हिन्द-युग्म कवियों/ग़ज़लकारों को पहले हिन्दी फिल्मी गीत को दुबारा रचने का मौका दे रहा है। हिन्द-युग्म इस गीत को संगीतबद्ध करवाने की योजना बना चुका है। आप सभी इस बात से परिचित हैं कि 'आलम आरा' हिन्दी की पहली बोलती फिल्म है, जो 1931 में प्रदर्शित हुई थी। इस फिल्म में कुल 7 गीत थे। इस फिल्म का गीत 'दे दे ख़ुदा के नाम पे...' को पहला हिन्दी फिल्मी गीत माना जाता है। परंतु यह बहुत दुःख की बात है कि यह गीत अब किसी भी संग्रहालय में उपलब्ध नहीं है। स्थिति यह है कि फिल्म-संगीत विशेषज्ञ भी इस बात को लेकर निश्चिंत नहीं हैं कि इस गीत के बोल क्या थे। इस फिल्म का प्रिंट भी लगभग नष्ट हो चुका है। इस फिल्म के दूसरे गीत का आधा-अधूरा वीडियो ज़रूर जहाँ-तहाँ उपलब्ध है।
कानपुर से प्रकाशित, हिन्दी फिल्मी संगीत आधारित त्रैमासिक लघुपत्रिका 'लिसनर्स बुलेटिन' के 47वें अंक (नवम्बर 1981) के अनुसार यह गीत फिल्म में ही फ़क़ीर का किरदार निभा रहे वज़ीर मोहम्मद ख़ान पर फिल्माया गया था। इस गीत को भी उन्होंने ही लिखा था। विकिपीडिया के अनुसार यह गीत एक ग़ज़ल था, जिसमें केवल एक ही शे'र था। जो इस प्रकार था-
"दे दे ख़ुदा के नाम पे प्यारे, ताक़त हो गर देने की,
कुछ चाहे अगर तो माँग ले मुझसे, हिम्मत हो गर लेने की"
'लिसनर्स बुलेटिन' भी इसकी पुष्टि करती है। परंतु अगर हिन्दी फिल्मों का पहला गीत एक ग़ज़ल था, तो फिर वो बहर से ख़ारिज़ थी। विविध भारती रेडियो के प्रसिद्ध रेडियो जॉकी युनूस ख़ान कहते हैं कि चूँकि हर किसी को इस गीत की पहली पंक्ति ही पता है, इसलिए यह कह पाना मुश्किल है कि यह एक ग़ज़ल था या कुछ और। तो हमने तय किया है कि गीत की पहली पंक्ति को जस का तस रखकर दूसरी पंक्ति में बदलाव कर देते हैं ताकि यह गीत एक शे'र बन जाये और इसे संगीतबद्ध करने में आसानी रहे। हम कुछ इस तरह का बदलाव कर रहे हैं-
"दे दे ख़ुदा के नाम पे प्यारे, ताक़त हो गर देने की,
चाहे अगर तो माँग ले मुझसे, हिम्मत हो गर लेने की"
आपको क्या करना है-
1) उपर्युक्त शे'र के आधार पर अधिकतम 5 शे'र लिख भेजें।
2) गीत की थीम का ध्यान रखे। गीत को एक फ़क़ीर गा रहा है।
3) अपनी पंक्तियाँ 5 अगस्त 2010 की मध्यरात्रि तक podcast@hindyugm.com पर ईमेल करें।
4) अपनी प्रविष्टि के साथ इस आशाय का घोषणा-पत्र भी भेजें कि आप द्वारा भेजी गई पंक्तियाँ स्वरचित हैं।
हम प्राप्त प्रविष्टियों में से अपनी पसंद के 3 शे'रों को चुनेंगे।
ध्यान रहे कि ये तीनों शे'र अलग-अलग रचनाकारों के भी हो सकते हैं।
ये तीनों शे'र 'दे दे खुदा के नाम पे...' के साथ संगीतबद्ध कराये जायेंगे।
5 अगस्त 2010 के बाद हिन्द-युग्म अपने आवाज़ मंच पर इस ग़ज़ल को संगीतबद्ध कराने की प्रतियोगिता आयोजित करेगा।
उल्लेखनीय है कि हिन्द-युग्म के आवाज़ पर प्रतिदिन शाम 6:30 बजे पुरानी फिल्मी गीतों पर आधारित कार्यक्रम 'ओल्ड इज गोल्ड' का प्रसारण होता है। कार्यक्रम के होस्ट सुजॉय चटर्जी गीत के बारे में अपने शोध को श्रोताओं के समक्ष रखते हैं। यह कार्यक्रम 20 फरवरी 2009 से रोजाना हिन्द-युग्म पर प्रसारित हो रहा हैं। पूरी दुनिया के संगीत प्रेमी इसके मुरीद हैं। आज इसका 450वाँ भाग प्रसारित हुआ है।
हम 'ओल्ड इज गोल्ड' के 500वें एपिसोड को बहुत ख़ास तरह से मनाने का इरादा कर चुके हैं। इसी दिन हम पहले हिन्दी फिल्मी गीत को संगीतबद्ध तरीके से प्रसारित करेंगे। हिन्दी फिल्मों ने हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हिन्दी फिल्मों का पहला गीत एक धरोहर है। इसे सुरक्षित, संरक्षित करने की जिम्मेदारी हम सब की है। हमारे इस प्रयास में अपना हाथ बँटाएँ।
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7 कविताप्रेमियों का कहना है :
hind yugm apne is prayaas ke liye badhai ka patra hai .....ek bahut badi zimmedari hind yugm ne uthayi hai ...
:)
bahut sunder she'r hai...
कुछ कहें...???
मालिक ने जो बख्शा तुझको, उससे काम चला प्यारे
'ऐश' तेरी अभिषेक की है और, माधूरी है 'नेने' की
मुर्गी को फंसने दे तू तो बाप है बस इन चूजों का
फांस नयी मुर्गी क्यूँ करता, बातें अंडे सेने की
साथ तेरे ही तेरी कश्ती डूबेगी, जब ये तय है
बोल, उठाता है क्यूँ ज़हमत फिर तू कश्ती खेने की..
इतनी जल्दी शे'र..
जाने दीजिये...
पर इतना वक़्त हुआ.
खामोश इन्सान कुछ तो कहेगा ही ना...
आपका आभार..
manu ji .....
prayas to bahut shandar hai aap ka... maskhari ka mahaul hota to kasam se pet pakad ke hanste ..lekin saaf likha hai ki geet ek faqeer ga raha hai ... han buddhiman hain aap ... aap apne in ashaar me se bhi goodh darshan nikal sakte hain jo faqeeri ke matlab ka ho ... lekin apni budhio se pare ho gaya,....hehehe.. kuch aur iske mood ke hisaab se ho jaye to maza aaye...
फ़कीर की बात है..
तभी ये सब लिखा है...इस नयी जॉब में इतने फ़कीर टाईप लोग हमें मिले हैं.....कि ये तो कुछ भी नहीं लिखा गया हमसे...
ज़्यादा मुश्किल नहीं होता..खुद अपने को सेंसर बोर्ड बना देना......
दे दे खुदा के नाम पे प्यारे ताक़त हो गर देने की.
चाह अगर तो मांग ले मुझसे हिम्मत हो गर लेने की.
नज़रों में साकी की सूरत साथी जबसे दिखती है.
मदिरा की क्या बात करुं और क्यों चर्चा मयखानों की.
इस दुनिया की रौनक से अब इस दिल का क्या काम रहा.
जब नज़रों में अक्स उभरता साकी के अल्हड़पन की.
उससे नाता जोड़ लिया है , जब दिल में वो बसता है.
मिलकर एकाकार हुए, क्या काम इबादतखाने की.
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