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Sunday, November 29, 2009

तू है कौन, कौन हैं तेरे


ताल-तलैया पी कर जागा
नदी मिली सागर भी मांगा
इतनी प्यास कहाँ से पाई
हिम से क्यों मरूथल तक भागा

क्यों खुद को ही, रोज छले रे
तू है कौन, कौन हैं तेरे

सपनों को अपनों ने लूटा
एक खिलौना था जो टूटा
छोड़ यहीं सब झोला-झंखड़
चल निर्जन में यह जग झूठा

भज ले राम, राम हैं तेरे
तू है कौन कौन हैं तेरे

घट पानी का पनघट ढूँढ़े
भरे लबालब मद में डूबे
सर चढ़ कर जब लगे डोलने
ठोकर खाए खट से फूटे

जो संभले वो पार लगे रे
तू है कौन कौन हैं तेरे।

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13 कविताप्रेमियों का कहना है :

अपूर्व का कहना है कि -

घट पानी का पनघट ढूँढ़े
भरे लबालब मद में डूबे
सर चढ़ कर जब लगे डोलने
ठोकर खाए खट से फूटे

कबीर की रमैनियों जैसा मिस्टिसिज़्म, और नीरज जी जैसा माधुर्य है आपकी इस कविता मे..जीवन-दर्शन के ओर-छोर नापती..

..ऐसा ही बंजारों के गीतों मे होता है..
अद्भुत!!

Pramendra Pratap Singh का कहना है कि -

बहुत ही अच्‍छी कवित उत्तम भावो का प्रदर्शन

gazalkbahane का कहना है कि -

क्यों खुद को ही, रोज छले रे
तू है कौन, कौन हैं तेरे

gazalkbahane का कहना है कि -

क्यों खुद को ही, रोज छले रे
तू है कौन, कौन हैं तेरे

राकेश कौशिक का कहना है कि -

आधात्मिक सन्देश लिए गाने लायक भजन.

Anonymous का कहना है कि -

क्यों खुद को ही, रोज छले रे
तू है कौन, कौन हैं तेरे
सही कहा आपने जानते हुए भी रोज हम स्व्यं को छलते हैं। सुंदर भावमय अभिव्यक्ति के लिए बहुत- बहुत बधाई !

देवेन्द्र पाण्डेय का कहना है कि -

दूसरे बंद की अंतिम पंक्ति में
चल निर्जन में यह जग झूठा
के स्थान पर
जल निर्जन में यह जग झूठा
टंकित हो गया है
कृपया इसे 'चल निर्जन में' पढ़ने का कष्ट करें
-देवेन्द्र पाण्डेय

मनोज कुमार का कहना है कि -

सपनों को अपनों ने लूटा
एक खिलौना था जो टूटा
छोड़ यहीं सब झोला-झंखड़
जल निर्जन में यह जग झूठा
इसमें आधात्मिक सन्देश छुपा है। काफी अच्छी लगी यह रचना।

Shyam Juneja का कहना है कि -

pyari kavita

kailash joshi का कहना है कि -

rachana geeta saar hai.
sundar rachana hetu bhadhai.
joshi.

neelam का कहना है कि -

घट पानी का पनघट ढूँढ़े
भरे लबालब मद में डूबे
सर चढ़ कर जब लगे डोलने
ठोकर खाए खट से फूटे

कबीर की रमैनियों जैसा मिस्टिसिज़्म, जीवन-दर्शन के ओर-छोर नापती..

..ऐसा ही बंजारों के गीतों मे होता है..
अद्भुत!!

neelam का कहना है कि -

pandey ji kamaal ho gaya ,pahli aur aakhiri tippni ek jaisi .

क्यों खुद को ही, रोज छले रे
तू है कौन, कौन हैं तेरे

विनोद कुमार पांडेय का कहना है कि -

घट पानी का पनघट ढूँढ़े
भरे लबालब मद में डूबे
सर चढ़ कर जब लगे डोलने
ठोकर खाए खट से फूटे

निर्गुन जैसा लगा संत कबीर जी की रचनाओं से मेल ख़ाता हुआ..भाव अच्छा लगा कविता भी बढ़िया है..बधाई

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