मुझे अपना जैसा बनाने के नाम पर
मेरा स्वत्व छिन कर ले गये
बेड़ियां उतारने के बहाने
कुछ नई बेड़ियां जोड़ गये
भोली मैं
अपनी खुशी की दुनियां में
फुदकती रही चहकती रही
अपने केशों को मर्दों की तरह
छोटा कर
जीती रही एक छलावा
पुरूषाये वस्त्र पहन कर
देती रही अपने को
एक भुलावा
भूल गई
घर के साथ दोहरा शोषण
हो रहा आफिस के काम पर
तडा़क सा किया तलाकित
अधिकार देने के नाम पर
ताकि तुम मुझे
सिंगल मदर या
अविवाहित माँ के रूप में
छोड़ कर
मुझसे अपनी नजर मुड़ा सको
नन्हा गुल मुझे सौप कर
गुलछर्रे उड़ा सको।
मैं जिन्दा थी
केवल रिश्तों के नाम पर
फूल पत्तियों से लदी
अपनी जड़ से विहिन
पर व्यक्तित्व देने के बहाने
नोचते रहे पत्तियों को मेरी शाखों से
चिपकाते रहे
ब्यूटीसेलुन के लोशन से
नकली फूल मेरी देह पर
प्रतियोगी मापदंड बना कर
निहारते रहे अपनी आंखो से।
वस्त्रों के आवरण पर आवरण
मुझे ओढ़ा दिये थे
स्वामी होने की भावना से
आदिम पुरूष ने
कि कोई मुझे
झपट न ले
बनाये थे काराग्रह मेरे चारो और
मै नाईटक्लब की बाला सी
देखती रह गई
जब तुमने एक एक भारी आवरण को उतार कर
मुझे हल्का किया बादलों सा
पर उतारते उतारते
यह क्या किया तुमने
उतार ली मेरी चमड़ी तक
कभी फैशन के नाम पर
कभी स्वतन्त्रता के नाम पर
और अभागी मै
वस्तु थी
बच्चे की पैदाईश के लिये
वस्तु रह गई
दुनियां की नुमाइश के लिये।.
-हरिहर झा
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14 कविताप्रेमियों का कहना है :
तुमने जो कुछ भी किया, मुझ पर उसका दोष.
लगा दिया फ़िर भी नहीं, मिला तनिक संतोष.
वसन फेंककर हो रही थी जब तुम निर्वस्त्र.
लांछन-आँसू बन गए थे तब घातक शस्त्र.
अनदेखा जब भी किया, मैंने तेरा रूप.
ललचाया मुझको दिखा, नव्या देह अनूप.
प्रथा निमंत्रित तुम्हीं ने, किया सूर्य को सत्य.
फ़िर शोषण-आरोप क्यों, थोपा आज असत्य?
घर-आँगन को छोड़कर, हुईं स्वयं आजाद.
फ़िर क्यों दर-दीवार की, आज करो फरियाद?
भोक्ता हम दोनों रहे, क्या सब मेरा दोष?
तुमने जो चाहा- जिया, अब किस पर यह रोष?
संबंधों में हमेशा, होते हैं प्रतिबन्ध.
अनुबंधों को तोडकर, तुम्हीं हुईं निर्बंध.
वाह-वाह की चाह में, करी प्रदर्शित देह.
कब चाहा तुमने मिले, तुमको निश्छल नेह.
राखी होकर भी दिए, तुमने वसन उतार.
मिले सफलता इसलिए ठुकराया घर-द्वार.
रूप-देह जब ढल रहे, तब आया यह ध्यान.
शोषण हुआ न पा सकीं, तुम ममत्व-सम्मान.
मुझको भी दुःख है सखे, मिली न संगिनि नेक.
मौन सहूँ अपनी व्यथा, कहती बुद्धि-विवेक.
व्यथा न बाँटेंगे, महज सुन हँस लेंगे लोग.
व्यंग बाण बरसाएंगे, झूठ दिखाकर सोग.
जब जागो तब सवेरा, अब भी सम्हलो मीत.
स्वीकारो धन-यश नहीं, सुख दे सच्ची प्रीत.
-salil.sanjiv@gmail.com
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mahasay ji
namaskar
mujhe ye kabita bahut arthpurn-bhavpurn-marmpuran laga.istri khud istri banne-hone se inkar kar di to ham purush akele dosi kaise ho sakta he.
हरिहर जी,
आप बढिया लिखते हैं...इस बार बहुत अच्छा है..
संजीव जी,
आप थोक भाव में दोहे कैसे लिख लेते हैं...मुझे भी सिखा दें....
निखिल
मैं जिन्दा थी
केवल रिश्तों के नाम पर
फूल पत्तियों से लदी
अपनी जड़ से विहिन
पर व्यक्तित्व देने के बहाने
नोचते रहे पत्तियों को मेरी शाखों से
हरिहर जी,
बहुत ही बढिया लिखा है | गहरे चिंतन के साथ |
बधाई और अच्छी कविता के लिए आभार |
विनय के जोशी
अच्छी कविता हरिहर जी..
आचार्य से निखिल वाला ही सवाल.. :-)
इतनी जल्दी कैसे...
हरिहर जी
एक महिला की मनोदशा को आप कैसे इतनी अच्छी तरह से लिख लेते हैं .इस के लिए आप बधाई के पात्र हैं गहरा चिंतन है आप की कविता में .हाँ आचार्य जी आप को नमन
सादर
रचना
राखी होकर भी दिए, तुमने वसन उतार.
मिले सफलता इसलिए ठुकराया घर-द्वार.
रूप-देह जब ढल रहे, तब आया यह ध्यान.
शोषण हुआ न पा सकीं, तुम ममत्व-सम्मान.
मुझको भी दुःख है सखे, मिली न संगिनि नेक.
मौन सहूँ अपनी व्यथा, कहती बुद्धि-विवेक.
व्यथा न बाँटेंगे, महज सुन हँस लेंगे लोग.
व्यंग बाण बरसाएंगे, झूठ दिखाकर सोग.
जब जागो तब सवेरा, अब भी सम्हलो मीत.
स्वीकारो धन-यश नहीं, सुख दे सच्ची प्रीत.
vaah kyaa baat hai kaduva sach likh diya hai.
अपने केशों को मर्दों की तरह
छोटा कर
जीती रही एक छलावा
पुरूषाये वस्त्र पहन कर
देती रही अपने को
एक भुलावा
भूल गई
घर के साथ दोहरा शोषण
हो रहा आफिस के काम पर
तडा़क सा किया तलाकित
अधिकार देने के नाम पर
ताकि तुम मुझे
सिंगल मदर या
अविवाहित माँ के रूप में
छोड़ कर
मुझसे अपनी नजर मुड़ा सको
नन्हा गुल मुझे सौप कर
गुलछर्रे उड़ा सको।
vastavikata kuchh aisi hi hai.
आपकी कविता अवसाद पूर्ण है ,करो ख़ुद पर यकीन जैसे भाव लेकर आगे चलने वाली महिला के लिए ,नकारात्मक भावः देती है ,अगली बार कुछ
इस भाव से भी लिखे कि वह प्रकृति कि सबसे सुंदर
रचना जिसके बिना पुरूष का अस्तित्व सम्भव ही नही |
मैं नीलम जी की सोंच से इतेफाक रखता हूँ की कविता की मूल सोच नकारात्मक है परन्तु नकारात्मक बिन्दुओं को बहुत खूबसूरती से लफ्जों में पिरोया है. और नीलम जी अगर पुरूष का अस्तित्व औरत के बिना सम्भव ही नही तो औरत भी अपने आप में परिपूर्ण नहीं है. ये एक दूसरे के पूरक है और यदि सहस्तित्व की भावना से रहे तभी जिन्दगी खुशियों से भरेगी.
सभी पाठकों को धन्यवाद प्रतिक्रिया व्यक्त करने के
लिये।
संजीव जी
विशेष धन्यवाद दोहों में प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिये।
नीलम जी, व्यथा की अभिव्यक्ति भी साहित्य की मूल अभिव्यक्तियों में से एक है।
व्यथा की अभिव्यक्ति भी साहित्य की मूल अभिव्यक्तियों में से एक है।
व्यथा की ,विरह , वेदना की व्याख्या महादेवी वर्मा जी ने भी की थी ,आप जो घिनौना सच दिखाते हैं ,वह सिर्फ़ और सिर्फ़ कोफ्त ही देता है , साहित्य ही समाज का दर्पण होता है ,मगर आपका दर्पण आपकी छवि प्रतिविम्बित करता है ,,कुछ अच्छी सोच ,भी दिखाईये ,माफ़ कीजियेगा आप को हम इस पूर्वाग्रह से मुक्त नही कर सकते की आप समाज को कोई दिशा नही देते है ,सिर्फ़ घिनौना सच दिखाते है ,आप अच्छे सह्हित्यकार नही हैं ,आप अपने कर्तव्यों की अनदेखी नही कर सकते ,नारी सिर्फ़ भोग्या नही वह जननी है ,उसे माँ के रूप में बेटी के रूप में और बहन के रूप में भी देखें
नीलम जी
घिनोना सच अगर दिख जाय तो व्यक्ति दिशा तलाश कर ही लेता है। इस हिसाब से मैंने कर्तव्यों की अनदेखी नही की है। पर मैंने कविता में नारी की प्रगति का न कोई विरोध किया है और न ही सच को घिनोना बनाने की कौशिश की है। नारी के जननी रूप या बहन-बेटी के रूप का मैंने स्वागत भाव ही प्रगट किया है – इस रूप में कि मैंने कविता में नारी समानता के नाम पर नारी को भोग्या बनाने के षड़यन्त्र का उद्घाटन किया है । ( आप इस दृष्टी से कविता को पुन: पढ़ें )
इस सन्दर्भ में महादेवी वर्मा के उल्लेख का कोई तुक नजर नहीं आता ।
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