क्यूँ दशानन रावण को सब कहते हैं
उसके धड़ पर दस मुख ही क्यों रहते हैं
नही समझ में हमको कभी भी आता था
न ही हमको कोई यह समझाता था
पहन मुखौटा शातिर लोग रहते हैं
चेहरे पे चेहरे लगा कर मिलते हैं
देखा, जाना, सुना, पढ़ा और समझा था
कई दफा इस बात को खुद परका था
फिर हुआ सामना मेरा इक हैवान से
जब मैने की तुलना उसकी इनसान से
हुआ दंग मैं देख कर उसके चेहरे
एक नही था, कई-कई थे उसके चेहरे
जब मिलता था वह किसी भी शख्स से
खूब योजना बना के चलता दिमाग से
हर बार दिखाता था वह अपना नया रंग
चेहरा नया, नया रूप और नया ढ़ंग
इक-इक, दो-दो नही, कई थे उसके रंग
हर इक पर इक रंग जमाता, होता जिसके संग
जिस पर उसका जो भी इक रंग था चढ़ता
वह उसको उस रंग का था ही समझता
लेकिन जिसने भी जाना उसको करीब से
देख के होता दंग चढ़े इतने रंग तरतीब से
बात एक थी और बड़ी हैरानी की
देनी होगी दाद उसकी शैतानी की
जिस पर अपना जो भी रंग था वह जमाता
किसके संग, बात कौन सी, कौन मुखौटा
याद सभी कुछ उसको रह्ता था तरतीब से
जब जब भी मिलता था वह किसी को फिर से
करता था वह बात वही और वही मुखौटा
रहती थी उसे बात याद हो कोई मुखौटा
जिससे मिलता वह लगा कर जो चेहरा
लगता सरल इंसां को वह असली चेहरा
देख देख हैरान मैं उसके कितने चेहरे
हर चेहरे पर नये चटकते रंग भरे
फिर बात समझ में आई, यह रावण का भाई
’काली विद्या’ इसने भी है कहीं से पाई
रावण के भी तो थे दस दस चेहरे
दस मुख से था मतलब शायद दस चेहरे
दशानन का तब मैने यह मतलब जाना
दस मुँह से दस लोगों से दस बातें करना
दस चेहरों की क्षमता को रखने वाला
इसीलिए कहते रावण को दस मुख वाला
मुझको भी दिखलाया इक दिन उसने रंग
किया मौत का तांडव उसने मेरे संग
देख के उसके करतब था यमराज लजाया
मैं ही हूँ प्रह्लाद भक्त वह जान न पाया
हिरण्यकश्यप सा उसने था जाल बिछाया
तड़पा कर मुझे मारने का जतन लगाया
भूल गया वह भक्तों का रक्षक भगवान
जन्म मृत्यु पर है नही उसका विधान
अंत एक दिन उस राक्षस का होना था
तड़प तड़प कर उसको भी तो मरना था
लेकिन धरती पर उसने जो छोड़े अंश
घूम रहे हैं दुनिया में वह बन कर कंस
कैसे मिले छुटकारा इस धरती को इनसे
जिससे सच्चे लोगों का फिर जीवन हरषे
कवि कुलवंत सिंह
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3 कविताप्रेमियों का कहना है :
ज्ञान-कर्म दस इन्द्रियाँ, बेलगाम यदि मीत.
लगते दश रथ दौड़ते, मन होता भयभीत.
दश इन्द्री जब भोगकर, तनिक न होतीं तृप्त.
दशमुख सब का भाग खा, रहता 'सलिल' अतृप्त.
तृप्ति हेतु अर्पित करें, स्वजन स्नेह सह पात्र.
तभी आत्मा तुष्ट हो, जग कहता दश गात्र.
कुलवंत सिंह जी,
बात गले उतरती है, जो कुछ आपने कहा है उस इंसान के बारे में जो आज दशानन सा है या उसका अंशमात्र है, जरूर है कि वह हम सबमें छिपा बैठा है और अपनी बारी का शिद्दत से इंतजार कर रहा है.
आपने इस कविता के माध्यम से उस छिपे हुये चेहरे को बेनकाब किया है. दरअसल मैं भी इस बात में ऐतबार रखता हूँ कि
" हर एक चेहरे में छिपे हैं कई चेहरे
मैं किसीके देखूं और कोई मेरे "
साधुवाद.
मुकेश कुमार तिवारी
बहुत सुंदर रचना है ।
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