आग-बबूला होकर भी
चुपचाप
बैठी हूँ अपने पुरूष-मित्र के विरह में
भीग रहे मेरे कपोल आँसुओं से
पायल बज रही उस छिनाल की
बेशरम चले जा रहे दोनो
सुख-चैन की पगडंडियों पर
सिहर-सिहर जाती हूँ
उसे लाज नहीं आती
क्यों छिन लिया उसने मेरा मित्र ?
उसकी यह हिम्मत !
कि मुझे उलझा गई कांटों में
सोंचती हूँ तो
खून में
कौंध जाती बिजली
कर देती क्षण भर के लिये
मेरा जीवन-प्रवाह अवरूद्ध
वह दीवाल बन कर आड़े आती कलमुई !
मैं छप्पर बन कर
दोस्त को बचाना चाहती उससे
पर अब बादलों की गड़गड़ाहट में
लय टूट गया
क्या हुआ कि
पलक झपकते
उजड़ गई मेरी दुनियाँ
झगड़ी उससे मैं;
रिश्तों के ड्रेसिंग-टेबल से
कान उमेठ कर
उसे दूर करना चाहा तो
बिखर गया लोशन मेरा
और वह सजाती रही भाल कुमकुम से
कुलटा !
क्यों नहीं समझती कि वह तो पराई है
क्या हक बनता है उसका ?
वह है
सिर्फ़ उसकी पत्नी !
-हरिहर झा
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11 कविताप्रेमियों का कहना है :
क्या हक बनता है उसका ?
वह है
सिर्फ़ उसकी पत्नी !
वाह ! क्या रचना है .. पर सही है !!
जोरदार रचना...एक सुंदर भाव को समेटे हुए...बधाई..
eएक नयी अभिव्यक्ति मे सुन्दर रचना के लिये आभार्
एक नई सोच के लिए बहुत बहुत बधाई, धन्यवाद
विमल कुमार हेडा
एक नारी की दर्द भरी अभिव्य्क्ति वह भी एक पुरुश द्वारा वाह भई..बहुत सुंदर। हरिहर जी बधाई ।
नारी पर प्रखर अभिव्यक्ति की है . बधाई .
काबिल-ए-तारीफ़!
वह है
सिर्फ उसकी पत्नी !
--वाह क्या अंत किया है कविता का.
-देवेन्द्र पाण्डेय।
विषय अच्छा लगा |
बधाई|
अवनीश तिवारी
ekdum nayae najariyae sae socha hae.bahut hi khoobsoorst prayas hae yae.vah vah vah.dr.jyoti
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