जिस्म की दरारों से
झांकते हैं सपने
जैसे फटे मोजे से
झांकता है अंगूठा
ये सपने
जिसे सीलन भरे
अँधेरे कमरे में
चोरी चोरी देख लेती हैं रूहें
तह करती हैं
और कपडे से भर के बनी
तकिये के नीचे
सहेज के
रख देतीं है सपने
फिर भी
गरीब की जवान बेटी की तरह
महक जाते हैं ये
इस से विचलित होती हैं
परम्पराएँ
घायल हो जाती हैं मर्यादाएं
तब वो
इन नुचे सपनों को
कंडे सा सुखाती हैं दीवार पर
कभी चारा मशीन में
घास सा काट देती हैं
या मटके के पानी में डुबा के मार देती है
पर इन ज़हरीली
संगीनों के बीच भी
ये सपने पुनः उग जाते हैं
और झाँकने लगते हैं
जिस्म की दरारों से
कवियत्री-रचना श्रीवास्तव
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9 कविताप्रेमियों का कहना है :
संगीनों के बीच भी
ये सपने पुनः उग जाते हैं
और झाँकने लगते हैं
जिस्म की दरारों से
सच कहा है !
बहुत अच्छी कविता, रचना जी को बधाई!
bahut sundar varnan .. bahut acchi kavita
एक खूबसूरत कविता, मानव मन के अंतर्द्वन्द्व को व्यक्त करती हुई। रचना की रचना के रहस्य को इस रचनाकार का नमन।
पर इन ज़हरीली
संगीनों के बीच भी
ये सपने पुनः उग जाते हैं
और झाँकने लगते हैं
जिस्म की दरारों से
सपनों का तिलिस्म कुछ ऐसा ही होता है. गाहे बगाहे व अवसर बेअवसर वे जन्म ले ही लेते हैं.
जिस्म की दरारों से
झांकते हैं सपने
जैसे फटे मोजे से
झांकता है अंगूठा
sunder upma
kavita me nayapn hai
sunder kavita
badhai
shipra
कविता पसंद करने के लिए आप सभी का धन्यवाद आप के स्नेह शब्द इसीतरह मिलते रहेंगे यही उम्मीद है
धन्यवाद
रचना
कभी चारा मशीन में
घास सा काट देती हैं
या मटके के पानी में डुबा के मार देती है
पर इन ज़हरीली
संगीनों के बीच भी
ये सपने पुनः उग जाते हैं
और झाँकने लगते हैं
जिस्म की दरारों से
bahut khub likha hai Rachna ji. Badhai.........
“फिर भी गरीब की जवान बेटी की तरह
महक जाते हैं ये
इस से विचलित होती हैं परम्पराएँ
घायल हो जाती हैं मर्यादाएं
तब वो इन नुचे सपनों को
कंडे सा सुखाती हैं दीवार पर
कभी चारा मशीन में घास सा काट देती हैं
या मटके के पानी में डुबा के मार देती है” वाकई लाजवाब है आपकी कविता! मगर सपनों की खूबी देखिये कि ये ना तो सूखते हैं, ना कटते हैं और ना ही डूबते हैं. आपकी कोशिश काबिलेतारीफ है. इस सुन्दर कृति के लिए साधुवाद. अश्विनी कुमार रॉय
Badi muskil hui bohot acha likha hai appne.........great keep it up
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