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Tuesday, May 05, 2009

गोविंद गुलशन का मुकाम नहीं आसमान से पहले


दोस्तो,

पिछले 1 महीने से आप पढ़ रहे थे युवा कवि हरे प्रकाश उपाध्याय की कविताएँ। आज मैं ग़ज़लगों गोविन्द गुलशन की चंद ग़ज़लें लेकर उपस्थित हूँ।


कवि नाम- गोविन्द गुलशन
जन्मतिथि- 7 फरवरी 1957 (अनूपनगर)
शिक्षा- कला-स्नातक
प्रकाशित कृति- जलता रहा चराग़ (ग़ज़ल-संग्रह)
उपलब्धियाँ-
  • 'युग प्रतिनिधि सम्मान' हिन्द प्रकाशन समूह द्वारा

  • 'सारस्वत सम्मान' समन्वय हिमाचल द्वारा

  • 'अग्निवेश सम्मान' नीमा द्वारा

  • 'साहित्य शिरोमणि सम्मान' प्रतिभा प्रकाशन जालौन द्वारा

  • 'इशरत किरतपुरी सम्मान' ग़ाज़ियाबाद जर्नलिस्ट क्लब द्वारा

संप्रति- विकास अधिकारी, नेशनल इंश्योरेंस कम्पनी, ग़ाज़ियाबाद
संपर्क- 'ग़ज़ल', 224, सेक्टर-1, चिरंजीव विहार
ग़ाज़ियाबाद- 201002
फोन- 0120- 2766040
मोबाइल- 9810261241

ग़ज़ल-1

मेरा मुक़ाम नहीं आसमान से पहले
परिन्दा चीख़ रहा है उड़ान से पहले

है शोला ये भी जला देगा राख कर देगा
तू ख़ूब सोच-समझ ले गुमान से पहले

क़ुसूरवार वही है ये कौन मानेगा
सुबूत भी है ज़रूरी बयान से पहले

यक़ीन कैसे दिलाऊँ कि मेरे हाथों में
कभी गुलाब रहे थे कमान से पहले

मैं उसके घर तो चला जाऊँगा मगर साहिब
पड़ेगा राह में मक़तल मकान से पहले

न मिल सका न मिलेगा कभी कहीं गुलशन
सुकून तुझको खुदा की अमान से पहले

ग़ज़ल -2

कौन अब कैसे वफ़ाओं का सिला याद रखे
दर्द इतने हैं कोई किसकी दवा याद रखे

जो पसीने की इबारत पे यक़ी रखता है
वो भला कैसे हथेली पे लिखा याद रखे

अब नई नस्ल है मसरूफ़ नये शोशों में
किसलिए क्यूँ वो बुज़ुर्गों का कहा याद रखे

जिसके सीने से निकलता है निरंतर लावा
मैं दिया हूँ उसी मिट्टी का हवा याद रखे

अब मुहब्बत भी गुनाहों में गिनी जाती है
हर गुनहगार यहाँ अपनी सज़ा याद रखे

राब्ता है मेरे `गुलशन' का ख़िज़ाँ से क़ाइम
क्या ज़रूरत है बहारों का पता याद रखे

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12 कविताप्रेमियों का कहना है :

अवनीश एस तिवारी का कहना है कि -

एक से बढ़कर एक हैं सब शेर |


अवनीश तिवारी

Divya Narmada का कहना है कि -

गुलशन में हर रंगों-बू के गुल हैं बहुत से लासानी.

किसे सराहें, किसको छोडें, मुश्किल यही परेशानी..

गौतम राजऋषि का कहना है कि -

शुक्रिया शैलेश जी हरे प्रकाश जी इन दो नायाब ग़ज़लों के लिये...
"यक़ीन कैसे दिलाऊँ कि मेरे हाथों में/कभी गुलाब रहे थे कमान से पहले" दिल के बेहद करीब लगा ये शेर...
और शायर की इस उद्‍घोषणा पर कि "जिसके सीने से निकलता है निरंतर लावा/मैं दिया हूँ उसी मिट्टी का हवा याद रखे" दिल से वाह निकलती है

manu का कहना है कि -

यक़ीन कैसे दिलाऊँ कि मेरे हाथों में
कभी गुलाब रहे थे कमान से पहले
&
जिसके सीने से निकलता है निरंतर लावा
मैं दिया हूँ उसी मिट्टी का हवा याद रखे


पूरी की पूरी दोनों गजलें एकदम लाजवाब,,,,,,,,,
पर ये दो शेर ,,,,
न जाने कितने कहर ढहा रहे हैं,,,,, इन का कोई जवाब नहीं,,,गौतम जी की खालिस पसंद से हमेशा ही हमारी पसंद मेल खाती है,,,

संगीता पुरी का कहना है कि -

अच्‍छी रचनाएं हैं ..

मुकेश कुमार तिवारी का कहना है कि -

शैलेष जी,

पिछले माह श्री हरेप्रकाश जी की बेहतरीन कवितायें पढवाने के लिये और इस माह की शुरूआत उतनी ही अच्छी और चुनिंदा गज़लों के साथ करने के लिये हिन्द-युग्म को साधुवाद।

मैं श्री मनु जी, और श्री गौतम राजरिशी जी से पूरा इत्तफा़क रखता हूँ कि बहुत ही उम्दा शेर कहें श्री गोविन्द गुलशन जी ने दोनों गज़लों में। मेरे मिजाज से बहुत करीब यह शेर लगे :-

(१) जो पसीने की इबारत पे यक़ी रखता है
वो भला कैसे हथेली पे लिखा याद रखे

(२) अब नई नस्ल है मसरूफ़ नये शोशों में
किसलिए क्यूँ वो बुज़ुर्गों का कहा याद रखे

gazalkbahane का कहना है कि -

अब ग़ज़ल चुनने वाला होकर क्या कमेन्ट करूं,भाई गोबिन्द गुलशन को आप तक पहुंचाने का गुनह्गार बकलम-खुद मैं ही हूं\
श्याम सखा

Sunil Kumar Pandey का कहना है कि -

जो पसीने की इबारत पे यक़ी रखता है
वो भला कैसे हथेली पे लिखा याद रखे

कर्मण्ये वा अधिकारस्ते...... की इतनी सरल व सटीक व्याख्या पहले नहीं देखी....पढी....
कर्मयोगी मसिजीवी को साधुवाद...

रश्मि प्रभा... का कहना है कि -

मेरा मुक़ाम नहीं आसमान से पहले
परिन्दा चीख़ रहा है उड़ान से पहले
.........बहुत ही बढिया

Ria Sharma का कहना है कि -

क़ुसूरवार वही है ये कौन मानेगा
सुबूत भी है ज़रूरी बयान से पहले

लाज़वाब ग़ज़ल की बहुत बधाई !!!

rachana का कहना है कि -

क़ुसूरवार वही है ये कौन मानेगा
सुबूत भी है ज़रूरी बयान से पहले

यक़ीन कैसे दिलाऊँ कि मेरे हाथों में
कभी गुलाब रहे थे कमान से पहले
बहुत ही खास है ये दो शेर .
इतनी सुंदर गजल पढ़वाने का सुक्रिया
rachana

rachana का कहना है कि -

दूसरी गजल के दो शेर क्या कहने
जो पसीने की इबारत पे यक़ी रखता है
वो भला कैसे हथेली पे लिखा याद रखे
अब नई नस्ल है मसरूफ़ नये शोशों में
किसलिए क्यूँ वो बुज़ुर्गों का कहा याद रखे

कितना सच है
सादर
रचना

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