आत्म विवेचन
बहुत जटिल शब्द है ये!!!
विवेचन करने बैठी
तो पहला प्रश्न
जो समक्ष था
वह यह कि
ये "आत्म " कौन है !
रोज़ कॉलेज जाती-आती
किताबों की उठा-पटक
नम्बरों की जोड़-तोड़
और शिक्षकों के सामने
अपना महत्व बनाये रखने
की मारा-मारी में
कहीं उलझी हुई
"मैं"
"पिज्जा" या "लेज़" के
पैकेट के साथ
दोस्तों के बीच बैठी
हाथ में
कोल्ड-ड्रिंक का कैन लिए
कभी गाने
कभी फिल्में
तो कभी पसंदीदा अभिनेताओं
की चर्चा करती
"मैं"
अपने कमरे में पड़ी
अपनी अव्यवहारिक किताबी पढ़ाई
और व्यवहारिक बनावटी
"रिश्तों की भीड़" की
सार्थकता-निरर्थकता को
आँकने के प्रयास में
डायरी के पन्ने रंगती
और सब "भूल जाने" के
व्यर्थ उद्देश्य से
"खलील जिब्रान की कहानियाँ"
के पन्नों में खोयी
"मैं"
या फिर
हॉस्टल की छत पर
किसी अकेले कोने में
अपने सूनेपन को खँगालती
अपनी ही सजायी दुनिया
के भ्रम को तोड़ती....
अपनी डबडबाई आँखों के
आँसू पोंछती
नज़रें आसमान से हटाकर
अपने लिए एक ज़मीन तलाशती
और अन्दर ही अन्दर कहीं
जीवन की कठोरता को
स्वीकारती
"मैं"
कवयित्री- स्मिता पाण्डेय
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11 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत खूब स्मिता जी!!
शब्दों और भावों का ऐसा समां बाँधा है आपने कि हृदय पढकर मंत्रमुग्ध हो गया। कालेज जाने की ऐसी उम्र में ऐसा हीं होता है..पिछले साल तक मैं भी यही महसूस करता रहा था।
-विश्व दीपक
स्मिता जी
अतुकांत में अच्छे शब्द और चित्रण हैं। बस, अव्यावहारिक शब्द का प्रयोग कर लीजिए। अव्यवहारिक नहीं होता है। इक प्रत्यय लगने से यह अव्यावहारिक हो जाता है। अन्यथा नहीं लें।
-सूर्यकांत द्विवेदी
स्मिता जी आपने मन में उमड़ रही बातें जो निराकार है को बहुत सुंदर तरीके से आकर देने की कोशिश की है..बहुत ही बढ़िया कविता मन की विवेचना प्रस्तुत करती हुई..लाज़वाब रचना...बधाई
बस यही तो है आत्मविवेचन..मुझ मे से ’मै” की बेचैन तलाश..निष्पक्ष !!!!
अपने सूनेपन को खँगालती
अपनी ही सजायी दुनिया
के भ्रम को तोड़ती....
अपनी डबडबाई आँखों के
आँसू पोंछती
नज़रें आसमान से हटाकर
अपने लिए एक ज़मीन तलाशती
और अन्दर ही अन्दर कहीं
जीवन की कठोरता को
स्वीकारती
"मैं"
"मैं" ko aapne bahut achhi tarah paribhashit kar apni aantrikh vyatha or jiwan ki sachai ko ujagar kar bahut sundar prastuti de hai.
Shubhkanayen.
ek aisi bat jo shabdon me abhibyakt kar sahaj bhaw se kabita ka roop de diya.jisame bastwikata hai. ais manobhawon ko ukerati jaen.badhai.
kishore kumar jain guwahati.
एक 'मैं' वह जो यह सब भोगता है .......एक 'मैं' वह जो यह सब देखता है | एक 'मैं' वह जो दूसरों के सापेक्ष है.....एक 'मैं' वह जो स्वयम के ही सापेक्ष है | बस |
.......... शायद इन दोनों का अंतर्संबंध एक समांतर गतिशील नियमितता ही है........दोनों कभी मिलते नही.......दो में से एक विलीन हो जाता है कही.......तभी यह द्वित्व ख़त्म हो पाता है |
कविता अच्छी है .....विचार से शुरू होकर संवेदना व वेदना तक पहुचती हुयी !
badhiya kavita
Aatma vivechana ka sahi roop darshaata hai...yah.
smita ji bahut sunder bhav jeevan ke karib
aap ko badhai ho
rachana
मैं विश्व दीपक जी से सहमत हूँ।
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