यूनिकवि प्रतियोगिता के दिसम्बर अंक की आखिरी कविता के प्रकाशन का समय आ गया है। दसवीं हम पहले ही प्रकाशित कर चुके हैं, इसलिए नौवीं कविता को आखिरी कविता के तौर पर प्रकाशित कर रहे हैं। इस स्थान की कविता की रचयिता शारदा अरोरा खुद को एक चार्टर्ड एकाउंटेंट बैंक एक्जीक्यूटिव की पत्नी , इंजिनियर बेटी की माँ, इकोनोमिक्स छात्रा बेटी व चार्टेड एकाउंटेंट छात्र बेटे की माँ तथा एक होम मेकर बताती हैं | कॉलेज की पढ़ाई के लिए बच्चों के घर छोड़ते ही, एकाकी होने के कारण इनके मन ने कलम उठा ली| उद्देश्य सामने रख कर जीना आसान हो जाता है | इनका मानना है कि इश्क़ के बिना शायद एक कदम भी नहीं चला जा सकता; इश्क वस्तु , स्थान , भाव, मनुष्य, मनुष्यता और रब से हो सकता है और अगर हम कर्म से इश्क कर लें? पन्तनगर विश्वाविधालय से बी एस सी(होम-साईंस )किया , हिन्दी दसवीं क्लास तक ही पढ़ीं | परिस्थितियों ने कुछ ऐसा ताना बाना बुना कि चाह कर भी कुछ ऐसा नहीं कर सकीं, जिसे प्रोफेशन का नाम दिया जा सके| क्राफ्ट वर्क सिखाने के लिए घर पर ही क्लासेज शुरू की थीं,
जल्दी ही जान गयी थी, व्यापारिक चातुर्य इनमें नहीं है, और ये उस रास्ते पर चलना भी नहीं चाहती थीं| बस फ़िर जो किया तहे दिल से किया| मानवीय मूल्यों की रक्षा, मानसिक अवसाद से बचाव व उग्रवादी ताकतों का हृदय परिवर्तन यही इनकी कलम का लक्ष्य है, जीवन के सफर का सजदा है| 'मानसिक अवसाद से कैसे बचें ' एक छोटी सी किताब २००६ में लिखी थी।
पुरस्कृत रचना- सुबह की डोर
तू रात पकड़े बैठा है
मैं सुबह की डोर थामे हूँ
लम्हे को बरस जाने दो
आ सूरज से गोटा किनारी ले लें
हाथ को हाथ न सूझे जो
ऐसी रातों की सुबह भी होती है
मैं जुगनुओं से हूँ वाकिफ
तारों से मेरी यारी है
चलो खुशियाँ इस बारी ले लें
जुगनू तारों से रोशनी कर लें
जिन्दगी और है भी क्या
सूरज की तपन को तकते हैं
चाँद-तारों की भी आँख-मिचौली है
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ५, ४॰५, ६॰३५
औसत अंक- ५॰२८३३
स्थान- आठवाँ
द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ४॰५, ४, ५॰२८३३ (पिछले चरण का औसत
औसत अंक- ४॰५९४४४
स्थान- नौवाँ
पुरस्कार- कवि गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल' द्वारा संपादित हाडौती के जनवादी कवियों की प्रतिनिधि कविताओं का संग्रह 'जन जन नाद' की एक प्रति।
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5 कविताप्रेमियों का कहना है :
sharda arora ji meri or se kavita ki bahut bahut badhai. puri ki puri kavita bahut achhi lagi mujhe lekin kavita ki starting bahut pasand aai.
तू रात पकड़े बैठा है
मैं सुबह की डोरें थामे हूँ
लम्हे को बरस जाने दो
आ सूरज से गोटा किनारी ले लें
जिन्दगी और है भी क्या
सूरज की तपन को तकते हैं
चाँद-तारों की भी आँख-मिचौली है
बड़ी खूबी से दो पंक्तियों में जिंदगी का फलसफा बयां कर दिया है आपने.....बहुत सुंदर ..:)
aapki kavita ka ras lene se pahle aapke parichay ko padha.........aur sach maaniye kacita se behatar parichay laga....
ALOK SINGH "SAHIL"
शुरुआत की आशा भरी पंक्तियाँ बहुत ही अच्छी लगी........
इस कविता को इतना पीछे तो नहीं अआना चाहिए था मेरे हिसाब से .
डोरें शब्द व्याकरण दृष्टि से ठीक नहीं है,नियंत्रक महोदय इसे `डोर; ;करें ,सम्पादक का कर्तव्य भी यही है की लेखक द्वारा उतावली में हुई गलती को ठीक करे aam
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