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Thursday, September 30, 2010

एक कड़वी कविता


मैं कुछ लिखना चाहता हूँ,
जिसे पढ़ते ही नजरे थूक दे
पाठक निम्बोली बन जाये,
रोम रोम जिस्म में घुसता कड़वापन
अब बर्दास्त नहीं होता
अंतस की निर्वासित मिठास लापता है
हर रोज जगती थी
आत्मह्त्या के सपनों के साथ
सुना है सुबह के सपने सच होते है
और अब बंगलादेशी घुसपेठियों की तरह
पसरती कड़वाहट का
जिस्म के मुल्क पर आधिपत्य है
आस्था से व्यवस्था तक
कड़वाहट की एक मोटी परत जम चुकी है
लेकिन अब जगह नहीं बची जिस्म में
निगाहों में समाती है तो
जुबा से निकल पड़ती है
निगाहें और जुबा बंद करनी पड़ती है तो
कागज़ पर छलक जाती है
कड़वाहट की खरपतवार अब
मुख्य फसल हो गयी है
मेरे अन्दर का ढोर इसे चर चर के
बहुत मोटा ताज़ा हो गया है
इतना सब होने पर भी
आशा की एक किरण बाकी है
जैसे बुजुर्ग डायरी में 'राम राम' लिखते है
मेरी भी 'मीठा मीठा' लिखने की इच्छा होती है
*
विनय के जोशी

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6 कविताप्रेमियों का कहना है :

अश्विनी कुमार रॉय Ashwani Kumar Roy का कहना है कि -

राम राम लिखने से आराम नहीं मिलता
मीठा मीठा लिखने से कड़वाहट नहीं जाती
फिर भी आपका प्रयास अच्छा है. बहुत बहुत साधुवाद इस मीठे कड़वे स्वाद के लिए. अश्विनी कुमार रॉय

Aruna Kapoor का कहना है कि -

आस्था से व्यवस्था तक
कड़वाहट की एक मोटी परत जम चुकी है
लेकिन अब जगह नहीं बची जिस्म में
निगाहों में समाती है तो
जुबा से निकल पड़ती है
निगाहें और जुबा बंद करनी पड़ती है तो
कागज़ पर छलक जाती है
सच्चाई कड्वी होती है!....सुंदर और यथार्थ को प्रस्तुत करती कविता!

दिपाली "आब" का कहना है कि -

vinay ji,

kavita acchi bani hai, ek zara sa bhatkaav feel hua so batana chahungi:

मैं कुछ लिखना चाहता हूँ,
जिसे पढ़ते ही नजरे थूक दे
पाठक निम्बोली बन जाये,
yahan aap chahte hain ki kuch kadwa likhein..fir uske achanak baad aap kehte hain


अंतस की निर्वासित मिठास लापता है

कड़वाहट की खरपतवार अब
मुख्य फसल हो गयी है
मेरे अन्दर का ढोर इसे चर चर के
बहुत मोटा ताज़ा हो गया है
jis se aapki shuru ki panktiyaan khaarij ho jati hain, aap kadwa likhna chahte hain aur fir likh rahe hain, to kya naya chahte hain..

इतना सब होने पर भी
आशा की एक किरण बाकी है
जैसे बुजुर्ग डायरी में 'राम राम' लिखते है
मेरी भी 'मीठा मीठा' लिखने की इच्छा होती है

aur yahan aap kehte hain ki meetha likhna chahte hain

confusion hain..
ya to aap kuch meetha likhna chahte hain, ya agar aap kadwa likhna chahte hain to sach mein kuch gadbad hai.

kavita mein ek nayapan laga, agar aap is bhatkaav ko sahi disha dikhayein to sudar kavita banti hai.


Deep

Vinaykant Joshi का कहना है कि -

दीपाली जी,
आपकी की टिपण्णी सटीक है और इससे ही कविता की उपादेयता सिद्ध होती है
एक ही जिस्म में दो विरोधाभाषी महसुसीयत की कशमकश है ये कविता,
नेकी और बदी (ढोर यानी पशुता) से मिलकर ही बना है इन्सान |
इस दौर की विसंगतियों से कड़वाहट बलवती हो रही है
कड़वी कविता लिखना शौक नहीं, परन्तु कड़वाहट उलीचना मजबूरी है |
राम राम लिखने से राम नहीं मिलते अगरचे नेकी की शम्मा रोशन रखने के लिए यह जरुरी है
कविता पर गौर करने हेतु आभार
सादर
विनय के जोशी

Anonymous का कहना है कि -

joshiji badhai ho bahut hi shandaar. kavita to acchi hai hi usase bhi badhakar hai aapaka jawab.
vinod kumar

जितेन्द्र ‘जौहर’ Jitendra Jauhar का कहना है कि -

भाईवर जोशी जी,
दीपाली जी ने जिन बातों की ओर आपका अवधान चाहा है,उनसे मैं काफी हद तक सहमत हूँ। मुझे थोड़ा contradiction का tinge दिख रहा है आपकी इस कविता में। जब अंदर (चित्त) की स्थिति साफ़ होती है तो बाहर(चित्र)भी साफ़ छ्पता है!

यह कविता कई ऐसे ठोस संकेत भी दे रही है जो आपको एक अच्छा कवि सिद्ध करते हैं:

"...और अब बंगलादेशी घुसपेठियों की तरह (उपमा)
पसरती कड़वाहट का
जिस्म के मुल्क पर(रूपक) आधिपत्य है..."

उक्तवत्‌ रूपकोपमा किसी ऐरे-गैरे कवि की लेखनी से
नहीं निकल सकतीं...कभी नहीं...और वाक़ई कभी नहीं! आपमें वह ज़बरदस्त क्षमता है जो एक personal poem को impersonal बना सकती है।

मुक्तछंद को कुछ ऐसी ही काव्य-भाषा की दरकार होती है जिसे आपने बरता है इस कविता में,बधाई!

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