शहर से दूर जहां कोई कॉलोनी भी नहीं..
सिवाय दौड़ती कारों के रौशनी भी नहीं..
सुना है एक नया मॉल बन गया है वहां,
सुना है लोग वहां पांव से नहीं जाते,
रोज़ परफ़्यूम छिड़ककर किसी अजीज़ के साथ,
लोग पहुंचते हैं उस बियाबां में....
एक से एक अजूबे हैं वहां,
मॉल है या कि अजायबघर है..
आदमीनुमा एक रोबोट-सा शख्स,
हर किसी को सलाम करता है,
एक सीढ़ी है जो कि ख़ुद-ब-ख़ुद,
पांव धरते ही चला करती है....
लोग आपस में बात करते हैं,
हंस के,लेकिन इसी खयाल के साथ,
आ न जाये लबों पे उनके कहीं,
घर-गली की कोई देसी बोली...
और सुना है कि उसी जन्नत में,
मूवी टिकटें भी मिला करती हैं...
नीम अंधेरे में या इंटरवल में,
लोग चबाते हैं मकई के दाने..
तीन घंटे की सख़्त मोहलत में,
अंधेरे होते हैं रौशन दम तक..
हॉल की आखिरी "रो" में दो दिल,
एक पॉपकॉर्न की गवाही में,
उरूजे-इश्क तक पहुंचते हैं...
शहर से दूर उस बियाबां में,
जो लोग पांव से नहीं चलते,
उड़ के आते है इस दुकान तलक,
और लुटाते हां दम तलक मोती,
चार पल के सुकून की खातिर...
सुना है जिस जगह है मॉल खड़ा,
वहां शमशान हुआ करता था,
सोचता हूं कि कुछ नहीं बदला,
एक शमशान की छत के ऊपर,
अब भी कई किस्से दफ़न होते हैं,
कभी तो मूवी के बहाने से,
मकई के चंद महंगे दाने से.....
निखिल आनंद गिरि
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14 कविताप्रेमियों का कहना है :
सुना है जिस जगह है मॉल खड़ा,
वहां शमशान हुआ करता था,
सोचता हूं कि कुछ नहीं बदला,
एक शमशान की छत के ऊपर,
अब भी कई किस्से दफ़न होते हैं,
*
बहुत खुबसूरत, सटीक चित्रण |
विनय के जोशी
एक शमशान की छत के ऊपर,
अब भी कई किस्से दफ़न होते हैं,
कभी तो मूवी के बहाने से,
मकई के चंद महंगे दाने से.....
पढ़ कर अच्छा लगा .. याद ताजा हो गई अभी अभी भारत के मॉल देख कर आ रहा हू हर देश के
मॉल का वही किस्सा है जो काव्यात्मक ढंग से
आपने पेश किया है
एक शमशान की छत के ऊपर,
अब भी कई किस्से दफ़न होते हैं,
कभी तो मूवी के बहाने से,
मकई के चंद महंगे दाने से.....
पढ़ कर अच्छा लगा .. याद ताजा हो गई अभी अभी भारत के मॉल देख कर आ रहा हू हर देश के
मॉल का वही किस्सा है जो काव्यात्मक ढंग से
आपने पेश किया है
पिछले रविवार वार्षिकोत्सव पर ये कविता सुनी थी..
समझ लीजिये कि उतनी ही तालियाँ आज फिर पीट रहा हूँ.. :)
तपन जी से सहमत हूँ..आपको रू बा रू सुन ने के बाद अब पढने में वो बात कहाँ.....
सच में उस दिन क्या रंग जमा था इस कविता का.......आपका और नाजिम जी का अंदाज़ अब तक ज़हन से नहीं गया.....
आपकी इस कविता की काफी तारीफ सुनी थी आज पढने को भी मिली ...अच्छी लगी कुछ
अलग हटकर... हमारे ही एक बनावटी चेहरे को दर्शाती हुई...
हरिहर जी,
बाज़ार की ख़ासियत ही यही है कि हर जगह एकरसता छा जाती है...क्या करें....
तपन जी,
तालियां पीटते रहिए, ठंड कम लगेगी...
मनु जी,
बस...शुक्रिया....आप आजकल नाराज़ टाइप चल रहे हैं, इसीलिए ज़्यादा नहीं बोलूंगा..
हरकीरत जी का भी शुक्रिया...आप भी कार्यक्रम में होती तो अच्छा होता...
हे ..राम....!! ये कैसी ग़लतफ़हमी......??????
मैं और आप से नाराज....????? मीर साहेब का शेर है...
|| बैठने कौन दे है फ़िर उसको,
जो तेरी आस्तां से उठता है.||
ये आपके मन में आया कैसे .....???
आपसे नाराज हो के कहाँ जा सकते हैं...??
निखिल जी
वार्षिकोत्सव की याद ताजा हो गयी
निखिल जी, आपका स्नेह सर आखों पर, पर तो मेरा गुवाहाटी में ही निकलना मुश्किल हो जाता है इस तरह के
कार्यक्रमों में भाग लेना तो सपना सा है....अभी हाल ही में दिल्ली से लक्ष्मी शंकर बाजपेयी जी का
भी फोन आया था १६ जनवरी भुवनेश्वर में सर्वभाषा कवि सम्मेलन के लिए मुझे वहाँ भी इनकार करना पडा...
सुनकर दुख हुआ हरकीरत जी....मगर ऐसा क्यूं...वहां निकलने में कैसी मुश्किल है...आप बैठक में अपने अनुभव बांटिए ना...
निखिल
इस विषय पे इतनी सुंदर कविता में तो सोच भी नही सकती थी
शायद ये कविता सबमे बसती है या फ़िर इस के सभी बसते हैं ..भारत में मॉल देखा है सही चित्रण है
सादर
रचना
दुनिया का प्राचीनतम,
देश बना बाज़ार.
फ़िर भी हम ख़ुद से नहीं,
'सलिल' हुए बेजार.
आधी दुनिया मॉल है,
आधी दुनिया माल.
माल-टाल के फेर में,
हैं बाकी बेमाल.
चुप पनघट-चौपाल है.
मौन खेत-खलिहान.
गुमसुम मरती जिंदगी,
मॉल देख हैरान.
संजिव्सलिल.ब्लागस्पाट.कॉम
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
मैं क्या लिखूं, आप तो सब लिख गए, बस इतना ही कहना है कि
इस अजायबघर में ज़िन्दा रखना मकई के दाने
खेतों की श़ुशबू कुछ तो याद दिलाएगी,
ज़मीन से बहुत ऊंचे 50-100 फीट की ऊंचाई से
ज़मीं देखकर कुछ तो एहसास होगा
कभी तो लगेगा कि गमलों में नहीं उगते मकई के दाने...
ज़मीं ज़रूरी है पॉप कॉर्न के लिए..
शायद यही सच आसमां वालों को कभी ले आए ज़मीं पर..
बहुत खूब निखिल जी, शर्मिंदा हूं कि आपसे किया वादा अब तक नहीं निभा सका।
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