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Saturday, October 16, 2010

झाँकते हैं सपने


जिस्म की दरारों से
झांकते हैं सपने
जैसे फटे मोजे से
झांकता है अंगूठा
ये सपने
जिसे सीलन भरे
अँधेरे कमरे में
चोरी चोरी देख लेती हैं रूहें
तह करती हैं
और कपडे से भर के बनी
तकिये के नीचे
सहेज के
रख देतीं है सपने
फिर भी
गरीब की जवान बेटी की तरह
महक जाते हैं ये
इस से विचलित होती हैं
परम्पराएँ
घायल हो जाती हैं मर्यादाएं
तब वो
इन नुचे सपनों को
कंडे सा सुखाती  हैं दीवार पर
कभी  चारा मशीन में
घास सा काट देती हैं
या मटके के पानी में डुबा के मार देती है
पर  इन ज़हरीली
संगीनों के बीच भी
ये सपने पुनः उग जाते हैं
और झाँकने लगते हैं
जिस्म की दरारों से

कवियत्री-रचना श्रीवास्तव

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9 कविताप्रेमियों का कहना है :

'साहिल' का कहना है कि -

संगीनों के बीच भी
ये सपने पुनः उग जाते हैं
और झाँकने लगते हैं
जिस्म की दरारों से

सच कहा है !
बहुत अच्छी कविता, रचना जी को बधाई!

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति का कहना है कि -

bahut sundar varnan .. bahut acchi kavita

‘सज्जन’ धर्मेन्द्र का कहना है कि -

एक खूबसूरत कविता, मानव मन के अंतर्द्वन्द्व को व्यक्त करती हुई। रचना की रचना के रहस्य को इस रचनाकार का नमन।

M VERMA का कहना है कि -

पर इन ज़हरीली
संगीनों के बीच भी
ये सपने पुनः उग जाते हैं
और झाँकने लगते हैं
जिस्म की दरारों से
सपनों का तिलिस्म कुछ ऐसा ही होता है. गाहे बगाहे व अवसर बेअवसर वे जन्म ले ही लेते हैं.

Anonymous का कहना है कि -

जिस्म की दरारों से
झांकते हैं सपने
जैसे फटे मोजे से
झांकता है अंगूठा
sunder upma
kavita me nayapn hai
sunder kavita
badhai
shipra

rachana का कहना है कि -

कविता पसंद करने के लिए आप सभी का धन्यवाद आप के स्नेह शब्द इसीतरह मिलते रहेंगे यही उम्मीद है
धन्यवाद
रचना

amita का कहना है कि -

कभी चारा मशीन में
घास सा काट देती हैं
या मटके के पानी में डुबा के मार देती है
पर इन ज़हरीली
संगीनों के बीच भी
ये सपने पुनः उग जाते हैं
और झाँकने लगते हैं
जिस्म की दरारों से
bahut khub likha hai Rachna ji. Badhai.........

अश्विनी कुमार रॉय Ashwani Kumar Roy का कहना है कि -

“फिर भी गरीब की जवान बेटी की तरह
महक जाते हैं ये
इस से विचलित होती हैं परम्पराएँ
घायल हो जाती हैं मर्यादाएं
तब वो इन नुचे सपनों को
कंडे सा सुखाती हैं दीवार पर
कभी चारा मशीन में घास सा काट देती हैं
या मटके के पानी में डुबा के मार देती है” वाकई लाजवाब है आपकी कविता! मगर सपनों की खूबी देखिये कि ये ना तो सूखते हैं, ना कटते हैं और ना ही डूबते हैं. आपकी कोशिश काबिलेतारीफ है. इस सुन्दर कृति के लिए साधुवाद. अश्विनी कुमार रॉय

Unknown का कहना है कि -

Badi muskil hui bohot acha likha hai appne.........great keep it up

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