बस्तर के समर्थ कवि डॉ॰ सुरेश तिवारी मार्च 2009 माह के यूनिकवि रह चुके हैं। आज हम इनकी एक लम्बी कविता प्रकाशित कर रहे हैं जो बहुत प्रसिद्ध भी रही है।
डॉ॰ सुरेश तिवारी
अपनी बात- मनुष्य जब रोजमर्रा की जिंदगी से उब जाता है तब पर्यटन उसके ज्ञान, मनोरंजन, तफरीह के साथ-साथ जिज्ञासु मन को शांत करने का सबसे अच्छा उपाय होता है। यदि साधन सीमित हों, प्राकृतिक सौंदर्य को करीब से निहारना हो तो बस्तर हर कदम पर सैलानियों का स्वागत करता है। नैसर्गिक छटा के साथ-साथ अंधेरी गुफाओं का रहस्य, पुरातात्विक धरोहरों को समेटे सांस्कृतिक नगरियॉं, शैव, वैष्णव, बौद्ध तथा जैन धर्मों के प्राचीन सांस्कृतिक मिलन का अनूठा मिसाल बस्तर की कहानी खुद कहती है। बस्तर में विस्तारित घने वनप्रांतर में बांसों के झुरमुट, जिन्हें सूरज की किरणें भी भेद पाने में असहज महसूस करे, गगनचुंबी पहाड़ियॉं, जिनके घाटियों के दामन में अनेक खूबसूरत जलप्रपात, कल-कल निनादित नदियों का उद्दाम प्रवाह, झरने, चारों ओर फैली हरीतिमा और इनके बीच घास-लकड़ी से बने झोपड़ियॉं, जिनमें निवसित आदिम जीवनशैली - सैलानियों को चारुपाश में निबद्ध करती है।
बस्तर के वनवासियों में सांस्कृतिक धरोहर के रूप में जहॉं लोकगीत तथा लोकनृत्य मुख्य हैं, वहीं शिल्प कलाओं के अंतर्गत बस्तर राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान रखता है।
धातु शिल्प अंतर्गत लौह शिल्प में नगरनार क्षेत्र के कारीगरों की कारीगारी अद्वितीय है। वहीं कांस्य शिल्प में कोंडागांव तथा एर्राकोट दो प्रसिद्ध केंद्र हैं।
मृदा शिल्प अंतर्गत नगरनार क्षेत्र के हाथी देश-विदेश में बस्तर की शोभा बढ़ा रहे हैं, बस्तर का काष्ठ शिल्प तो बेजोड़ है।
इरिकपाल की कौड़ियों से बने वस्त्र कलाकृतियॉं अनूठे परंपरा के धरोहर हैं।
मोरपंख, सींग, साई कांटा, सीप, शीतल पौधा, घास आदि से भी सुंदर कलाकृतियॉं तैयार करने में वनवासी निपुण हैं।
सियाड़ी छाल की रस्सी से बनी चारपाई, तुम्बा से बनी कलाकृतियॉं भी पर्यटकों को मोहने में सक्षम है। पुरातात्विक दृष्टि से बस्तर अनुसंधान तथा शोध के लिये भरपूर अवसर देता है. बारसूर में चंद्रादिव्य मंदिर, मामा-भांजा मंदिर, बत्तीसा मंदिर, गणेशद्वय की विशालकाय प्रतिमा, नागमाता मंदिर, यत्र-तत्र बिखरे पुरावशेष, संग्रहालय की प्राचीन, अखंडित शिव-विष्णु की प्रतिमाएं शैव तथा वैष्णव धर्म के मानने वालों की सांस्कृतिक वैभवशाली नगरी होने का साक्ष्य देती है. भोंगापाल में बौद्ध चैत्यगृह तथा शिव मंदिर के पुरावशेष, कुरूसपाल से खुदाई में निकली महावीर स्वामी की पाषाण प्रतिमा, कोंडागांव के निकट सत्ताइस मंदिरों की श्रृंखला, अड़ेंगा में खुदाई से प्राप्त बत्तीस स्वर्ण मुद्राएं, जैतगिरी के निकट मुद्रा एवं मृदापात्रों के अवशेष, ढोडरेपाल, चिंगीतरई, समलूर, नारायणपाल, मधोता, केसरपाल, बस्तर आदि स्थानों पर मंदिर प्रतिमाएं, पुरावशेष ऐतिहासिक धरोहर है. आवश्यकता है तो इन्हें सहेजकर रखने की।
बस्तर नैसर्गिक सौदर्य का अथाह सागर है, समतल क्षेत्रवासियों के लिए जलप्रपात, गुफाएं, जंगल, घाटियॉं, वन्यप्राणी महज किताबी बातें हैं, वहीं बस्तर की सुरम्य वादियों में यह सब कुछ कदम-कदम पर सैलानियों का स्वागत करते हैं।
मिनी नियाग्रा के रूप में प्रसिद्ध चित्रकूट जलप्रपात, प्रपातों का समूह तीरथगढ, मनोहारी मिलकुलवाड़ा-हांदावाड़ा, अद्वितीय खुसेल, मलाजकुडुम, नोगोबागा, मुत्तेखड़का, चित्रधारा, कांगेर धारा, हाथीदरहा, मंडवा, फूलपाड़, सातधार चर्रेमर्रे, मल्गेर, बोग्तूम, लंकापल्ली जलप्रपात- सबकी अपने ढंग की अनूठी प्राकृतिक छटा है।
भूगर्भीय रहस्यों को समेटे विश्व के सातवें क्रम की बड़ी गुफा कोटमसर, अद्भूत आरण्यक गुफा, दण्डक, कैलाश, सकल नारायण, नड़पल्ली, उसूर, तुलार, रानीगुफा पर्यटकों को रोमांच का अनुभव कराती है।
बस्तर चारों तरफ घाटियों से घिरा हुआ है, प्रसिद्व केशकाल घाटी ,बंजाटिन घाटी, झीरम दरभा घाटी की सर्पीली सड़कें पर्यटकों को अनोखा आनंद देती है।
दंतेवाडा जगदलपुर, कांकेर, नारायणपाल, समलूर, चिंगीतरई, बड़ेडोंगर, गिरोला आदि प्रमुख धार्मिक स्थल हैं, जहॉं पर्वो को मनाने की विशिष्ट परंपराएं भी समाहित हैं. दंतेवाड़ा में होली पर्व पर गौर मार, आंवलामार, जगदलपुर में बस्तर का विश्वप्रसिद्व तथा सबसे लंबे 75 दिनों तक चलने वाला दशहरा पर्व, तुपकी का आनंद देते गोंचापर्व, बस्तर के धार्मिक, सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक गौरव गाथा के प्रतीक हैं।
बस्तर का वन सौंदर्य भी सैलानियों को आकर्षित करती है, बस्तर में ट्रेकिंग की अपार संभावनाएं हैं। स्थानीय लोग ट्रेकिंग प्रेमियों के लिए मददगार साबित हो सकते हैं।
कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान देश का प्रथम घोषित बायोस्फियर क्षेत्र है, यहॉं की जैव विविधता से वनवासी परिचित हैं, भैंसा दरहा का मगरमच्छ अभयारण्य, झुंड के झुंड में विचरण करते राष्ट्रीय पक्षी मयुर, राजकीय पक्षी घोषित पहाड़ी मैना तथा अन्य संरक्षित प्राणी सालवनों के द्वीप कहे जाने वाले बस्तर की शोभा एवं श्रृंगार हैं।
बस्तर की जंगलो के औषधि पौधों से वनवासी भली भांति परिचित हैं, यहॉं के वनवासी कठिन रोगों का इलाज वनौषधियों द्वारा चुटकियों में कर लेते हैं, उनके इस ज्ञान के संरक्षण एवं संवर्धन की आवश्यकता है।
इन सबके बाद भी बस्तर आज भीषण नक्सली कहर से जूझ रहा है. यहाँ की धरती खून से लाल हो रही है. धमाके की आवाज दहशत पैदा करता है. हैलीकाप्टर की आवाज एक और खूनी संघर्ष के बाद शवों का प्रतीक होता है. ऐसे में कलम के नोंक की स्याही और अपनी संवेदनाओं को बचाए रखने के लिये यहाँ साहित्यकार जूझ रहे हैं।
नदी बोलती है...अपनी बात- मनुष्य जब रोजमर्रा की जिंदगी से उब जाता है तब पर्यटन उसके ज्ञान, मनोरंजन, तफरीह के साथ-साथ जिज्ञासु मन को शांत करने का सबसे अच्छा उपाय होता है। यदि साधन सीमित हों, प्राकृतिक सौंदर्य को करीब से निहारना हो तो बस्तर हर कदम पर सैलानियों का स्वागत करता है। नैसर्गिक छटा के साथ-साथ अंधेरी गुफाओं का रहस्य, पुरातात्विक धरोहरों को समेटे सांस्कृतिक नगरियॉं, शैव, वैष्णव, बौद्ध तथा जैन धर्मों के प्राचीन सांस्कृतिक मिलन का अनूठा मिसाल बस्तर की कहानी खुद कहती है। बस्तर में विस्तारित घने वनप्रांतर में बांसों के झुरमुट, जिन्हें सूरज की किरणें भी भेद पाने में असहज महसूस करे, गगनचुंबी पहाड़ियॉं, जिनके घाटियों के दामन में अनेक खूबसूरत जलप्रपात, कल-कल निनादित नदियों का उद्दाम प्रवाह, झरने, चारों ओर फैली हरीतिमा और इनके बीच घास-लकड़ी से बने झोपड़ियॉं, जिनमें निवसित आदिम जीवनशैली - सैलानियों को चारुपाश में निबद्ध करती है।
बस्तर के वनवासियों में सांस्कृतिक धरोहर के रूप में जहॉं लोकगीत तथा लोकनृत्य मुख्य हैं, वहीं शिल्प कलाओं के अंतर्गत बस्तर राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान रखता है।
धातु शिल्प अंतर्गत लौह शिल्प में नगरनार क्षेत्र के कारीगरों की कारीगारी अद्वितीय है। वहीं कांस्य शिल्प में कोंडागांव तथा एर्राकोट दो प्रसिद्ध केंद्र हैं।
मृदा शिल्प अंतर्गत नगरनार क्षेत्र के हाथी देश-विदेश में बस्तर की शोभा बढ़ा रहे हैं, बस्तर का काष्ठ शिल्प तो बेजोड़ है।
इरिकपाल की कौड़ियों से बने वस्त्र कलाकृतियॉं अनूठे परंपरा के धरोहर हैं।
मोरपंख, सींग, साई कांटा, सीप, शीतल पौधा, घास आदि से भी सुंदर कलाकृतियॉं तैयार करने में वनवासी निपुण हैं।
सियाड़ी छाल की रस्सी से बनी चारपाई, तुम्बा से बनी कलाकृतियॉं भी पर्यटकों को मोहने में सक्षम है। पुरातात्विक दृष्टि से बस्तर अनुसंधान तथा शोध के लिये भरपूर अवसर देता है. बारसूर में चंद्रादिव्य मंदिर, मामा-भांजा मंदिर, बत्तीसा मंदिर, गणेशद्वय की विशालकाय प्रतिमा, नागमाता मंदिर, यत्र-तत्र बिखरे पुरावशेष, संग्रहालय की प्राचीन, अखंडित शिव-विष्णु की प्रतिमाएं शैव तथा वैष्णव धर्म के मानने वालों की सांस्कृतिक वैभवशाली नगरी होने का साक्ष्य देती है. भोंगापाल में बौद्ध चैत्यगृह तथा शिव मंदिर के पुरावशेष, कुरूसपाल से खुदाई में निकली महावीर स्वामी की पाषाण प्रतिमा, कोंडागांव के निकट सत्ताइस मंदिरों की श्रृंखला, अड़ेंगा में खुदाई से प्राप्त बत्तीस स्वर्ण मुद्राएं, जैतगिरी के निकट मुद्रा एवं मृदापात्रों के अवशेष, ढोडरेपाल, चिंगीतरई, समलूर, नारायणपाल, मधोता, केसरपाल, बस्तर आदि स्थानों पर मंदिर प्रतिमाएं, पुरावशेष ऐतिहासिक धरोहर है. आवश्यकता है तो इन्हें सहेजकर रखने की।
बस्तर नैसर्गिक सौदर्य का अथाह सागर है, समतल क्षेत्रवासियों के लिए जलप्रपात, गुफाएं, जंगल, घाटियॉं, वन्यप्राणी महज किताबी बातें हैं, वहीं बस्तर की सुरम्य वादियों में यह सब कुछ कदम-कदम पर सैलानियों का स्वागत करते हैं।
मिनी नियाग्रा के रूप में प्रसिद्ध चित्रकूट जलप्रपात, प्रपातों का समूह तीरथगढ, मनोहारी मिलकुलवाड़ा-हांदावाड़ा, अद्वितीय खुसेल, मलाजकुडुम, नोगोबागा, मुत्तेखड़का, चित्रधारा, कांगेर धारा, हाथीदरहा, मंडवा, फूलपाड़, सातधार चर्रेमर्रे, मल्गेर, बोग्तूम, लंकापल्ली जलप्रपात- सबकी अपने ढंग की अनूठी प्राकृतिक छटा है।
भूगर्भीय रहस्यों को समेटे विश्व के सातवें क्रम की बड़ी गुफा कोटमसर, अद्भूत आरण्यक गुफा, दण्डक, कैलाश, सकल नारायण, नड़पल्ली, उसूर, तुलार, रानीगुफा पर्यटकों को रोमांच का अनुभव कराती है।
बस्तर चारों तरफ घाटियों से घिरा हुआ है, प्रसिद्व केशकाल घाटी ,बंजाटिन घाटी, झीरम दरभा घाटी की सर्पीली सड़कें पर्यटकों को अनोखा आनंद देती है।
दंतेवाडा जगदलपुर, कांकेर, नारायणपाल, समलूर, चिंगीतरई, बड़ेडोंगर, गिरोला आदि प्रमुख धार्मिक स्थल हैं, जहॉं पर्वो को मनाने की विशिष्ट परंपराएं भी समाहित हैं. दंतेवाड़ा में होली पर्व पर गौर मार, आंवलामार, जगदलपुर में बस्तर का विश्वप्रसिद्व तथा सबसे लंबे 75 दिनों तक चलने वाला दशहरा पर्व, तुपकी का आनंद देते गोंचापर्व, बस्तर के धार्मिक, सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक गौरव गाथा के प्रतीक हैं।
बस्तर का वन सौंदर्य भी सैलानियों को आकर्षित करती है, बस्तर में ट्रेकिंग की अपार संभावनाएं हैं। स्थानीय लोग ट्रेकिंग प्रेमियों के लिए मददगार साबित हो सकते हैं।
कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान देश का प्रथम घोषित बायोस्फियर क्षेत्र है, यहॉं की जैव विविधता से वनवासी परिचित हैं, भैंसा दरहा का मगरमच्छ अभयारण्य, झुंड के झुंड में विचरण करते राष्ट्रीय पक्षी मयुर, राजकीय पक्षी घोषित पहाड़ी मैना तथा अन्य संरक्षित प्राणी सालवनों के द्वीप कहे जाने वाले बस्तर की शोभा एवं श्रृंगार हैं।
बस्तर की जंगलो के औषधि पौधों से वनवासी भली भांति परिचित हैं, यहॉं के वनवासी कठिन रोगों का इलाज वनौषधियों द्वारा चुटकियों में कर लेते हैं, उनके इस ज्ञान के संरक्षण एवं संवर्धन की आवश्यकता है।
इन सबके बाद भी बस्तर आज भीषण नक्सली कहर से जूझ रहा है. यहाँ की धरती खून से लाल हो रही है. धमाके की आवाज दहशत पैदा करता है. हैलीकाप्टर की आवाज एक और खूनी संघर्ष के बाद शवों का प्रतीक होता है. ऐसे में कलम के नोंक की स्याही और अपनी संवेदनाओं को बचाए रखने के लिये यहाँ साहित्यकार जूझ रहे हैं।
वाचाल हो जाती है...
प्रवाह के साथ,
कल-कल करती,
और धीमेपन में
गुनगुनाने लगती है.
यही है-
नदी के जीवंत होने का अहसास
जिससे जन्म लेते हैं
गीत संगीत
मानवता, सृजन, कल्पना,
और..
कोणार्क, ताज,
खजुराहों की परिकल्पना.
नदी के बोल तक
तिमिर का तिरोहण है तय,
और आलोक सदा रहेगा स्पंदित,
चाहे भीष्म की तरह आलोक-
बिंधा रहे
तिमिर-शर से,
और प्रतीक्षा करता रहे
उत्तरायण की.
लेकिन नदी
इस आलोक को
कभी मरने नहीं देगी.
नदी बोलती है...
नदी के बोल
जगाते हैं आशाएँ
गूँथते हैं ऋचाएँ- वाणी में.
और इस स्तुति को ही
नदी मान लिया हमने,
फिर स्थगित कर दी-एक परंपरा
नदी में स्तुति गान की.
नदी की पावनता-
उसके प्रवाह में है समाहित.
और स्वरुप है जननी का-
यही अधिष्ठात्री है कर्म की
प्रतिमान है- गति की,
प्रतीक है संकल्प की,
प्राण है- जिजीविषा की,
और...
अस्मिता है- मनुष्यत्व की,
फिर इस विस्तार में
कैसे समा सकती है- सिर्फ स्तुति.
नदी....
परे है उद्गम से
और.... सागर से भी,
नदी तो प्रवाह है
जो चट्टानों को तोड़,
धरती का सीना चीर कर
अपना पथ-
स्वयं निर्मित करती है.
कहीं निनादमय
कहीं मंथर,
लेकिन अविराम
और अविकल,
अन्यथा...
सीमित हो जाती,
गोमुख से निकलकर,
धरोहर बन जाती
किसी ताल या सरोवर का;
या विश्राम पाती
अथाह सागर के वक्ष स्थल में.
हो जाती मौन
और खो देती अपना अस्तित्व.
नदी....
जो अपने प्रवाह के कारण ही
नदी है.
निरंतर प्रवहमान...
इसीलिए नदी बोलती है
गुनगुनाती है
और
करती है
घोर निनाद भी...
समुद्र करती है गर्जन
लेकिन नदी...
करती है वार्तालाप
परिभाषित करती है-
मानव जीवन को.
नदी के तट पर बसे तीर्थ
इन तीर्थो पर पल्लवित पाखण्ड
रचते है षडयंत्र
मानव को मानव से
दूर रखने का.
नदी में प्रदूषण का विसर्जन
परिणाम है हमारी विकृत वृत्तियों का.
फिर भी नदी
अपवित्र नहीं होती
क्योंकि...
नदी में है प्रवाह,
और नदी तट के तीर्थ भी
जड़ नहीं हैं....
वरन्
पड़ाव हैं
मानवता के,
प्रवहमान यात्रा के.
जहाँ साक्षात गति गूंजती है,
और नदी की यही वाचालता
झकझोरने लगती है
मानव मन को.
देती है चिंतन
करती है बाध्य सोचने को,
आखिर...
नदी बोलती क्यों है.....
नदी...
देन है प्रकृति की,
तटनिष्ठ-
जिन पर आश्रित-
समाधिकार का भाव
इसीलिए....
कालिया नाग
यमुना से निष्काषित,
प्रतीक है-
जलराशि पर
एकाधिकार के क्षय का.
भारत की पावन धरा से
सिंधु-गंग उद्गमित हो,
पाक बंग में प्रवाहित है.
नदी की उदारता,
क्योंकि...
देश-राज्य की सीमाएँ-
अंकित नहीं धरती पर
वरन्
सिमटे हुए महज मानचित्र पर.,
और...
मानचित्र से पहले
है अस्तित्व- धरती का,
नदी का,
नदी में प्रवाह का.
इसीलिए नदी...
परे है.
इसी सीमा बंधन से.
अतीत से आगत तक
प्रवाहित है यह नदी-
देती है संदेश
सदा गतिशीलता का,
क्योंकि...
नदी बोलती है.
अतीत में इन्हीं तटों पर
बनते थे आश्रम,
पूर्ण-कुटीर,
और...
स्वागत करते थे
नदी के प्रवाह का,
आम्र, शाल और ताड़पत्रों के
वंदनवारों से...
इनके बीच
कर्म और साधना
करते थे परिष्कार
मानव का
और गढ़ते थे
सरयू तट पर राम को,
यमुना तट पर कृष्ण,
अर्जुन और एकलव्य को,
नदी के प्रवाह से ही
ओंकारेश्वर में शंकर
गढ़ दिए जाते थे
शंकराचार्य के रुप में,
और महिष्मति में
रेवा तट पर मंडनमिश्र
नदी के प्रवाह की ही देन है.
संपूर्ण कर्ममय मनीषा
जिसे
शायद इतिहास
कभी दोहरा सकेगा.
नदी बोलती है
अपने से,
अपनों से...
महानगरीय शब्द तो
फिसल जाते है,
लेकिन
नदी के बीच से बटोरे गए शब्द
बंध जाते हैं,
देते हैं उर्जा व प्राण-भाषा को.
इन्हीं शब्दों से रचित है
सरयू तट पर रामायण
गऊघाट पर सूरसागर
और वर्तमान में न जाने कितने गद्य और पद्य
साकेत और कामायानी के रुप में.
नदी बोलती है ......
नदी के बोल में
उसकी व्यथा नहीं
हमारी कथा होती है
जो सुनाती है
असमानता, अन्याय और
शोषण का गान.,
देती है सीख
और कहती है-
हे मानव
तुम वह बनो
जिसके लिए तुम अनुप्राणित हो,
सृजित हो, रचित हो.
तुम्हारा आज
कल से बेहतर हो.
तुम्हारा सृजन...
मानक बन सके- भविष्य के लिए
तुम बन सको- नींव का पत्थर
अघ्र्य बनो,
तुम्हारे अंतर में गूंजे-
कृष्ण की बाॅसुरी,
उच्चारित हो गीता,
करो जयघोष...
अपने भीतर के स्पंदन को,
अनमोल संवेदन को,
सार्थक कर दो.
बनो पाखी
और पंछी को दो उड़ान,
तुलसी का बिरवा बनकर
सुरभित कर दो मिट्टी का कण-कण.
इतना सब कुछ रहकर भी,
पीढ़ी दर पीढ़ी गुजार कर,
और...
इन पीढ़ियों के बीच
बहुत कम जन्म ले पाया मनुष्य.
जहाँ मानव संज्ञा मात्र न होकर
मानवता का हो स्पंदन.
और नदी के ये बोल
मुखरित हैं उस की कल-कल में.
उस दिन.
यह सब सार्थक होगा
और
इसीलिए..
नदी बोलती है,
अतीत से वर्तमान तक,
वर्तमान से भविष्य तक
बोलती ही रहेगी...
क्योंकि...
नदी बोलती है.
यूनिकवि- डॉ॰ सुरेश तिवारी
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
9 कविताप्रेमियों का कहना है :
पूरी कविता बहुत सुन्दर है. विशेषकर निम्न पंक्तियाँ: नदी तो प्रवाह है/जो चट्टानों को तोड़/धरती का/सीना चीर कर/अपना पथ/स्वयं निर्मित करती है/कहीं निनादमय/कहीं मंथर/लेकिन अविराम/और/अविकल/अन्यथा/सीमित हो जाती/गोमुख से निकलकर/धरोहर बन जाती/किसी ताल या सरोवर का/या विश्राम पाती/अथाह सागर/के वक्ष स्थल में/हो जाती मौन/और खो देती अपना अस्तित्व..
नदी बोलती है ...सच...गुनगुनाती भी है ...!!
नदी के प्रवाह और स्वाभाव को रेखांकित करती रचना ...
असाधारण शक्ति का पद्य, बुनावट की सरलता और रेखाचित्रनुमा वक्तव्य सयास बांध लेते हैं, कुतूहल पैदा करते हैं। कवि का सत्य/प्रकृति से साक्षात्कार दिलचस्प है जिसका जरिया नदी के रूप में हाजिर है। यह रचना, दृष्टि की व्यापकता के चलते हर वर्ग में लोकप्रिय होगी।
नदी बोलती है...
नदी के बोल
जगाते हैं आशाएँ
गूँथते हैं ऋचाएँ- वाणी में.
jaise dharaprvah nadi bolti hai vaise hi yh kvita bhi dharaprvah mukhar hoti hai.
सुंदर कविता....शब्दों और विचारों का सुंदर प्रवाह .
बधाई..सुरेश जी..
Is kavita ne... meri ek chooti si kavita ko sampoorn bana diya...sheegra hi hindygm ko post karoonga....Shabash...ye hai mati ki mahak...
safarchand
अति भव्य प्रस्तुतीकरण
पूरी कविता ही सुन्दर है लेकिन मुझे शुरुआत बहुत पसंद आई.
नदी बोलती है...
वाचाल हो जाती है...
प्रवाह के साथ,
कल-कल करती,
और धीमेपन में
गुनगुनाने लगती है.
यही है-
नदी के जीवंत होने का अहसास
कोटिशः आभार
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