याद बन कर मेरे दिल में आज फिर तू छा गई ।
बन के आंसू आज इन आंखों को मेरी भा गई ।।
बालपन से सुन रहा हूं सच सदा है जीतता,
आज लगता मेरी सचचाई ही मुझको खा गई ।
जिसके कदमों में कभी मैने निसारी अपनी जां,
उसकी ही करतूत से अब मेरी शामत आ गई ।
जिंदगी है खूबसूरत, रंग इसमें बेपनाह,
अपनी पर जब आई यह तो कहर मुझ पर ढा गई ।
मै हथेली रेत भर कर खुश हुआ सब मिल गया,
छीनने को वो भी मुझसे सारी दुनिया आ गई ।
फूल बन कर जिंदगी थी खिलखिलाना चाहती,
खिल न पाई जिंदगी और दरद सारा पा गई ।
कवि कुलवंत सिंह
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11 कविताप्रेमियों का कहना है :
वाह ! वाह ! वाह ! आनंद आ गया.....बहुत ही सुन्दर सटीक और भावपूर्ण रचना....पढने का सुअवसर देने के लिए आभार.
जिंदगी है खूबसूरत, रंग इसमें बेपनाह,
अपनी पर जब आई यह तो कहर मुझ पर ढा गई ।
मै हथेली रेत भर कर खुश हुआ सब मिल गया,
छीनने को वो भी मुझसे सारी दुनिया आ गई ।
दो शेर बेहद पसंद आये,,,,,
विशेषकर नीचे वाला,,,,,
बधाई हो,,
तू न होकर भी यहीं है मुझको सच समझा गई ।
ओ मेरी माँ! बनके बेटी, फिर से जीने आ गई ।।
रात भर तम् से लड़ा, जब टूटने को दम हुई.,
दिए के बुझने से पहले, धूप आकर छा गई ।।
नींव के पत्थर का जब, उपहास कलशों ने किया.
ज़मीं काँपी असलियत सबको समझ में आ गई ।।
सिंह-कुल-कुलवंत कवि कविता करे तो जग कहे,.
दिल पे बीती आ जुबां पर ज़माने पर छा गई ।।.
बनाती कंकर को शंकर नित निनादित नर्मदा.
ज्यों की त्यों धर दे चदरिया 'सलिल' को सिखला गई ।।.
बहुत सुंदर रचना ... अच्छा लगा पढना।
याद बन कर मेरे दिल में आज फिर तू छा गई ।
बन के आंसू आज इन आंखों को मेरी भा गई ।।
बहुत सुन्दर गज़ल कुलवन्त जी !
कुलवंत जी तो बढ़िया लिखते ही हैं ..टिप्पणी में सलिल जी की प्रति रचना ने वही बात आगे बढ़ाकर मजा द्वगुणित कर दिया ...
’है बनाती रोज शंकर कंकरो को नर्मदा”.अब छंद में आया है आचार्य जी, भाव आपके उत्तम हैं पर गज़ल व दोहा छंद में अन्तर तो समझना ही होगा ना।
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' said...
तू न होकर भी यहीं है मुझको सच समझा गई ।
ओ मेरी माँ! बनके बेटी, फिर से जीने आ गई ।।
बहुत सुन्दर है भाव जरा बदल लें तो
ओ मेरी माँ! बनके बेटी, फिर जिलाने आ गई ।।
रात भर तम् से लड़ा, जब टूटने को दम हुई.,दामिनी दी थी भगा ]
[दिए] के [दीप के बुझने से पहले, धूप आकर छा गई ।।
नींव के पत्थर का जब, उपहास कलशों ने किया.[यह ठीक है
[ ज़मीं] काँपी असलियत सबको समझ में आ गई ।।
[थी जमीं कांपी समझ में असलियत तब आगई]
सिंह-कुल-कुलवंत कवि कविता करे तो जग कहे,.
दिल पे बीती आ जुबां पर [ये जहां में छा गई] ज़माने पर छा गई ।।.
[ बनाती] कंकर को शंकर नित निनादित नर्मदा.
ज्यों की त्यों धर दे चदरिया 'सलिल' को सिखला गई ।।.
मै हथेली रेत भर कर खुश हुआ सब मिल गया,
छीनने को वो भी मुझसे सारी दुनिया आ गई
बहुत खूब कुलवंत जी
mujhe ye ghajal bahut hi pasand aaya.ji bahut-2 badhayi
आप सभी मित्रों का बहुत बहुत धन्यवाद
कुलवंत सिंह
आप सभी मित्रों का बहुत बहुत धन्यवाद
कुलवंत सिंह
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