लोग जीते गये, जीते गये, जीते गये,
कि एक दिन मर जायेंगे
हम मरते गये, मरते गये, मरते गये,
कि जियेंगे शायद कभी...
मरते हुए हर बार
अपनी बची ज़िन्दगी खत्म की हमने.
खत्म होकर नहीं
बाकी रहकर मरे हम.
आग से नहीं
धूप में जलकर मरे.
हम सपने में जी रहे थे
असल में सो रहे थे
आंख खुली तो मर गये.
हम थकने से नहीं मरे
ना ऊबने से मरे.
नहीं मरे हम प्यासे रहकर
प्यास ना होने से मरे.
हम गिरे नहीं, धसके
खुद के मलबे में दबकर मरे.
दुख नहीं मार सकता था हमें
हम ना रो पाने से मरे.
इतने घुले, इतने घुले, इतने घुले
कि घुन की तरह मरे.
जब आह नहीं निकली
तो वाह कहकर मरे.
चुटकुले थे हम...
कह देने से मर गये.
गीत थे
ना गाने से मर गये.
हम सब्र थे
टूटते तो जी जाते
ना टूटने से मर गये.
बिजली गिरने से नहीं
बिजली होने से मरे हम.
ज़हर से नहीं
ज़हरीले होने से मरे.
हम क़त्ल होने से नहीं
खुद का क़त्ल करने से मरे.
हम इतने थे परेशान
नहीं मर सकते थे और परेशानी से
राहत मिलने से मरे हम.
ऐसे हुये, ऐसे हुये
कि होते-होते मर गये.
हम मन्दिर थे
बुत होने से मरे.
भरी दोपहरी में मरे जब
उस वक़्त रात थी
हम चाँद को नहीं
चाँद के गड्ढे देखते हुये मरे.
कील की तरह
खुद में गड़कर मरे हम.
अरे.. मरने से नहीं
ना जीने से मरे.
सड़े चूहे जैसी
दुर्गन्ध आती थी ज़िन्दगी से..
हम दम घुटने से नहीं
साँस ना लेने की इच्छा से मरे.
अपने आंसुओं को रोते हुये मरे,
मौत पर हंसते हुये मरे.
तारीख देखकर नहीं
तारीख बनकर मरे हम.
हाँ,
हम मरे !
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7 कविताप्रेमियों का कहना है :
KAVITA ko VIPUL ki kavita pasand aai. keep it up....
हुम्म, अच्छी कविता है। मुझे इस कविता की याद आ गई।
एक मरा हुआ आदमी घर में
एक सड़क पर
एक बेतहाशा॔ भागता किसी चीज़ की तलाश में
एक मरा हुआ लालकिले से घोषणा करता
कि हम आज़ाद हैं
कुछ मरे हुए लोग तालियाँ पीटते
कुछ साथ मिलकर मनाते जश्न
हद तो तब
जब एक मरा हुआ संसद में पहुँचा
और एक दूसरे मरे हुए पर एक ने जूते से किया हमला
एक मरे हुए आदमी ने कई मरे हुए लोगों पर
एक कविता लिखी
और एक मरे हुए ने उसे पुरस्कार दिया
एक देश है जहाँ मरे हुए लोगों की मरे हुए लोगों पर हुकूमत
जहाँ हर रोज़ होती हज़ार से कई गुना अधिक मौतें
अरे कोई मुझे उस देश से निकालो
कोई तो मुझे मरने से बचा लो|
रचनाकार: विमलेश त्रिपाठी
---- कविता कोश से साभार
बहुत अच्छी अभिव्यक्ति
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
बाहुत ठीक दिशा की अंतरदृष्टि है कवि की...पहले अपना मारना दिखा है...अहम का मरण तो प्रतीक्षित है !! बधाई हो
वाह , कविता खुद में ही कितने सवाल जवाब समेटे हुए है ...वाह कहते हुए मरे ...न तो और क्या करते ...सब्र की इन्तिहाँ जब हो जाती है तो आदमी खुद माहौल का हिस्सा बन कर जीने की कोशिश करने लगता है ...क्योंकि जिन्दगी इंसान की मजबूरी है , और जश्न के बिना जिया नहीं जाता , जैसे मरने के बाद चार काँधे चाहिए जीते जी भी तो चार काँधे चाहिए दिलासे के लिये ।
Sahi hai..
Sabra tutne se hi to marta hai..kisi ne kha bhee hai..
Kuch log meri jindagi se tang aaye hue hain..hum hai ki jeene ki kasam khaye hue hai
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