मैं चाँद को दरीचों में उतारूँ तो बड़ा शायर हूँ,
मैं रात से गलीचों को सवारूँ तो बड़ा शायर हूँ,
मैं ख़्वाब में तारों की पनाह लूँ तो बड़ा शायर हूँ,
मैं आग से साँसों की निबाह लूँ तो बड़ा शायर हूँ,
मैं रूह की ये राख उड़ा दूँ तो बड़ा शायर हूँ,
मैं जिस्म की हर फ़ाँक जला दूँ तो बड़ा शायर हूँ।
मैं हर बात वो कर जाऊँ जो मुमकिन हीं नहीं,
शब्दों में वो पा जाऊँ जो हासिल हीं नहीं,
आँखों पे टाँक दूँ मैं कोई और हीं जहां,
कानॊं में ठेलता रहूँ उलझी-सी दास्तां,
पलकों को उबासी से पशेमान मैं कहूँ,
कदमों को सज़ायाफ़्ता परेशान मैं कहूँ,
सीने में खोंस आऊँ मैं बुलबुल कोई घायल,
रानाईयाँ इतनी भरूँ, कुदरत भी हो कायल,
लैला के सुर्ख होठों को दैर-ओ-हरम कहूँ,
मजनूं की मौत आए तो हक़ बेशरम कहूँ,
मैं हद कोई रहने न दूँ लिखने जभी बैठूँ,
हर हर्फ़ सौ गुना करूँ, हर ख्याल मैं ऐठूँ,
मैं बंद की बंदिश हीं मिटा दूँ तो बड़ा शायर हूँ,
हर चंद को मुफ़लिस जो बना दूँ तो बड़ा शायर हूँ।
पर मैं अगर जो सीधे-सादे लफ़्ज़ों में इतना कहूँ,
जी नही पाऊँगा तुझ बिन, बोल दे कैसे रहूँ,
या कि मैं ऐसा कहूँ कि झूठों का ये दौर है,
डूबते इस देश का अब भ्रष्ट हीं सिरमौर है,
या कि खुश हो लूँ कभी तो बोल मैं यूँ कर लिखूँ,
भूल कर सारे गमों को ज़िंदगी बेहतर लिखूँ,
मैं अगर कुछ ना लपेटूँ, ना कहीं अतिशय करूँ,
तो मुझे डर है कि यूँ मैं स्तर ना नीचे करूँ।
....
मैं यहाँ सिर्फ़ मैं नहीं वो सभी शायर हूँ जो,
सोच में बदलाव से शापित हैं कि मरते रहो,
वो जो पहले लिखते थे कुछ और, अब कुछ और हीं,
पहले लिखते दिल से थे, अब तो दिल लगता नही,
लेकिन करते भी तो क्या, वक्त की ये माँग है,
"कोई नई उपमा रचो, लिखो वो जो ऊट-पटाँग है,
फिर तभी हरेक से पूछे और पूजे जाओगे,
फिर नई कविता के दम पे पुस्तकों में आओगे,
और हाँ, अपने सड़े-से सब पुराने छंदों को,
दूर फेंको कि नज़र न आए हुनर-पसंदों को"
बस इसी कारण ये सारे हुनर अपना त्याग के,
भेड़-चाल में लगे हैं रात-रात जागके,
बस इसी का डर है कि दौड़ में छूटे नहीं,
लेखनी से रिश्ता जो था, अब कहीं टूटे नहीं।
इस तरह लेखन जो हो तो लिखने का क्या फ़ायदा,
नई सोच हीं सही सोच है- ये है कहाँ का कायदा?
गर मुक्तछंद हीं है सही तो छंद को जनना न था,
वेदों को फिर छंद-युक्त पोथियाँ बनना न था,
जो निराला ने लिखा, निस्संदेह वो अतुल्य है,
पर गुप्त का, प्रसाद का, दिनकर का भी तो मूल्य है,
इसलिए इतनी गुजारिश करता हूँ तुमसे ओ मित्र!
एक-सी नज़रों से देखो इन चितेरों के ये चित्र,
फिर तभी तो एक युग में हर तरह के रंग होंगे,
देखकर कविता की खुशियाँ, सब हितैषी दंग होंगे।
....
जो कहा इतना हीं कुछ है, तो ये भी कहता चलूँ,
वो लिखो जो हर किसी को समझ आए, दे सुकूं,
"गर सभी समझें कवि को तो कवि काहे का वो",
परसाई जी की बात ये एक व्यंग्य है,तुम जान लो,
इसलिए तुम शब्द दो सुलझे हुए ख़्यालात को,
जो अना आगे बढे तो रोक लो जज़्बात को,
ना लिखो ऐसा कि लोग डर से बस अच्छा कहें,
कि अगर कुछ ना कहा तो सब न फिर बच्चा कहें,
बेवज़ह-से लफ़्ज़ को हर शेर से तुम नोंच लो,
छूना हो जो दिल अगर तो सोच को कुछ लोच दो।
और ये भी ध्यान हो कि शायरी बेमोल है,
तो भला कैसे यहाँ छोटा-बड़ा का तोल है,
फिर भी गर कोई धर्म-कांटा आए तो ऐसा न हो,
शब्द सारे "बाट" हों और भाव का रूतबा न हो,
या कि बस हीं भाव हो और शब्द सारे गौण हों
ज्यों कोई ज्ञानी, सुधर्मी जन्म से हीं मौन हो,
इसलिए मेरा मानना है- एक उचित अनुपात हो,
फिर तभी तो जब किसी शायर से कोई बात हो,
तो वो बस दिल की कहे और बस दिल की सुने,
और दिल हीं दिल में वो बस यही बातें गुने-
किसी दिल में जो पनाह लूँ तो बड़ा शायर हूँ,
अगर खुद से हीं निबाह लूँ तो बड़ा शायर हूँ।
-विश्व दीपक
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5 कविताप्रेमियों का कहना है :
विश्व दीपक जी! बहुत सही लिखा :
"गर सभी समझें कवि को तो कवि काहे का वो",
परसाई जी की बात ये एक व्यंग्य है,तुम जान लो,
पर यह कैसा युग है कि
प्रकाशक यदि मान ले... तो बड़ा शायर हूँ !!!
सीने में खोंस आऊँ मैं बुलबुल कोई घायल,
रानाईयाँ इतनी भरूँ, कुदरत भी हो कायल,
लैला के सुर्ख होठों को दैर-ओ-हरम कहूँ,
मजनूं की मौत आए तो हक़ बेशरम कहूँ,
मैं हद कोई रहने न दूँ लिखने जभी बैठूँ,
हर हर्फ़ सौ गुना करूँ, हर ख्याल मैं ऐठूँ,
मैं बंद की बंदिश हीं मिटा दूँ तो बड़ा शायर हूँ,
हर चंद को मुफ़लिस जो बना दूँ तो बड़ा शायर हूँ।..
बेहतरीन!!
विश्व दीपक जी बहुत दिनों से आपकी रचनाओं को पढ़ता आया हूँ..कुछ ना कुछ सीख हर बार दे जाती है आपकी रचनाएँ..आज भी कहीं से कुछ कम नही....बढ़िया प्रस्तुति...धन्यवाद विश्व दीपक जी...
वो जो पहले लिखते थे कुछ और, अब कुछ और हीं,
पहले लिखते दिल से थे, अब तो दिल लगता नही,
लेकिन करते भी तो क्या, वक्त की ये माँग है,
"कोई नई उपमा रचो, लिखो वो जो ऊट-पटाँग है,
फिर तभी हरेक से पूछे और पूजे जाओगे,
फिर नई कविता के दम पे पुस्तकों में आओगे,
और हाँ, अपने सड़े-से सब पुराने छंदों को,
दूर फेंको कि नज़र न आए हुनर-पसंदों को"
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गर मुक्तछंद हीं है सही तो छंद को जनना न था,
वेदों को फिर छंद-युक्त पोथियाँ बनना न था,
जो निराला ने लिखा, निस्संदेह वो अतुल्य है,
पर गुप्त का, प्रसाद का, दिनकर का भी तो मूल्य है,
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और ये भी ध्यान हो कि शायरी बेमोल है,
तो भला कैसे यहाँ छोटा-बड़ा का तोल है,
फिर भी गर कोई धर्म-कांटा आए तो ऐसा न हो,
शब्द सारे "बाट" हों और भाव का रूतबा न हो,
या कि बस हीं भाव हो और शब्द सारे गौण हों
ज्यों कोई ज्ञानी, सुधर्मी जन्म से हीं मौन हो,
इसलिए मेरा मानना है- एक उचित अनुपात हो,
फिर तभी तो जब किसी शायर से कोई बात हो,
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ऐसा लगा मानो घुसा हो कोई मेरे वक्ष में
शब्द वाणों से लड़ा हो कोई मेरे पक्ष में
जाने कितने कीट जुगनू ओर इस आयेंगे अब
ये भी तय है एक पल में राख जो जायेंगे सब
लौ नहीं कमजोर पडती स्वंम के प्रतिरक्ष में
शब्द वाणों से लड़ा ...............
bahut achha likha hai.
गर मुक्तछंद हीं है सही तो छंद को जनना न था,
वेदों को फिर छंद-युक्त पोथियाँ बनना न था,......
बहुत ही सही बात कही आपने ... जरूरी नहीं की हम भेद चाल में चलें..... और अगर सभी एक जैसे ही रहे तो युग एकरंगा ही रहेगा बस सादा ....
धन्यबाद
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