हम
अपने समय के
सबसे बेईमान और बेरहम
वक्त के जबड़ों में फँसे हैं
जहाँ हैवानी नस्ल
इंसानी पैदावार की शगल में
मुक्ति के शब्द भुलाकर
ऐय्यास क्रियाएँ खेल रही हैं
इंसान होने की परिभाषा
साहित्य से स्थगित होकर
खद्दरों के मुँह में घुस गयी है
सपनीले नग्मों के होंठ
सिल दिए हैं हैवानी फिजाओं ने
और अब
जिन्दा तस्वीर का रुख बदल चुका है
विद्रोह का सारा व्याकरण
खोलती भाषा का ताप
छद्म नारों के साथ
रंगरलियाँ मनाने में लगा है
ऐसे में साथियो
एक रास्ता हम भी चुनें
बेईमान वक्त के जबड़ों में फँसे
अपने वक्त का इतिहास
अपनी भाषा में रचें
और
मेहनत करने की आदत में
हक लेने की आदत को शामिल करके
अन्याय के गणित को
पढना सीखें
सूरज बड़त्या
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9 कविताप्रेमियों का कहना है :
sundar ek jalti hui kavita...
विद्रोह का सारा व्याकरण
खोलती भाषा का ताप
छद्म नारों के साथ
रंगरलियाँ मनाने में लगा है
छद्म आवरण तो अब रोजमर्रा की आदत में शामिल हो चुकी है
सुन्दर रचना
मेहनत करने की आदत में
हक लेने की आदत को शामिल करके
अन्याय के गणित को
पढना सीखें
बहुत उम्दा विचार हैं प्रबंधन से जुड़े़ लोग पढे़गें तो कुछ संदेश ले सकेंगे और मजदूर वगॆ के लोग पढे़गें तो कुछ समझ सकेंगे
सुन्दर रचना
सार्थक रचना!
मेहनत करने की आदत में
हक लेने की आदत को शामिल करके
अन्याय के गणित को
पढना सीखें
achi rachna hai ..doordarshan ka ek saksharta mission wala ek song yad aa gaya..
padhna likhna seekho ...o mehnat karne walon... :)
मेहनत करने की आदत में
हक लेने की आदत को शामिल करके
अन्याय के गणित को
पढना सीखें
"रचना प्रभावित करती है.."
regards
मेहनत करने की आदत में
हक लेने की आदत को शामिल करके
अन्याय के गणित को
पढना सीखें
वर्तमान समय मे अन्याय के गणित को न्याय के गणित मे बदलना तो सम्भव नही लगता, हक लेने की आदत बनाकर अपनी कुर्बानी देने का काम कर सकते है किन्तु शहीद का दर्जा नही मिलेगा क्योकि वह चन्द लोगो के लिये आरक्षित हो गया है.
न्याय की बात करने वाले को ही अन्यायी सिद्ध कर देना अन्यायियो के बाये हाथ का खेल है.
अच्छा लिखा है। बधाई।
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