मैं एक किताब सी
खुलती हूँ तुम्हारे सामने
तुम पढ़ते हो एसे
जैसे पढ़ी जाती है
रद्दी, कबाडी को बेचने
से पहले
तुम्हारी निगाह की चाह में
चन्द किरणों से सजती हूँ
परन्तु तुम देखते हो इस तरह
ज्यूँ बेवक़्त आये मेहमान को
टालने के किये
उचटी निगाह से घड़ी
देखता है कोई
चाहत की शबनम में
न भीगा मन ये कभी
जो कभी नेह जोड़ा
तो इस तरह
दो वक़्त की रोटी के
बदले
ले लेता है आबरू मालिक जैसे
चाहत के शब्द
भावना के वस्त्र पहन
तुम्हारे आगे-पीछे
डोलते हैं
पर तुम सुनते हो एसे
जैसे गाड़ी के भीड़ वाले डिब्बे में
पसीना पोछता
सुनता है भिखारी का गीत
कोई
अभिलाषा थी
कि तुम अक्षर-अक्षर पढ़ो
मुझे
जैसे पढ़ा होगा
पहली नौकरी का नियम नामा
सुनो मुझे अजान और भजन
की तरह
देखो ऐसे जैसे सूखे खेत
निहारते हैं बादल
मैने दर्शाई जो इतनी इच्छा
शब्दों के लावे मुझ पर
बरसते रहे
रूह झुलस गई
मासूम सी अभिलाषा
कोने में दुबक गई
स्वयं मैं
अपनी सोचों का हवन कुण्ड बन गई
भूल गई थी मैं
कि औरतों को ख्वाहिश का भी
अधिकार नहीं
कवयित्री-रचना श्रीवास्तव
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24 कविताप्रेमियों का कहना है :
गीता रामायण समझ, जिसे रहा मैं बाँच.
उसे न हीरे की परख, चाह रही वह काँच.
दोहा-चौपाई सरस, गाया मैंने मीत.
नेह निभाने की नहीं, उसे सुहाई रीत.
नहीं भावना का किया, दो कौडी भी मोल.
मौका पाते ही लिया, छिप जेबों को तोल.
केर-बेर का संग यह, कब तक देता साथ?
जुडें नमस्ते कर सकें, अगर अलग हों हाथ.
त्याग-शांति की मूरत हो, धीरज की खान।
करे सम्मान नारी का, वो है महान।
नित कर तू सुधार, नहीं बन लाचार।
बढे बगिया की खुशबू, सुमन का निखार।।
रूप तेरे हजार, तू सृजन का आधार।
माँ की ममता है तुझमें, बहन का भी प्यार।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
तुम पढ़ते हो एसे
जैसे पढ़ी जाती है
रद्दी, कबाडी को बेचने
से पहले
बहुत ही सशक्त अभिव्यक्ति ! रचनाजी!
wah rachna ji,
kya abjivyakti hai "suno mujhe ajan aur bhajan ki tarah".
Badhai.
रचना जी,
काबादी को देने से पहले जब किताब को पढा जाता है तो अक्सर ही अपनी समझ पर अपने फैसले पर शर्मिंदगी होते देखि है....
हाँ ,
बिना पढ़े पकडा दे तो और बात है,,,,,
पर बहुत अच्छा लिखा है आपने...बेवक्त आये मेहमान को टालने की गरज से ज्यूं कोई उचटी निगाह से घड़ी देखे,,,,शानदार,,,,,,,,,,,
और ,,,,,
मासूम सी अभिलाषा कोने में दुबक गई और खुद मैं,,,,
अपनी ही सोच का हवं कुंड बनकर रह गई,,,,,
बहुत गहरे भाव,,,,
रचना जी,
'अभिलाषाओं का हवन-कुंड'....गूंगी अभिलाषाओं की सुंदर अभिब्यक्ति.....जो एक नारी के अन्ताकरण मे ही अपने से सवाल करके और उनका जबाब ढूंढते हुए दम तोड़ देती हैं.
कितनी कम अभिलाषाएं हैं जो पूरी हो पाती हैं
बाकी के इंतज़ार मे जिन्दगी निकल जाती है.
rachna ,
bahut hi sundar abhivyakti,magar bahut hi ashaay si sthiti me rakhti hui ,
samajh me nahi aa raha hai ki kya likhe , bhaavon ki gahri abhivyakti , sundar lafjon me .
ख्वाहिश कई थी जो मन से बाहर न निकल सकी,
"अभि " हम दबाते रहे ख्वाहिशे बढती रही ~~~
अच्छे सशक्त शब्दों , कल्पनाओं और उपमाओं का प्रयोग किया गया है. कविता अच्छी चलती रहती है किन्तु अंत तक पहुँचते पहुँचते पुरुष बनाम नारी वाले झमेले में घिर जाती है और कविता का आनंद बिगड़ जाता है.
itne gahre jazbaaton ko bakhoobi likha hai,bahut badhiyaa.....
आप के स्नेह शब्दों का बहुत बहुत धन्यवाद .आप जो भी लिखते हैं मेरे लिए अमूल्य होता है .आशा है की आप के स्नेह और विचार इसी तरह से मिलते रहेंगे
आभार
रचना
aap ki kavita me nai upmayen hai maja aaya padh ke .likhti rahiye
mahesh
रचना जी,
बहुत ही अच्छी कविता, और उस सोने में सुहागा सुन्दर भावाभिव्यक्ती. नई उपमाओं ने तो जैसे चार चाँद लगा दिये हों।
रद्दी, कबाड़ी, घड़ी, दो-वक्त की रोटी, आबरू, भिखारी का गीत और पसीना पॊंछता हुआ आदमी से प्रतीक बहुधा नये-नये हैं, इनके और बहुतेर प्रयोग / अनुप्रयोग आपकी अन्य कविताओं में पढने को मिलेंगे और किसी अभिलाषा को यूँ ही नही मरने देंगे।
इन्हीम शुभकामनाओं के साथ, सादर.
मुकेश कुमार तिवारी
ahsan bhaai is well known for critical comment ,bus apni kavitaaon ki kamiyon ko dekhe ,sune aur mahsos kiye b-gair .
chaliye uooon bhi sahi ,nindak niyre raakhiye aangan kuti chavaay ,hind yugm aapki tippniyon ka bhi parokaar hai .
7311कुछ और ही लिखने जा रहा था,,,,
पर वो शरारत हो जाती,,,
सीधे रचना जी से ही मुखातिब होकर कहता हूँ की ,,,,,
इस कविता का अंत नारी बनाम पुरुष के बजाय किसी और ढंग से करके देखिये,,,,,
जिस से कविता का आनंद आये,,,,,
मसलन,,,,
कोई नदी या पुल जैसी बात हो जाए,,, ,,
पर ध्यान रहे ,,,अंदाज एकदम गैर फ़िल्मी होना चाहिए,,,,,
इस तरह का प्रयोग करके मुझे अवश्य सूचित करें....
सादर
मनु
ये 7311 पता नहीं कैसे प्रिंट हो गया है,,,इसका कोई मतलब ना निकला जाए,,,,
पता नहीं कैसे और क्यूं छाप गया
badiya kavita....der se nazar padi.....nayi upnmaayein hain ekdum.bahut acchi rachna......
मुझे आपके कुछ भाव बेहद पसंद आये, जैसे
...
पहली नौकरी का नियम नामा
...
देखो ऐसे जैसे सूखे खेत
निहारते हैं बादल...
... और भी हैं |
खैर, इस बात पर ज़रूर दुमत है "औरत को ख्वाहिश करना का भी अधिकार नहीं" ...what you seek is what you get, मगर कविता तो कविता की तरह लेते हुए आपकी रचना का सम्मान करती हूँ और इस बात को यहीं पर छोड़ती हूँ !
God bless
RC
जो मैने लिखा है वैसा बहुत बार देखा है .गाँव शहर विदेश सब जगह ये देखने को मिल जाता है कहीं कम तो कही ज्यादा फिर भी यदि मै कविता को "अपनी सोचों का हवन कुण्ड बन गई '" पर ही ख़त्म कर दूं तो कैसा रहेगा
आप कृपा कर बताएं
सादर
रचना
रचना जी,
यही तो मैं भी कह रहा हूँ,,,,,इंसान जो आस पास देखता है वही तो लिखेगा ना,,,?
जो भाव लेकर आपकी कविता शुरू हुई है वो मेरे ख्याल से तो वहीं पर खत्म होगी जहा पर आपने खत्म की है,,,,,
जाहिर बात है के उसमे नारी बनाम पुरुष पर ही बात की जायेगी ,,,
उसमे कुछ और कैसे भर्ती किया जा सकता है,,,,,ये मेरी बाद की टिपण्णी aapko समझाने के लिए नहीं थी ,,,,भले ही aapko मुखातिब होकर कही थी,,,,,,
आपका लेखन स्तर ऐसा नहीं है के मुझ जैसे पाठक aapko कुछ समझा सकें,,,,
अतः सभी तिपन्निया ध्यान से पढें.....
(और हाँ , आपने वो नदी और पुल वाला प्रयोग तो किया ही नहीं...:::::)))))...........)
अरे भाई जान,
अभी दो चार दिन में मेरी भी एक रचना आणि है गलती से यहाँ पर
आप उसमें तो हिंदी उर्दू को ही छांटते रह जायेंगे...और ना ही कोई अर्थ निकलेगा का मेरी रचना का.....
मेरे लिए तो बड़ा मुश्किल हो जायेगा,,,,
:::)))
बहुत ही बढिया |
जिन भावों के आंदोलित होने से कविता लिखी जाए, वही तो उसकी आत्मा होती है
ताना बाना बदला जा सकता, मूल भाव नहीं | मै कविता की अंतिम पक्तियों से सहमत हूँ |
*
झुलसी सी मैं
अभिलाषा संग
दुबक गई
इस तरह
मन के हवन कुंड ने
एक और
आहुति स्वीकार की |
ना जाने ....
कितनी और
आहुतियाँ देने पर
पुरुष जन्म मिलेगा ?
प्रिय रचना
आपने ठीक कहा के कई जगह ऐसी उदाहरण देखने मिलते हैं के औरत को ख्वाहिश का अधिकार नहीं होता | मेरा दुमत मेरा अपना मत है, वह ख्वाहिश होने न होने पर कुछ और भी है, मगर उस विषय को रहने देते हैं !
मेरी टिपण्णी पर अपनी कविता आप बदलें, यह सुझाव नहीं दूँगी! एक कवी ही अपनी कविता को सबसे अच्छी तरह से जनता है | मित्रों की टिप्पणियों का स्वागत करें, अपना विश्लेषण खुद करें के कहाँ क्या ठीक रहा या नहीं रहा, या क्या बेहतर हो सकता है, और फिर तय करें के बदल करना भी है या नहीं और करना है तो क्या करना है | इसी वजह के लिए मैं टिप्पणियों को महत्तवपूर्ण मानती हूँ और उनकी बहुत इज्ज़त करती हूँ, वैसे ही जैसे मैं देख रही हूँ के आपने भी की है !
यह मेरी छोटीसी राय है !
लिखती रहे
दुआएं
RC
आप सभी का धन्यवाद .मै कुछ और सोचती हूँ कविता के लिए .आप सभी के विचारों को ध्यान में रख कर .
यही तो कमाल है टिप्पणियों का आप को सोचने की नई दिशा मिलती है .
आप का पुनः घन्यवाद .आशा है आप का साथ हमेशा ही मिलता रहेगा .विनय जी आप ने बहुत ही अच्छा लिखा है धन्यवाद
रचना
आप कुछ और न सोचें कविता के लिए,,,
कविता आपकी पूरी तरह प्रभावशाली है,,,,,(हाँ,विनय जी की पंक्तियाँ भी बहुत अच्छी लगीं)
पर ये सारी तिपन्निया इस लिए ही हैं की आपने बहुत सही अंत किया है aपनी कविता का,,,,
यदि किसी को कोई कमी लग भी रही है तो आप खुद देखें के इसमें कितना सही है या नहीं है,,,,,
आप अपनी लेखनी को कदापि हल्का ना लें,,,,,,आपके पाठक एकदम नहीं पसंद करेंगे के आप के विचार किसी गलत आलोचना के शिकार बनें,,,,,यही कहने के लिए बार बार कमेंट कर रहे हैं हम लोग,,,,,,२४ में से लगभग २३ लोग(या कमेंट) आपको सही कह रहे हैं,,,,,
ये ना हो के आप किसी गलत आलोचना का शिकार हो कर अपने विचारों से भटक जाएँ या अपनी लेखनी का मर्म खो दें,,,,,,
अब इससे ज्यादा और नहीं समझा सकते .....
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)