झिलमिलाती प्रकाश झूमरे,
कर्कस संगीत लहरे ,
दर्जनों इत्रों से निर्मित बदबू ,
सभ्य चहरो के मुखौटे ,
मुखौटों पर भी नकली हंसी ,
तस्तरी विश्रामघाट आसीन
उदर-श्मशान-राही व्यंजन ,
रंग बिरंगे वस्त्र ,
उजले-तन काले-मन ,
बिखरे हुए थे उस स्नेहभोज में |
ग्रास झपट पात्र भरते
चरते विचरते
टूट पड़े थे उस गिद्ध भोज में |
उपेक्षित सा मैं
हाथ में प्लेट
खोजी नजरे,
वस्त्र बचाता
नाचता-लचकता
असहाय खडा था उस
नृत्य भोज में |
भक्षी एक दुसरे को देख
गुर्रा नही मुस्करा रहे थे
यही अंतर सभ्यता
मशाल जलाये था
उस खोज भोज में |
तभी ..
एक परिचित मिले :
उखडे उखडे से क्यूँ घूम रहे हो
क्या खो गया जिसे तुम ढूंढ रहे हो
मैंने कहा :
भोज समर के योद्धाओं के मुख पर
तृप्ति का अनुनाद ढूंढ रहा हूँ
और छप्पन भोगो की महफ़िल में
एक अदद स्वाद ढूंढ रहा हूँ
कुछ और कहता उससे पहले
बोल पड़ी एक द्वार भिखारन :
बाबू
क्या कभी
कुछ पल
भूखे रहे हो ?
भूख जो महज
एक शब्द है तुम्हारे लिए
उसे सहे हो ?
जब भूख की आंधी आती है तो,
अच्छा-बुरा
ईमान-धरम
अपना-पराया
सब कुछ उड़ा ले जाती है |
टूट जाते है सब बंधन
कड़ी बस एक
पेट और मुहँ की
शेष रह जाती है |
बच्चो के पेट की ठंडक खातिर
अपना जिस्म जलाना पङता है |
खुद का तन नुचवाने को
गिद्धों को बुलाना पड़ता है |
उस रात की फिर
सहर नहीं होती,
हर रात
कहर होती है |
छोटो की भूख मिटाने को
माँ, जब बड़की को
बेच कर आती है |
तुम्हे क्या मालूम
भूख के मारे
कैसे जीते है |
पेट पर कपडा बांध
राख घोल कर पीते है |
बाबू चाहे जितना खोजो
स्वाद न तुन्हें मिल पायेगा |
ढूढ़ सको तो भूख को ढूंढो
स्वाद खुद चला आयेगा |
*
विनय के जोशी
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8 कविताप्रेमियों का कहना है :
Vinay Ji,
mujhe bhi kisi aise hi bhoja ki yaad dilaa di aur peT mem chuhe koodane lage.
maja aaya, bahut majaa aayaa.
विनय जी,
सामाजिक विद्रूप और मानवीय संवेदनाओं को रेखांकित करती हुई अच्छी कविता। परन्तु भिखारिन का भाषण अस्वाभाविक होने से खटकता है। कवि स्वयं या किसी अन्य माध्यम से यह कहलवा सकता है।
अबिव्यंजना अच्छी है।
सादर
अमित
बाबू चाहे जितना खोजो,
स्वाद न तुमको मिल पायेगा
ढूंढ सको तो भूख को ढूंढो,,,
स्वाद तो खुद ही आ जाएगा,,,,,,,
बहुत सही कहा है,,,,,
आजकल लोगों की जबान पर भूख देखि जाती है ,,,या आँख में,,,,
पेट में नहीं,,,
माननीय, अमित जी,
सही कहा आपने, अस्वाभाविक ही नहीं और भी कई कमियां है, ये कविता लगभग २५ वर्ष पूर्व लिखी गई थी, लेकिन कही भी प्रकाशनार्थ न भेजी जा सकी, पुराने पृष्ठों पर नजर डालते, इसका कच्चापन ही खासियत लगी तो मूल स्वरूप में ही आपकी सेवा में प्रस्तुत कर दी |
सादर,
विनय के जोशी
दर्जनों इत्रों से निर्मित बदबू ,
सभ्य चहरो के मुखौटे ,
मुखौटों पर भी नकली हंसी ,
तस्तरी विश्रामघाट आसीन
उदर-श्मशान-राही व्यंजन ,
रंग बिरंगे वस्त्र ,
उजले-तन काले-मन ,
बिखरे हुए थे उस स्नेहभोज में |
कविता पढ़नी शुरू की तो लगा विनय जी भी हास परिहास का सामान लाये हैं ,पर अंत में वहीँ पहुंचे हैं,
जहां इनका मन सुकून पाता है, अपने देश की गरीबी और भुखमरी को देखते और जीते हुए अपनी कविता समाप्त करते हैं ,
कुल मिलाकर अच्छी संवेदनशील कविता |
कविता को भाव की द्रष्टि से पढ़ा तो दिल को छू गई .भूख ही मीठी होती है सही बात है .
सादर
रचना
काफी गूढ़ भावों को शब्दों में उकेरा है.....
बच्चो के पेट की ठंडक खातिर
अपना जिस्म जलाना पङता है |
खुद का तन नुचवाने को
गिद्धों को बुलाना पड़ता है |
उस रात की फिर
सहर नहीं होती,
बहुत ही विद्रुप सच्चाई है
विनय जी बधाई
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