प्यार तुम्हारा
दौलत सारे जंहा की
मुट्ठी में ,
अब वही
रेत सा,
उँगलियों के
झरोखों से
रिसा जाता है
लगाव तुम्हारा,
नाचता पारद
करतल पर,
अब वही
कपूर बन
हवा में
घुला जाता है.
वो एक अहसास
कि तुम गैर नहीं
और मैं तुम्हारे
बगैर नहीं,
उम्र की आग में
राख हुआ जाता है.
प्यार - मनुहार
अर्पण-समर्पण
गैर-बगैर
सभी सतही बातें है
वो तो कुछ और ही है
जो बांधे है तुमसे
अबूझ
अनकहा
अपरिभाषित
परे है जो,
वेदना-सवेदना
प्रेषण-संप्रेषण
प्रणय-परिणय
प्राप्य-अप्राप्य परिधि से
सांस हो तुम,
जो शारीर को
शव से भिन्न करती है
पल पल साथ
फिर भी विस्मृत,
लेकिन जब घुटन होती है तो,
तो...... तुम्हे
खीच कर सीने में
भरने को मन करता है
*
विनय के जोशी
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9 कविताप्रेमियों का कहना है :
अद्भुत, प्रेम मयी हो कर लिखा गयी सुन्दर ,संवेदनशील रचना
शब्द संचयन हमेशा की ही तरह लाज़वाब !!!
बहुत बधाई विनय जी !!!
वो एक अहसास
कि तुम गैर नहीं
और मैं तुम्हारे
बगैर नहीं,
उम्र की आग में
राख हुआ जाता है.
bahut bahut badhiya ,rumaani kavita .aapke man ka ek aur moti hum sab ki nazar ho hi gaya aabhar aapka
भावप्रवण रचना
विनय जी,
शब्द चयन, संयोजन लाजवाब !!
शब्दों के मितव्यय के बाद भी रचना बहुत प्रभावी है और अपना संदेश, बाखूबी पाठक तक पहुँचाती है।
बधाईयाँ,
मुकेश कुमार तिवारी
वेदना-सवेदना
प्रेषण-संप्रेषण
प्रणय-परिणय
प्राप्य-अप्राप्य परिधि से
सांस हो तुम,
जो शारीर को
शव से भिन्न करती है
पल पल साथ
फिर भी विस्मृत,
लेकिन जब घुटन होती है तो,
तो...... तुम्हे
खीच कर सीने में
भरने को मन करता है
ये पंक्तिया बहुत मन के करीब लगी
सुन्दर रचना
सदा ही की तरह सुंदर लिखा है विनय जी,,,,,
नाचता पारद करतल पर ,और अब वोही कपूर बन हवा में उदा जाता है,,
ये तो बहुत ,,,बहुत ही पसंद आया
और,,,
सांस हो तुम,,,,जो शरीर को शव से अलग करती है,,,,
लाजवाब,,,,,,,,,
badiya hai sir
वो तो कुछ और ही है
जो बांधे है तुमसे
अबूझ
अनकहा
अपरिभाषित
परे है जो,
वेदना-सवेदना
प्रेषण-संप्रेषण
प्रणय-परिणय
प्राप्य-अप्राप्य परिधि से
सांस हो तुम,
जो शारीर को
शव से भिन्न करती है
क्या बात है विनय जी बहुत खूब लिखा है
सादर
रचना
prem se poorn,pyaari rachna
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