पापी रावण को मिला पल में वैकुण्ठ वास
पर पवित्र सीता तुझे मिला पुनर्बनवास
धोबी के संदेह से हुए भ्रमित क्यों राम
इक पटरानी का बना इक कुटिया में धाम
पावनता दिखती तुझे, आँखों में बस झाँक
अग्नि से क्या मिल गया, पावनता को आँक
ना बच्चों को मिल सका, रघुवर तेरा प्यार
ना सीता को मिल सका, वैधानिक अधिकार
इक को रघुवर ने किया, पत्थर से इंसान
इक मर्यादा से बनी, कुटिया का पाषाण
धरती दे दे गोद में वैदेही को शरण
याद रखेगा विश्व यह अबला का अपहरण
--प्रेमचंद सहजवाला
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14 कविताप्रेमियों का कहना है :
इस विषय पर संवाद की ज़रूरत है।
यह विषय निर्विवाद है. इस में संवाद की भला क्या बात है? सीता के साथ जो अन्याय उस व्यक्ति ने किया जिसे वह अपना स्वामी कहती रही, वह अक्षम्य है. कटघरे में राम हैं. है कोई, जो इस तथ्य को ललकारे? शालिनी शर्मा
शालिनी जी मैं आपकी बात से बिल्कुल सहमत हूं। राम ने सीता की अग्नि परीक्षा लेकर भले ही महान राजा होने का धर्म निभाया होगा किन्तु इससे लोगों में जो संदेश पहुंचा क्या वह सही था। आज भी भारतीय नारी अपनी पवित्रता साबित करने के लिए सीता को मिली सजा का दंड भुगतने के लिए मजबूर है।
गौर करिये की सीता जी को केवल एक बार अग्नि-परीक्षा देनी पड़ी थी वह भी राम राज्य में और उनका जीवन कितना सरल था उस युग के हिसाब से. लेकिन आज की नारी कलियुग की होते हुये भी उस युग की नारी से अधिक मानसिक विकास में बढ़ी हैं, साथ में मानसिक परेशानियाँ भी झेलती है, उसे ना जाने कितनी उम्मीदें पूरी करनी पड़ती हैं और उससे न जाने कितनी उम्मीदें बढ़ती ही रहती हैं.....जिनका अंत ही नहीं होता. मानसिक और शारीरिक रूप से कामों में व्यस्त रहती है. उसके बाद भी कितनी ही अंतर्मन को झुलसा देने वाली अग्नि-परीक्षाओं से वह गुजरती है. लेकिन सीता जी को आज की नारी की तरह इतना कुछ नहीं सहना पड़ा था......फिर भी उनके नाम का ही उदहारण दिया जाता है. क्यों????
शालिनी जी ,सुमिता जी और शन्नो जी ,
सीता जी के अन्याय के प्रति मुखरित विद्रोह से पहले सिर्फ इस और ध्यान आकर्षित कराना चाहती हूँ की इस को इस मर्म को पहुचानेवाला व्यक्ति है ,एक पुरुष ,मुद्दों पर बड़ी -बड़ी बातें करना एक बात है और अन्याय के प्रति जागरूक रहते हुए उसे न होने देना दूसरी बात है ,हमारे आस -पास ही देखिये घरों में देखिये ,महिलाओं की दुर्गति मगर हम चुप चाप वहाँ से खिसक लेते हैं ,हमे क्या पड़ी है सीता का बनवास हो या द्रौपदी का चीर हरण ,अन्याय हर समय विद्यमान था ,है और रहेगा |
और नीलम जी,
जब तक हम यह चाहेंगे और होने देंगें. क्योंकि नारी वसन लज्जा कहा जाता है....और अत्याचार के विरुद्ध बोलने से नारी की बदनामी होगी....लेकिन मुंह बंद रखकर कष्ट झेलकर नाम कमा लेती है....लेकिन फिर अन्दर ही अन्दर मन में वह सबकी निगाहों से बचकर अपनी अग्नि में किसी के देखे बिना ही मर जाती है...स्वाहा कर देती है अपने को अत्याचार की आग में.... How ridiculous!!
नारी जाति खुद अपने पर व्यंग कर रही है. है ना?
आप सभी की बात सही है .कहते हैं की नारी ही नारी की दुश्मन है .सही है स्त्रियाँ एक दुसरे की सहायता करें और सहारा बने तो ७५% समस्या हल होजायेगी .
सादर
रचना
अरे....प्रेमजी सबसे पहले तो आपको इस रचना के लिए बधाई! हम तो भूल ही गये कि इतनी बडी बहस छिड गयी और आपको बधाई अब तक नहीं कहा। ये भी अपने आप में बहुत बडी बात है कि कोई रचना लोगों को इतनी उद्वेलित कर देती है कि पाठ्क उस रचना में स्वयं को पाता है। इससे रचना की सार्थकता क पता चलता है। एक पुरुख्ष होते हुए इतने गहरे भाव से लिखना....बहुत आभार!
जी प्रेम जी,
आपने फुलझडी जलाई और हम सब भड़क गये. इस फुलझडी के लिए धन्यबाद. (हा..हा). चलो देर से ही सही...बधाई आपको. आप शायद अवाक् से यह तमाशा देख रहे होंगें की आपकी रचना ने क्या कर दिखाया. एक बात बस आगे बढ़ती ही गयी....
आदरणीय साथियो, नमस्कार. मेरे इन चंद दोहों ने आप सब के मन को उद्वेलित किया है, यह मेरी नहीं वरन आप सब की सफलता है, क्यों कि कोई भी कवि अपने समकालीन रचनाकारों व सुधी पाठकों द्वारा किये गए मूल्यांकन के बल पर रचना का सृजन करता है. इन दोहों को पढ़ कर इस पर जो चर्चा आप ने छेड़ी है, वह सीता के बहाने आज की नारी के साथ होने वाले अन्याय अनाचार के विरुद्ध भी एक सजगता की प्रतीक है और मेरी कामना है कि यह अंतहीन सजगता बरक़रार रहे. आप सब का मैं बेहद आभारी हूँ कि मेरी रचना में निहित मूल्य सम्पदा को समर्थन दे कर आप ने उसे और अधिक सशक्त किया है. आप सब को मेरा नमन.
'Sita Banvas' mastishk ko jahkjhorne wali kavita.. mein soch mein pad gaya hun... kya aaj striyon ko waha daraja prapt hai..jiski bat ham kitabon mein karte hain.
Ashok Chanchlani
बड़ी - बड़ी आशाओं को लेकर यहाँ
हम समाज-सुधार की बात करते हैं
जब आती है मुसीबत किसी पर तो
आहें भरके सब तमाशाई से रहते हैं.
बहुत सूक्ष्म सोच है,पर यहाँ कई एक विस्तार मिलेंगे
बहुत खूब कहा सहजवाला जी
इक को रघुवर ने किया, पत्थर से इंसान
इक मर्यादा से बनी, कुटिया का पाषाण
बहुत ही अच्छी सोच इस कविता में.
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