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Tuesday, April 06, 2010

हिंदी की समकालीन कविता किस मर्ज की दवा है


जबकि ईमानदारी अजूबों की तरह अपनी संख्या घटाने लगी है और लगभग ऐसी ही चर्चा पाने लगी है, ऐसे बेईमान समय में भी कवियों से कविता में ईमानदारी की अपील की जाती रही हैं। हमारी हर कोशिश भी उसी प्रक्रिया का एक हिस्सा है- इस संशय के साथ कि हम कितने ईमानदार हैं। कविता के इसी अंधकारकाल में हम हरे प्रकाश उपाध्याय की दो कविताएँ प्रकाशित कर रहे हैं।

हिंदी की समकालीन कविता

वक्तव्य- हरेप्रकाश उपाध्याय
Hare Prakash Upadhyay
कविता भाषा में आदमी होने की तमीज है
अपनी कविता के बारे में या किसी की कविता के बारे में और आज की आलोचना के बारे में कुछ भी कहना खतरे से खाली नहीं है। यह तब और, जब निरपेक्ष होकर वस्तुगत ढंग से कुछ कहना चाहें। दरअसल आज का समय और हमारे मन इतने प्रदूषित और ‘राजनीतिग्रस्त’ हो चुके हैं कि हम कविता में या कविता के बारे में कुछ कहने या सुनने के पहले यह सोचने लगते हैं कि जो कहना है या कहा जा रहा है या जो कह रहा है वह किन स्वार्थों, संपर्कों और सुविधाओं को दुरूस्त करेगा। यह वह दौर है जिसमें हम बहुत सारे नितांत वैयक्तिक स्वार्थों की वजह से या जानबूझकर ही बिगाड़ कर लेते हैं पर बिगाड़ की डर से ईमान की बात कतई नहीं करते। ऐसा व्यवहार हम कविता में प्रकट कर रहे हैं और कविता के बाहर भी। यह अनायास नहीं है कि मौजूदा कविता पर निष्प्रभावी होने और उस पर पूर्ववर्ती कविता या किसी और प्रभाव के होने की बाद कभी फतवे के तौर पर, कभी दबे स्वर में की जा रही है। यहाँ कहना चाहिए कि न कविता ईमानदार है, न कविता पर की जानेवाली बातों में ही कोई जान है। ठीक है कि आज की कविता कई तरह के नए अनुभवों को लाने की कोशिश में है, पर किन्हीं वजहों से उसमें साफगोई या ईमानदारी नहीं है। वाचालता और झूठी प्रतिबद्धता चाहे हो। इस आसंग में आज जो कविता धड़ाधड़ पुरस्कृत हो रही है और उसके बारे में जो अनुसंशाएँ सामने आ रही हैं उसपर गौर करने की ज़रूरत है। लगता है, हमने लगभग यह मान लिया है कि कविता कर्म भी मौजूदा राजनीतिक कर्म की तरह बगैर दगाबाजी के सफल नहीं हो सकता। कभी मुक्तिबोध जैसे कवि पूछते थे, “पार्टनर तुम्हारी पालिटिक्स क्या है?” आज कोई कवि किसी साहित्यिक से यही सवाल पूछे तो जिससे सवाल पूछा जायेगा वह इसे निश्चित तौर पर एक मजाक मानेगा या व्यंग्य। दरअसल हाल-फिलहाल में राजनीति का सम्बंध सिद्धांत या विचारधारा की जगह मजाक या व्यंग्य से ही जुड़ गया है। बताइए मधु कोड़ा, लालू, मायावती जैसे अधिकांश नेता अपनी ही जनता के साथ जिसका उन्होंने विश्वास जीता है, मजाक नहीं तो क्या कर रहे हैं? और आज का मीडिया हद से हद उन पर व्यंग्य कर रहा है, नहीं तो वह भी किन्हीं न किन्हीं मजाकों में ही तो मुब्तिला है। बताइए कि इस तरह के फ्राडिज्म एक सघन और ईमानदार काव्यानुभव में क्यों नहीं बदल रहे? दरअसल हम जैसे-जैसे नई-नई तकनीक पर अपना अधिकार पा रहे हैं- क्रूरता, भ्रष्टाचार और दगाबाजी की भी नई-नई तकनीकों में महारत हो रहे हैं। हम दरअसल एक नौटंकी कर रहे हैं और कोई एक ईमानदार अवलोकनकर्ता नहीं है जो खड़ा हो और कह सके , बस बहुत हो चुका। हर मौके पर ताली बजाने वाले बहुत हैं। आज के आलोचकों को इस रूप में भी देखना चाहें तो देख सकते हैं। बहुतों को लग सकता है कि मैं यह सतही आरोप लगा रहा हूँ। अगर मैं ऐसा कर रहा हूँ तो किसी कविता को ही अंततः इसके प्रमाण देने होंगे। बेशक ये आरोप मैं अपनी कविता पर भी कर रहा हूँ। कविता में सच मुखर हो मेरी यही कामना और कोशिश है। यह काम कोई आलोचना चाहकर भी नहीं कर या करा सकती। कविता को जो करना है, खुद करना होगा। उसे पहले एक बेबाक भाषा में ढलना होगा। धूमिल को उद्धृत करना चाहूँगा कि कविता भाषा में आदमी होने की तमीज है।
कवियो ! यह ससुरी हिंदी की समकालीन कविता
किस मर्ज की दवा है
एक तो यह अपने लिखाने में ही
तुम्हें निचोड़ लेती है
जल्दी पकड़ में ही नहीं आती
कभी आती है तो इस तरह
कि तुम कई-कई दिन बेचैन रहते हो
पागलों की तरह लगे रहते हो
एक ही धुन को पकड़े रहते हो
ऐसा कि प्रेमिका का कॉल भी तुम्हें बुरा लगने लगता है

यह अलग बात है कि
इस कविता का थोड़ा सा प्यार पाकर
तुम बहुत खुश हो लेते हो
पर इसे लिखने से
न तुम्हें रंडी न दलाल न सेठ न घुसखोर
न संत न कसाई
न नेता न अभिनेता
यहां तक कि गली का कुत्ता तक तुम्हें भाव नहीं देता
सब तुम पर हँसते हैं
सबकी भौंहें तुम पर तनी रहती हैं

न तन मिलता है न धन
न कहीं आग लगती है न किसी की प्यास बुझती है
उल्टे साले दो कौड़ी के दंतचिआर
तुम्हारा मजाक उड़ाते हैं ताली बजाते हैं

और तुम लिखते जाते हो गर्मागर्म कविताएं
जिसे तुम्हीं पढ़ते हो
और सिर्फ तुम्हीं पढ़ते हो
और खुश होते हो
और अकड़ जाते हो
तुम्हें लगता है
तुम धरती को घुमा दोगे उसकी सही दिशा में
सब चीजों को बदल दोगे
पर अंतत: कुछ होता-हव्वाता नहीं
सारी सड़ी चीजें मार कविताओं के बीच गंधाती रहती हैं।
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रास्ते रोकनेवाले

तुम रास्ते रोकते हो
कई बार यह इस तरह सहज हो जाता है तुम्हारे लिए कि
तुम जानते भी नहीं हो कि
तुम रास्ते रोकते हो
तुम लगे रहते हो
हरदम सोचते रहते हो
कि किस तरह उसका निकलना बंद कर दो
किसी भी तरफ

तुम इस बात में अपनी काबिलियत समझते हो
कि तुम एक भी रास्ते नहीं रहने देते हो उसके
उसकी परेशानी छटपटाहट देखकर
तुम्हारी आक्रामकता बढ़ती जाती है
तुम्हारे भीतर एक राक्षस अट्टाहास करने लगता है
तुम्हारी भुजाएं दस हो जाती हैं
तुम ऐंठ कर बोलने लगते हो
तुम इसी में खपाते हो अपने को
और एक दिन तुम पाते हो
कि वह तो निकल ही गया
एक रास्ते से

जब वह तुम्हारी पकड़ से बाहर चला जाता है
तुम्हारे देखते-देखते
और तुम वहीं खड़े रह जाते हो
वह आगे निकल जाता है
तब तुम्हें लगता है
कि तुमने रास्ते रोकने की जगह
अपना एक रास्ता बनाया होता
तो वह कितना काम का होता आज तुम्हारे
वैसे तुम्हें कई बार ऐसा कुछ भी नहीं लगता
तुम किस तरह और किस कदर पिछड़े हो यह तुम देख ही नहीं पाते
तुम्हे बहुत तो अपने शिकार का बहक जाना ही दिखता है
तुम बस थोड़ा सा पछताते हो
और फिर किसी के रास्ते रोकने लगते हो
तुम्हें इस काम में मजा आता है
या नहीं भी आता है आदतवश

तुम बस लगे रहते हो
अगला शिकार भी एक दिन अपना रास्ता निकाल लेता है
और फिर तुम अगले को शिकार बनाते हो
और इस तरह शिकार बनाते-बनाते
तुम एक दिन खुद नियती के शिकार हो जाते हो
तो जिनके अब तक तुम रास्ते रोकते रहे हो
वे ही तुम पर तरस खाते हैं
पर शायद तुम यह बात कभी जान नहीं पाते हो...।

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3 कविताप्रेमियों का कहना है :

Anonymous का कहना है कि -

पागलों की तरह लगे रहते हो
एक ही धुन को पकड़े रहते हो
ऐसा कि प्रेमिका का कॉल भी तुम्हें बुरा लगने लगता है
जानदार..शानदार..मजेदार...असरदार...क्योंकि एक रचना को रचते वक्त यही सब कुछ तो होता है..आज के परिवेश मे कवि की कविताएं भी उस माहौल से अछूती नही रह पाईं हैं..बहुत-बहुत बधाई उपाध्याय जी!

Unknown का कहना है कि -

कविता को गद्य के रूप में हर कोई लिख सकता है पर वास्तव में कविता को कविता के रूप में लिखना बहुत ही कठिन है ,
धन्यवाद
विमल कुमार हेडा

addictionofcinema का कहना है कि -

bahut badhiya
ek badhiya kavi se aisi hi ummid ki ja sakti hai
hare prakash ko bahuton ko aina dikhane ke liye badhai

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