में तब्दील कर के।
-डॉ. रवीन्द्र कुमार पाठक
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14 कविताप्रेमियों का कहना है :
तुम ने उसे देवमन्दिर कहा और बना दिया देवदासी।
'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते..' और 'कार्येषु दासी शयनेषु रम्भा' को
एक साथ तुम्हारा ही पाखण्डी दर्शन साध सकता था !
देवी बनाना या उसे श्रद्धा बताना भी तो अपमान है
उस की इन्सानियत का
keval ek shabd men apni bat kahna chahti hoon "behtareen"
naari kavita blog par is kavita ko daenaa chahtee hun aagyaa dae
saral shabdoin main prabhavshali sandesh de diyaa...bahut khoob
saral shabdoin main prabhavshali sandesh de diyaa...bahut khoob
किसी भी प्रकार की प्रशंसा की दरकार नहीं है और न ही किसी शब्दकोष में ऐसी कविता की प्रशंसा के लिए कोई शब्द होगा. अतिउत्तम उत्कृष्ट से कई गुना ऊपर यदि कोई शब्द है तो उसे आपकी कविता को समर्पित करता हूँ. विशेषकर निम्नलिखित पंक्तियों को कि
"देवी बनाना या उसे श्रद्धा बताना भी तो अपमान है
उस की इन्सानियत का -
उस की इच्छा, वासना, भोग-त्यागमय सहज स्पन्दनों का
या है उसे जड़ता प्रदान कर देना,
पत्थर में तब्दील कर के "
विवेक कुमार पाठक 'अंजान'
मैं न धर्म का पक्षधर हूँ न दर्शन का। मैं पक्षधर हूँ विज्ञान (वस्तुओं के क्रमबद्ध एवं सुव्यवस्थित ज्ञान) का और विज्ञान के हिसाब से ’कार्येषु दासी’ सही है क्यूँकि स्त्री शरीर प्राकृतिक रूप से चर्बी जमा करने में ज्यादा तेज होता है। अगर स्त्रियाँ काम करती रहेंगी तो न चर्बी जमा होगी और ना ही मोटापे एवं इससे संबंधित अन्य बीमारियाँ होंगी। रही बात ’शयनेषु रम्भा’ तो ये भी अत्यंत आवश्यक है आजकल फैलते भयानक रोगों से बचने के लिए भी और एक दूसरे में एक दूसरे का आकर्षण बचाए रखने एवं बनाए रखने के लिए भी। इस तरह विज्ञान के तर्कों से ये वाक्य तो नारियों के ही पक्ष में है। धर्म और दर्शन मैं मानता नहीं हूँ। अतः आप जो कहना चाहते हैं वो विज्ञान के दृष्टिकोण से सही नहीं है।
फिर भी एक बेहतरीन रचना के लिए बधाई स्वीकार करें।
जबर्दस्त सचेतक पोस्ट/कविता !
'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते..' और 'कार्येषु दासी शयनेषु रम्भा' .... satik chott kiya hai...kash jaag jaati logon ki insaniyat...Khair...ek behtareen rachana ke liye saadhuwaad !!!!
मेरे भीतर जो संवेदना रही है, वह विचार का रूप धर कर प्रत्यक्ष है । वही विचार मैं ने वक्रोक्ति-मय ढंग से व्यक्त कर दिया है , जो आप के सामने है । आप इसे कविता समझ रहे/रही हैं, यह आप की दृष्टि का रंग-विशेष है ।
जहाँ तक रही धर्मेन्द्र जी की बात, तो यही कहना ठीक है कि उन की प्रतिक्रिया में ‘विज्ञान’ नहीं, ‘विज्ञानाभास’ झलकता है । यह कितनी खतरनाक बात है कि स्त्री के शोषण-दोहन व दलन के तमाम क्रूर यथार्थ को इतनी आसानी से अनदेखा कर दिया जाए और उस की अन्यायी संरचना को बनाए रखने के लिए विज्ञान का दामन थामा जाए ! आज के बौद्धिक बाज़ार में धर्म/आस्था-विश्वास का सिक्का नहीं चल रहा, बल्कि विज्ञान का चल रहा है -- यह तथ्य है, इसी कारण पुराने सामन्ती-वर्णवादी-पितृसत्तावादी ढाँचे का मोह रखने वाले तमाम लोग आज परलोकवादी भय या प्रलोभन की भाषा को छोड़ कर विज्ञान की भाषा बोलने लगे हैं । मैं नहीं समझता कि जिस विज्ञान के विकास ने स्त्री को विविध पारम्परिक बेड़ियों से लगातार मुक्त कर उसे पुरुष के बराबर मानवाधिकार-सम्पन्न इन्सान बनाया है, उसी का नाम ले कर गैर-बराबरी को बनाए रखने का ऐसा (संविधान-विरोधी)अपराध करते जाने पर लोग क्यों आमादा है ? ताज्जुब है कि धर्मेन्द्र जी को स्त्री को पति की कार्य-दासी और यौनदासी (शयनेषु रम्भा)बना देने वाली सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना में कोई असंगति नहीं दिखाई देती ! यह ‘गीताप्रेसवाद’ का असर तो नहीं ? लगता है, इस विषय पर उन्हें बहुत कुछ पड़ना और महसूस करना बाकी रह गया है । संवाद बढ़ाने के ख्याल से मैं उन्हें अपनी एक पुस्तक पढ़ने का अनुरोध करूँगा - ‘जनसंख्या-समस्या के स्त्री-पाठ के रास्ते’ (-राधाकृष्ण प्रकाशन,दिल्ली / २०१०/ मूल्य-१२५/-)
शेष ठीक है । आप का शुभाकांक्षी --
रवीन्द्र
आदरणीय रवीन्द्र जी,
मेरा और आपका लक्ष्य एक ही है किंतु परेशानी यही है कि आपने धर्म और दर्शन तो बहुत ज्यादा पढ़ लिया है, विज्ञान नहीं पढ़ा।
सादर
सम्मान्य धर्मेन्द्र जी,
मैं न विज्ञान के किताबी ज्ञान का दावा करता हूँ और न धर्म-दर्शन का ही । असली महत्त्व वैज्ञानिक दृष्टिकोण/बोध का है, मैं समझता हूँ कि वह मुझ में है । सम्भव है, कोई बहुत बड़ा विज्ञानविद्/वैज्ञानिक हो कर भी आम/दैनिक जीवन में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का कहीं प्रयोग न करता हो और वहाँ रूढ़िवादी ही हो । आखिर क्या कारण है कि विज्ञान के पेशे से जुड़े लोग (डॉक्टर-इंजीनियर आदि)आज कल अन्धविश्वास /पोंगापन्थ में बड़े पैमाने पर लिप्त हैं ? यह मेरा अनुभूत है ?
आप विज्ञान की दुहाई एक जगह देते हैं, पर उसी विज्ञान को समाज के विकास व संरचना को समझने में अनुप्रयुक्त क्यों नहीं करते,जिस से हमारा जीवन अधिक मानवीय बने ? मेरा यह स्पष्ट मत है कि बिना इतिहास व समाजविज्ञान(मानवशास्त्र)को समझे कोई भी केवल विज्ञान के अथाह ज्ञान के बल पर सब कुछ नहीं सुलझा सकता,बल्कि समझ तक नहीं सकता (खासकर, सामाजिक/पारिवारिक जीवन से जुड़े मसले तो और नहीं )।
आशा है, इस बार मैं अपनी बातें आप को समझाने में सफल रहूँगा ।
शुभकामनाओं सहित -
रवीन्द्र
सम्मान्य भइया,
सामाजिक अन्तस्संरचना तथा स्त्री-प्रश्नों के लिए विज्ञान की प्रणाली का किस सीमा तक उपयोग होना चाहिए:यह संवाद का विषय बन सकता है.
किन्तु,'नारी तुम केवल श्रद्धा हो(प्रसाद)' के पीछे मौजूद सुतर्कों का अपना मूल्य है,इसलिए 'श्रद्धा बताना भी तो अपमान है'-जैसे निश्चयात्मक कथन तनिक संतुलन की मांग करते हैं.
'नारी की देवी के रूप में प्रतिष्ठा' को केवल पितृसत्ता के षड्यंत्र के रूप में देखे जाने से भला कौन सी वैज्ञानिक-वृत्ति संतुष्ट हो सकेगी..
आपका कोई ई-मेल सूत्र मुझे न मिल सका..
सादर,
माधव
धर्मेन्द्र जी एवं पाठक जी के विचार पढ़ने के बाद लगा कि दो शब्द मैं भी लिखूँ.
काश ये इतनी सी बात ये समाज समझ पाता
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