फागुन में तुझ पिया
शिथिल है सब अंग
गहने तन पर यूँ पडे
चंदन लिपटे भुजंग
*
सहरा सागर एक से
अवसाद और उमंग
मरे सिपाही के लिये
क्या शांति क्या जंग
*
होली रंगोली स्याह हई
इद्रधनुष अपंग
तुझ बिन मन साधू भया
भगवा हुए सब रंग
*
एक अकेले जीव को
नोंचे कई प्रसंग
रसना विजया जब धरी
गगन मन हुआ पतंग
*
होली दीवाली एक सी
सुदामा के संग
धुल धुसरित मुख घूमते
बच्चे नंगधडंग
*
मन फागुन में मस्त है
साठा तन है दंग
गिरि गुफा में नाचता
साधु कोई मलंग
*
तन तांडव करता रहा
ले डमरु ले चंग
नाचा मन का मौर जब
बजने लगा मृदंग
*
सपने टूटे सांझ पडे
मोह हुए सब भंग
कुछ रंग तरसे अंग को
कुछ अंग तरसे रंग
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12 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत सुंदर लगा।
एक अकेले जीव को
नोंचे कई प्रसंग
रसना विजया जब धरी
गगन मन हुआ पतंग
वाह! भाव और भाषा दोनो बेजोड़। बधाई स्वीकारें।
आपने दोहा-लेखन का अच्छा प्रयास किया है. धीरे-धीरे छंद सध जायेगा. प्रयास करते रहिये. मात्राएँ देखिये... कहीं-कहीं १३-११, १३-११ में चूक है. शब्दों को सही स्वरुप में रखिये . साधू नहीं साधु, धुल धुसरित नहीं धूल धूसरित. 'भया' का प्रयोग खडी हिन्दी में न करें समानार्थी 'हुआ' का प्रयोग करने से मात्रा सामान रहेंगी और अशुद्धि मिट जायेगी, शुभकामनाएं.
माननीय आचार्य जी,
नमन,
यहाँ दोहा लेखन का प्रयास नहीं किया गया है |
दोहा, चोपाई, सोरठा इत्यादि का आरम्भिक ज्ञान मुझे है |
व्याकरण का दामन भले ही छूटे, भाव पक्ष में तनिक भी समझोता मंजूर नहीं | अपनी अपनी शैली है |
टंकण निपुण न होने से साधू धूल धूसरित हो गया|
भया और हुआ के भावों में बहुत अंतर है भया माने बस में नहीं है, हुआ माने नियंत्रण है सहमति है |
व्याकरण एवम भावों की अशुद्धि में से कोई चुनना हो तो व्याकरण की अशुद्धि मेरी प्रायिकता होगी |
आपके मूल्यवान मार्गदर्शन हेतु आभार,
सादर,
विनय के जोशी
सपने टूटे सांझ पडे
मोह हुए सब भंग
कुछ रंग तरसे अंग को
कुछ अंग तरसे रंग
बहुत अछा लगा जोशी जी,
आपको भी होली की देर सवेर सही ,,,,बधाई,,,,,,,,,,,
सहरा सागर एक से
अवसाद और उमंग
मरे सिपाही के लिये
क्या शांति क्या जंग
kya baat hai vinay ji ,hum aapse sau feesdi sahmat hain ,bhavon ki abhvyakti ,sarvopari honi hi chaahiye .
कविता की दो कसौटियां है भाव और शिल्प. मुझे दोनों समान महत्व की प्रतीत होती हैं. तन तथा मन दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे माने गए हैं. पूर्णता तभी है जब दोनों एक दूसरे के पूरक हों. कोई भाव को वरीयता दे या शिल्प को, यह उसकी मान्यता है. मैं तो एक पाठक और रचनाकार के नाते दोनों को समानता से साधने का प्रयास करता हूँ. होना, होनी पर किसा बस? 'होनी तो होकर रहे, अनहोनी ना होय'. 'किया' पर करता का नियंत्रण होता है. कब क्या होगा कौन जानता है? मुझ विद्यार्थी को 'भया' लोकभाषा का शब्द लगता है, जिसका पर्याय 'हुआ' है, का भया? और क्या हुआ? मुझे एक ही बात कहते प्रतीत होते हैं अस्तु... भाई विनय जी! मैंने एक पाठक के नाते अपनी सोच व्यक्त की. रचनाकार के नाते आप अपनी रचना के मानक तय करने का पूरा अधिकार रखते हैं. आपको अपनी शैली के लिए बधाई.
आपकी रचना बहुत ही अच्छी लगी |
बधाई |
अवनीश तिवारी
माननीय आचार्यजी,
मै आपका ह्रदय से आदर ही नही करता वरन आपकी काव्य-प्रतिभा का कायल भी हूँ |
शब्दों से ठेस पहुची हो तो क्षमाप्रार्थी हूँ |
आपका सत्संग और आशीर्वाद सतत प्राप्त होते रहे| यही कामना है |
सादर,
विनय के जोशी
do vinamra aur achchhe logon ko dekh kar bahut hi achchha lagaa,,,
dono ko naman,,,,
विनय जी
होली दीवाली एक सी
सुदामा के संग
धुल धुसरित मुख घूमते
बच्चे नंगधडंग
इतनी खूबसूरत रचना पढने से मैं कैसे वंचित रह गयी ?
इतने सुन्दर शब्द....बहुत खूब भाव
निस्संदेह आप एक उत्तम कोटि के कवि हैं !!
सादर !!!
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