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Wednesday, July 07, 2010

वो मुझे सांप बना देना चाहते हैं...


ये बदहवासी से ठीक पहले के क्षण हैं,
मेरी पीठ पर पटके जा रहे हैं कोड़े
कि मेरी रीढ़ टूट जाए...
वो मुझे सांप बना देना चाहते हैं,
कि मैं रेंगता रहूं उम्र भर...
उनकी बजाई बीन पर...
ये बदहवासी से ठीक पहले की घड़ी है..

मेरी आंखों के आगे अंधेरा छाने वाला है...
इस एक पल को जीना चाहता हूं मैं...
करना चाहता हूं सौ तरह की बातें तुमसे...
खोलना चहता हूं मौन की मोटी गठरी..
तुम कहां हो??

मैं चीख रहा हूं ज़ोर-ज़ोर से...
शायद आवाज़ कहीं पहुंचेगी...
कोड़े खाने के फायदे हैं बहुत..
ये चीख मुझे गूंगा कर देगी देखना.....
मेरे पांवों में बांध रखी हैं,
समय ने कस कर बेड़ियां...

मैं भूलने लगा हूं
अपने बूढ़े पिता का चेहरा...
ये बदहवासी के पहले की आखिरी घड़ी है....
मां याद है मुझे,
पसीना पोंछती मां,
बेटों की डांट खाती मां...
तुम कहां हो,

तुम्हें छूना चाहता हूं एक बार..
हाथ भूल गए हैं स्पर्श का स्वाद...
मैं पीछे मुड़कर दबोच लेना चाहता हूं कोड़ा,
मगर ऐसा कर नहीं सकता..

मैं बदहवास होने लगा हूं अब...
मुझ पर और कोड़े बरसाए जाएं..
मुझे प्यास लग रही है,
मैं चखना चाहता हूं आंसू का स्वाद..

ये बदहवासी के आंसू हैं...
रोप दिए जाएं सौ करोड़ लोगों की छाती में..
कि झुकने न पाए उनकी रीढ़
बीन बजाते संपेरों के आगे...

कहां-कहां ढूंढोगे मुझे..
मैं हर सीने में हूं..
दुआ करो कि खाद-पानी मिले मेरे आंसूओ को,
याद रखना संपेरों,
मेरे आंसू उग आए
तो निर्मूल हो जाओगे तुम....
…………………………………………………………..

निखिल आनंद गिरि

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15 कविताप्रेमियों का कहना है :

Kishore Kumar Jain का कहना है कि -

मैं भूलने लगा हूं
अपने बूढ़े पिता का चेहरा...
ये बदहवासी के पहले की आखिरी घड़ी है....
मां याद है मुझे,
पसीना पोंछती मां,
बेटों की डांट खाती मां...
तुम कहां हो,
अपने पांव पर खड़े होने तक जब तक समझदार न हो गये तब तक माँ बाप ही सब कुछ थे लेकिन बढाती उम्र के साथ माँ बाप के साथ होने वाले ब्यबहार का एक सजीब चित्रण अपने खिंचा है. पढकर मन भाबुक हो आया . कविता के भाव अपने आप में अनुपम है सुंदर अभिब्यक्ति के साथ प्रस्फुटित हुई है बधाई हो .
किशोर कुमार जैन गुवाहाटी असम

Razia का कहना है कि -

कहां-कहां ढूंढोगे मुझे..
मैं हर सीने में हूं..
शायद यही सच है ...
बहुत खूबसूरत चित्र और बिम्ब

M VERMA का कहना है कि -

मां याद है मुझे,
पसीना पोंछती मां,
बेटों की डांट खाती मां...
तुम कहां हो,

और फिर ..
कहां-कहां ढूंढोगे मुझे..
मैं हर सीने में हूं..
शायद यही सच है ...
बहुत सुन्दर

स्वप्निल तिवारी का कहना है कि -

Behad shandar lagi yah rachna..iradon ki,atma ki reedh bachhi rahi to koi saanp nahi bana sakta..

निर्मला कपिला का कहना है कि -

मैं भूलने लगा हूं
अपने बूढ़े पिता का चेहरा...
ये बदहवासी के पहले की आखिरी घड़ी है....
मां याद है मुझे,
पसीना पोंछती मां,
बेटों की डांट खाती मां...
तुम कहां हो,
eएक लाचर दिल की अभिव्यक्ति जो दुनिया मे जीने के लिये अत्याचार सह रहा है। दिल को छू गयी रचनाआभार।

Aruna Kapoor का कहना है कि -

कहां-कहां ढूंढोगे मुझे..
मैं हर सीने में हूं..
दुआ करो कि खाद-पानी मिले मेरे आंसूओ को,
याद रखना संपेरों,
मेरे आंसू उग आए
तो निर्मूल हो जाओगे तुम....

यह किसी एक की नहीं... बद-हालात के शिकार करोडों भारतवासियों की आवाज है!...दर्द भरी दास्तां!

देवेन्द्र पाण्डेय का कहना है कि -

..याद रखना संपेरों,
मेरे आंसू उग आए
तो निर्मूल हो जाओगे तुम....
..!

n jaane kyon nachane lagte hain hm sapere kii biin par, sarp ban..! achhi nahin lagtin shanti kii khabren .dhoondhte rahte hain akhbaar ke pannon par apnon kii lashen..!
..kya iske liye sapere hii doshii hain..? hmen nahi bachanii chahie apnii riidh..? ve jo majboor nahiin hain is kavita kii abhivyaktii kii tarah, km se km ve to sambhal hii skte hain.
..bahut achhi kavita.

manu का कहना है कि -

छुट्त्पन में एक गाना सुना था...

सपेरा बीन बजा बीन बजा नाचूंगी.....
मैं तो नाचूंगी...


क्या करेगा कोई ..?

विश्व दीपक का कहना है कि -

हर पंक्ति झकझोरने में काबिल

विशेषकर:

ये बदहवासी के पहले की आखिरी घड़ी है....
मां याद है मुझे,
पसीना पोंछती मां,
बेटों की डांट खाती मां...

मुझ पर और कोड़े बरसाए जाएं..

लेकिन अंतिम पंक्ति में उम्मीद की जो किरण आपने दिखाई है, उसे पढकर बड़ा सुकून मिला। इस पंक्ति में जो ललकार है और उस ललकार के लिए जिस शब्द का चुनाव किया गया है, वह काबिल-ए-तारीफ़ है..

"तो निर्मूल हो जाओगे तुम..."

बधाई स्वीकारें!

-विश्व दीपक

पद्म सिंह का कहना है कि -

याद रखना संपेरों,
मेरे आंसू उग आए
तो निर्मूल हो जाओगे तुम....
... अद्भुद !

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