विस्तार जहां होता है खत्म
वहां होती है सीमा..
पर खत्म तो दृष्टी होती है
विस्तार नहीं !
विस्तार अनंत है।
’अनंत’ शब्द बहाना है
अंत ना खोजने का..
तो ‘अनंत’ स्वयं है एक सीमा
या कहें सीमा में है अनंत !
सीमाहीन कुछ भी नही
स्वयं सीमा के अलावा..
बस सीमा,सीमाहीन है !
खुली आंखों की सीमा है आसमान,
बन्द आंखों से देखे जा सकते है
उतने आसमान..
जितनी आती हो गिनती !
गिनती की सीमा नहीं..
पर गिनती आने की सीमा है !
वो कहती है.. करती हूं तुम्हे प्यार.
जितना तुम सोच भी नहीं सकते!
अर्थात
मेरी सोच के खत्म होते ही
शुरु होने लगती है
उसके प्यार की सीमा..
और सीमा के पार क्या है?
शायद नफरत..!
सोचता हूं, ब्रम्हांड के बाहर क्या है
किसके अन्दर है ब्रम्हांड ?
वो बाहर वाली वस्तु भी
कुछ के अन्दर ही होगी !
तो क्या है वो बाह्यतम सीमा..
जिसके अन्दर है सब कुछ !
यह कल्पना की सीमा है..
अगर सीमा कुछ नहीं होती
तो वो काल्पनिक है..
पर कल्पना की तो सीमा है ना !
दर्द की सीमा है मौत,
मौत की सीमा जीवन..
पर दर्द के लिये
ज़रूरी है जीवन होना..!
सोचता हूं,
गोल है सीमा
और हम सब
घेरे हुये हैं सीमा को
चारों तरफ से !
सीमा स्वयं नहीं होती
वो गढी जाती है..
अपनी ज़रूरतों के हिसाब से..
सीमा गढ लेने के बाद
हम रह जाते हैं एक बिन्दू !
और सीमा के बाहर से
शुरु होता है वास्तविक विस्तार।
चाहे कुछ भी हो..
सीमा,
दुनिया की सबसे ज्यादा
विस्तारित की जा सकने वाली वस्तु है !
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
सीमा स्वयं नहीं होती
वो गढी जाती है..
अपनी ज़रूरतों के हिसाब से..
सीमा गढ लेने के बाद
हम रह जाते हैं एक बिन्दू !
sach....bahut gahra sach likha hai
bahut achhi rachna
bahut achi aur arthpurn rachna .
बहुत अच्छी कविता है!
achhi kavita hai
bahut sundar
सोचता हूं, ब्रम्हांड के बाहर क्या है
किसके अन्दर है ब्रम्हांड ?
वो बाहर वाली वस्तु भी
कुछ के अन्दर ही होगी !
तो क्या है वो बाह्यतम सीमा..
बहुत सुंदर कविता है बधाई स्वीकार करें
अमिता
yeh kavita kahaan! yeh to darshan shaastra ka potha hai.
दर्द की सीमा है मौत,
मौत की सीमा जीवन..
पर दर्द के लिये
ज़रूरी है जीवन होना..!
सोचता हूं,
गोल है सीमा
और हम सब
घेरे हुये हैं सीमा को
चारों तरफ से !
एक सुन्दर कही जाने वाली कविता कही आपने. मुबारकबाद देना चाहूँगा.
भावपूर्ण कविता ने सीमा का अनंत बना दिया
सुन्दर रचना
सच है कि मनुष्य अपनी सुविधा के अनुसार चीजें बदल लेता है फिर वो कपड़े हो या सीमा
तुम्हारी इस सीमा को तारीफ़ों को "सीमाहीन" कर दिया है, अब सोचता हूँ कि तारीफ़ों की सीमा भी दुनिया की सबसे ज्यादा विस्तारित की जा सकने वाली वस्तु हो सकती है। इसी तरह लिखते रहो,क्योंकि मैं तो मानता हूँ कि कविताएँ बस खेल नहीं है, कविताओं का एक सामाजिक सरोकार भी है।
बधाई स्वीकारो।
-विश्व दीपक
*तुम्हारी इस सीमा "ने" तारीफ़ों को सीमाहीन कर दिया है।
थोडी मुश्किल...उलझी हुयी...पर सुंदर रचना..
वो गढी जाती है..
अपनी ज़रूरतों के हिसाब से..
सीमा गढ लेने के बाद
हम रह जाते हैं एक बिन्दू !
बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति ।
shandar likha hai,
sach hi hai seemaon ke dayare mein bandh kar manushya bauna ho jata hai, vyaktitva ka vikas hi seemaon ke pare hai,
kavita darshnikta se paripurna hai.
विपुल जी आपकी सीमा पढकर तो मै खुद के नाम पर ही सोचने को मजबूर हो गई हूं । अकसर अपने नाम का मतलब जानना चाहा है-गहराई में । लेकिन जिस गहराई से आपने समझाया शायद उस सीमा के पार अब मै सोचने पर मजबूर हूं । पता नही क्या लिख रही हूं , लेकिन आपकी कविता बहुत सुन्दर है बधाई
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