एक संघर्ष निरंतर
हाथ-पांव नहीं थकते
थक जाता है,
मन भी कभी-कभी.
तेज बारिश में
तन ही नहीं भीगता,
भीग जाता है
मन भी कभी-कभी.
गर्दिश के गर्म,
रेतीले दिन
फफोले-से
उठा देते हैं बदन पर.
ठंडी हवा का व्यवहार भी
छोड़ जाता है-
भीतर तक कंपकपी!
निर्माण की राह पर चलते
जलते पांवों से लिपटी
कच्ची सड़क की मिट्टी
साथ नहीं देती दूर तक.
धूल भरी हवाएं
आँखों में घुसकर
रोक लेती हैं रास्ता हर बार.
घुटने नहीं टिकाने हैं तो
संघर्ष ज़रूरी है,
यह एक तयशुदा मज़बूरी है.
यूनिकवि- सुधीर सक्सेना 'सुधि'
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8 कविताप्रेमियों का कहना है :
शुरुआत में कविता बहुत अच्छी लगी! बाद में लगा कविता की पूरी दिशा बदल दी आपने.....
घुटने नहीं टिकाने हैं तो
संघर्ष ज़रूरी है,
यह एक तयशुदा मज़बूरी है.
सुन्दर अभिव्यक्ति है आभार्
अच्छे अच्छे बिम्बों के प्रयोग से रचना काफी सुदृढ़ बन गई है। "ठंडी हवा का व्यवहार भी छोड़ जाता है- भीतर तक कंपकपी!" और तब घुटने न टिका कर और संघर्षरत हो जाने को आतुर कवि .. मुझे तो शुरु से अंत तक रचना अत्यंत अच्छी और उच्च कोटि की लगी।
तेज बारिश में
तन ही नहीं भीगता,
भीग जाता है
मन भी कभी-कभी.
sarl shabd hai kitu puri kvita me apna rbhav chod jate hai .
achhi kavita badhai.
उत्कृष्ट रचना है ,लक्ष्य पाने के लिए जो संघर्ष करता है मंजिल उसे मिलती है .संदेश केलिये आभार
घुटने नहीं टिकाने हैं तो
संघर्ष ज़रूरी है,
यह एक तयशुदा मज़बूरी है.
घुटने नहीं टिकाने हैं तो
संघर्ष ज़रूरी है,
यह एक तयशुदा मज़बूरी है.
sundar kavy rachana.
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