मुहब्बत अब
हीर नही रखती
गजल अब
मीर नही रखती
जठर की आग से
भाप बन उड गया
नज़र अब
नीर नहीं रखती
दौलते फ़रेब
साथ हो तो आना
राजनीति अब
फ़कीर नही रखती
भीष्म सोये है
बारुद के ढेर पर
सियासत अब
तीर नही रखती
हरण क्या करेगा
दुर्योधन बेबस
द्रोपदी अब
चीर नही रखती
सभी कुटिया में
आमंत्रित है सादर
सीता अब
लकीर नही रखती
लिफ्ट पर आसक्त
भूली सीढी दर सीढी
नई उमर अब
धीर नहीं रखती
नि:शब्द कत्ल होती
चौराहे पर
इंसानियत अब
पीर नही रखती
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19 कविताप्रेमियों का कहना है :
Bahut khuub. Waah !
वाह!वाह!
बहुत बढिया!बेहद उम्दा!
मज़ा आ गया।
-तन्हा
हद तक के दर्जे का ..
लाजवाब......
तारीफ़ से बाहर की चीज ..
बहुत बढ़िया!
गजब... वाह..
एक एक पंक्ति लाजवाब..ये तीन तो जबर्दस्त लगीं:
दुर्योधन बेबस
द्रोपदी अब
चीर नही रखती
सभी कुटिया में
आमंत्रित है सादर
सीता अब
लकीर नही रखती
लिफ्ट पर आसक्त
भूली सीढी दर सीढी
नई उमर अब
धीर नहीं रखती
क्या बात है विनय जी...
हरण क्या करेगा
दुर्योधन बेबस
द्रोपदी अब
चीर नही रखती
सभी कुटिया में
आमंत्रित है सादर
सीता अब
लकीर नही रखती
लिफ्ट पर आसक्त
भूली सीढी दर सीढी
नई उमर अब
धीर नहीं रखती
नि:शब्द कत्ल होती
चौराहे पर
इंसानियत अब
पीर नही रखती
आप की लेखिनी को,सलाम .क्या लिखूं सब छोटा लगता है
तो बस सलाम लिख दिया
सादर
रचना
जैसा मैं pahale bhi kah chuki hun, ki aap bahut achcha likhte hai isme koi 2 ray nahi! mujhe rachna bahut achchi lagi! bahut-bahut badhi!
मन की भावनाओं को अच्छी तरह से पिरोया है आपने
हर लाइन लाजवाब है
बहुत सटीक चित्रण है , कितने यांत्रिक हो गए हैं हम , नजर अब नीर नहीं रखती और नई पीढी अब धीर नहीं रखती
har shabd aur usame nihit bhaav laajavaab hai
आज जितना पढ़ा उसमे से सबसे सुंदर रचना लगी यह....... बहुत बहुत बहुत ही सुंदर.......प्रशंशा को शब्द नही सूझ रहे......क्या कहूँ........बेजोड़
aapkee lekhni ne natmastak kar diya.......
aise hi likhte rahen.shubhkamnayen.
विनय जी ,
बहुत अच्छा लिखा है आपने और बहुत अच्छे भावों के साथ. बधाई.
^^पूजा अनिल
आचार्य संजीव 'सलिल', सम्पादक दिव्या नर्मदा
संजीवसलिल.ब्लागस्पाट.कॉम / सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम
हीर न रखती मुहब्बत, गजल न रखती मीर
जठराग्नि से उड़ गया, नजर न रखती नीर.
ला फरेब की दौलतें, सियासत नहीं फकीर.
हैं बारूदी ढेर पर, भीष्म त्यागकर तीर.
विवश सुयोधन क्या करे, कृष्णा रखे न चीर.
कुतिया में सब पधारें, सीता तजें लकीर.
सीढ़ी तज है लिफ्ट पर, युवजन तजकर धीर,
कत्ल हुआ चौराहे पर, रखे न इनसां पीर.
मुहब्बत अब
हीर नही रखती
गजल अब
मीर नही रखती
*************
बहुत ही शानदार लिखा गया है विनय जी बधाई के पात्र है
सहज सब्द, सुंदर कविता.अभी अभी हिंद युग्म का पता चला.तलाश पूरी हुई. बधाई .
विस्तार देखिये.
निष्टा का तुक मिला दो
विस्टा से
हिंदी अब कबीर नहीं रखती.
खंजर है
तुम पीठ लाओ
दोस्ती जमीर नहीं रखती.
कुछ नया लिखे
सब मिलकर
पुरानी किताबे उमीदे
समीर नहीं रखती.
तुम अगवा करो
हम अफजल छोडेंगे
तख्ते दिल्ली
नजीर नहीं रखती.
कल फिर जला असफाक
का झंडा
मादरे वतन
कश्मीर नहीं रखती.
लेखो को करनो दो
जिस्म फरोशी का धंधा
कविता रूह है
सरीर नहीं रखती.
अखिलेश श्रीवास्तव
सिनिओर इंजिनियर
जे ओ यल
लिफ्ट पर आसक्त
भूली सीढी दर सीढी
नई उमर अब
धीर नहीं रखती
नि:शब्द कत्ल होती
चौराहे पर
इंसानियत अब
पीर नही रखती
अद्भुत, अर्थपूर्ण ,भावपूर्ण
सादर !!
उत्कृष्ट कविता.... बहुत सी बधाईयाँ ...
अखिलेश जी और संजीव जी की रचनाएं भी अच्छी लगीं..
दो पंक्तियाँ मेरी ओर से -
आतंक का तांडव
चोरी से फैलाएं
कुछ सरकारें अब
वीर नहीं रखतीं
नवजात के मुख में बोटल
फिगर की चाह में
माएँ अब
क्ष्हीर नहीं रखतीं
धन्यवाद
नितिन जैन
realy creative wrighting,i do not have words for my feeling कुछ राजनीति के बारे मैं ............................
राजनीति हर इंसान के अन्दर थोड़ा न थोड़ा, किसी न किसी रूप मैं छुपी रहती है. बस सही वक्त का इन्तजार करता है हर इन्सान का चरित्र. अतः राजनीति और राजनेताओं को कोसने से कोई फायदा नहीं क्योंकि राजनीति का अपना कोई चरित्र नहीं होता बल्कि इसका चरित्र उसका वरण करने वाले के चरित्र पर निर्भर करता है :
ये राम के लिए भक्ति का साधन थी,
तो कृष्ण के लिए युक्ति का साधन,
गांधी के लिए शक्ति का साधन थी,
तो सुभाष-भगत के लिए मुक्ति का साधन !!
पर अफ़सोस आज ये लोगों के सिर्फ़ सम्पति का साधन है....
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