वरिष्ठ कवि दिनेश कुमार शुक्ल के नवीनतम संग्रह 'आखर अरथ' से अब तक आप 12 कविताएँ पढ़ चुके हैं। आज हम इसी संग्रह से एक अलग प्रकार की कविता आपके समक्ष रख रहे हैं, जिसमें कवि खुद को बिलकुल गँवई शैली में ढालकर कविता करता है, फिर भी अपनी धार नहीं खोता।
13॰ राग बिलावल गाओ
गोदा-गादी, चील-बिलउवा
लिखो और मुस्काओ
सीधी-सीधी बातों में भी
अरथ अबूझ बताओ
बड़े गुनीजन बनो खेलावन
मार झपट्टा लाओ
जिसे किसी ने कभी न गाया
राग बिलावल गाओ
पकनी फुटनी काया लेकर
धरा धाम पर आये
जब देखी सुन्दर अमराई
मन-ही-मन गदराये
काचे-पाके झोरि गिराये
सुग्गा एक न पाये
बुरा न मानो रामखेलावन
करनी के फल खाओ
बात पित्त में कफ में सानी
बानी ज्ञानी गाओ
राग बिलावल गाओ
दास मलूका बने बिजूका
मन-ही-मन मुस्कावें
चिड़िया चुनगुन आवें जावें
दाना चुग्गा पावें
कौन मलूका की ये खेती
जो वो हाँकें कउवा
तुम्हें पड़ी हो तो तुम जाओ
अपनी फसल बचाओ
राग बिलावल गाओ
लाँघो अपनी देहरी दुनिया
लाँघो सात समुन्दर
अपने चप्पू आप चलाओ बूड़ो या तर जाओ
कविता के भौफन्द फँसे हो
उलझी को सुलझाओ
झिटिक फिटिक कर जाल तोड़कर
गगन सात मँडलाओ
राग बिलावल गाओ
वो थोड़ा-सा मुस्का देती
तो भादौं आ जाता
ये कीचड़ वाला पोखर भी
ऊपर तक भर जाता
लहर-लहर लहराता पानी
सबकी प्यास बुझाता
लेकिन थूथन हिला हिला कर
भैंस खड़ी पगुराये
ज्ञानी से अच्छा अज्ञानी
फिर भी बीन बजाये
बना पोटली सत्तू धनियाँ
काँधे में लटकाओ
बूढ़ बसन्त तरुन भये धावल
(छिमा करो हे विद्यापति कवि)
राग बिलावल गाओ
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9 कविताप्रेमियों का कहना है :
अद्भुत शब्द चयन से परिपूर्ण कविता, पढ़कर पुराने कविओ को पढ़ने जैसा लगा, जैसा कि विद्यापति का जिक्र किया है, विद्यापति को स्नातक मे पढा था मेरे प्रिय कवि थे विद्यापति
जो मेरी समझ में आया उसके आधार पर "राग बिलावल गाओ" अध्यात्मिक और सामाजिक सन्देश देती हुई एक छंदवद्ध रचना है. कवि ने खड़ी बोली और गँवई दोनों तरह की भाषा-शैली का प्रयोग किया है. कही-कही पंक्तियाँ बेमेल है तथा उनकी संख्याओं में भी भिन्निता है इसके बाबजूद भी कविता में प्रवाह है और कुल मिलकर गेयता लिए हुए एक अच्छी कविता कही जा सकती है. कवि को बधाई.
बना पोटली सत्तू धनियाँ
काँधे में लटकाओ
बूढ़ बसन्त तरुन भये धावल
(छिमा करो हे विद्यापति कवि)
राग बिलावल गाओ
इसमें चित्रात्मकता बहुत है । आपने बिम्बों से इसे सजाया है। ध्वनि बिम्ब या चाक्षुष बिम्ब का सुंदर तथा सधा हुआ प्रयोग। बिम्ब पारम्परिक नहीं है – सर्वथा नवीन। इस कविता की अलग मुद्रा है, अलग तरह का संगीत, जिसमें कविता की लय तानपुरा की तरह लगातार बजती रहती है । अद्भुत मुग्ध करने वाली, विस्मयकारी।
लिखो और मुस्काओ--jee
गोदा-गादी, चील-बिलउवा
लिखो और मुस्काओ
सीधी-सीधी बातों में भी
अरथ अबूझ बताओ
बड़े गुनीजन बनो खेलावन
मार झपट्टा लाओ
जिसे किसी ने कभी न गाया
राग बिलावल गाओ
---शुक्ल जी ने गंवई शैली में बड़ी बात कह दी । आज इसी का अभाव दिखता है।
साहित्यकार अपनी माटी, अपने तेवर से दूर होते जा रहें हैं
जिसका परिणाम है कि कविता भी आज जन-जन से दूर होती जा रही है।
ऐसी कविताओं को ढूंढकर प्रकाशित करने की जरूरत है।
आभार
बेचैन आत्मा।
एक व्यर्थ की ,सन्देश रहित, सरोकार रहित , ऊट पटांग कविता, एसी कविताओं के कारन ही काव्य जन-जन से दूर होरहा है। क्योंकि जन साधारन को दूरस्थ भाव समझ में नहीं आते, वे कवि की कला प्रदर्शन में खो जाते हैं।
दिमाग चकरघन्नी हो गया
गोदा-गादी, चील-बिलउवा
लिखो और मुस्काओ -- --- -
अच्छी कविता है! बधाई!
गोदा-गादी, चील-बिलउवा
लिखो और मुस्काओ
सीधी-सीधी बातों में भी
अरथ अबूझ बताओ
बड़े गुनीजन बनो खेलावन
मार झपट्टा लाओ
जिसे किसी ने कभी न गाया
राग बिलावल गाओ
आकर्षित करते शब्द और बढ़िया भावों से सजी कविता को बार बार पढ़ने का मन होता है जैसे की गुनगुनाते रहे..बधाई दिनेश जी
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