सीमा सचदेव को आप सभी बाल-उद्यान पर रोज़ाना ही सक्रिय देखते हैं। हर महीने काव्य-पल्लवन, प्रतियोगिता या किसी विशेष आयोजन के मार्फत सीमा सचदेव कविता-पृष्ठ पर भी दिखती हैं। सक्रिय पाठिका भी हैं। इनकी एक कविता पिछले महीने की प्रतियोगिता में ११वें स्थान के लिए चुनी गई थी। आइए पढ़ते हैं।
पुरस्कृत कविता- असली नकली चेहरा
चेहरे पे चेहरा लगाते हैं लोग
सुना था
पर आज अपना ही चेहरा
नहीं पहचान पाती मैं
जब भी जाओ
आईने के सामने
ढूँढ़ना पड़ता है अपना चेहरा
न जाने कितने चेहरों
का नकाब ओढ़ रखा है
एक-एक कर जब सम्मुख
आते हैं
अपना परिचय करवाते हैं
तो सच मे ऐसे खूँखार चेहरों से
मुझे डर लगता है
कभी चाहती हूँ
मिटा दूँ इन सभी को
और ओढ़ लूँ केवल अपना
वास्त्विक चेहरा
न जाने क्यों उसी क्षण लगते हैं
सभी के सभी चेहरे अपने से
मुझे इनसे प्यार नहीं
ये सुन्दर भी नहीं
असह हैं मेरे लिए
फिर भी सहती हूँ
क्योंकि
यह मेरी कमजोरी नहीं
मजबूरी हैं
घूमने लगते हैं मेरे सम्मुख
वो सभी चेहरे
जिनको मैं जी-जान से चाहती हूँ
जिनके लिए मैंने अपनाए है
इतने सारे चेहरे
वो चेहरे, जिनकी एक मुस्कान
की खातिर
हर बार लगाया मैंने नया चेहरा
और भूलती गई
अपने चेहरे की पहचान भी
आज उस मोड़ पर हूँ
कि यह चेहरे हटा भी दूँ
असली चेहरे को अपना भी लूँ
तो वो चेहरा सबको
नकली ही लगेगा
मैं खुश तो नहीं
सन्तुष्ट हूँ
कि नकली चेहरा देखकर
कोई मुस्कुरा देता है |
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ६, ६॰९
औसत अंक- ६॰४५
स्थान- सातवाँ
द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ६, ३, ६॰४५(पिछले चरण का औसत
औसत अंक- ५॰१५
स्थान- दसवाँ
पुरस्कार- कवि गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल' के काव्य-संग्रह 'पत्थरों का शहर’ की एक प्रति
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11 कविताप्रेमियों का कहना है :
"...kyoki ye meri kamzori nhi, majboori hai...ghoomne lagte haiN mere sanmukh wo sbhi chehre..."
Aaj ki aapadhaapi aur duniyavi uljhaav se trast insaan ki vyathaa ka sahee chitran kiya hai aapne.
Aur ye... "aaj uss morh pr hooN k ye chehre hataa bhi dooN...to asli chehra naqli hi lagega "
ashaay ho jane ki majboori aur tarhap...dono nzr aate haiN.
Achhi rachna pr badhaaee svikaareiN
---MUFLIS---
आज उस मोड़ पर हूँ
कि यह चेहरे हटा भी दूँ
असली चेहरे को अपना भी लूँ
तो वो चेहरा सबको
नकली ही लगेगा
मैं खुश तो नहीं
सन्तुष्ट हूँ
कि नकली चेहरा देखकर
कोई मुस्कुरा देता है |
ek aurat ka dard.....aurat taumar dusron k liye hi to jiti hai mukhoute lga lga kr...gahre bhav...!
सीमा जी एक औरत के दर्द , उसकी सोच को बहुत खूबी से लिखा है
बधाई
सादर
रचना
हर जगह दिखने वाले असली कम ..नकली ज्यादा चेहरों की अच्छी कविता
अच्छे लेख की बधाई ....
bahut sahi kaha aapne ham subha uthkar jab bhar nikle hai,to apna asli chehra jaise ghar rakh jaate hai, aur kitne hi chehre badalte-2 apna khud ka chehra bhul jaate hai jise ham baad me chah kar bhi nahi apna paate.
सीमा जी सच को उकेरा है आपने..
परिस्थितियोंवश कभी कभी इतने सारे चेहरे ओढ़ने पडते है कि असली चेहरा गुम सा हो जाता है
परंतु जिन लोगों के लिये जो जो चेहरे ओढे गये उनके लिये वही असली हैं ..
'परहित सरिस धरम नहीं भाई'
कभी कभी आभासी प्रतिबिम्ब वास्तवित से ज्यदा खूबसूरत नज़र आता है परंतु असलियत केवल वह निकाय जानता है..
कविता के लिये बहुत बहुत साधूवाद..
बहुत खूब, चहरों की भीड़ मैं
किसी चहरे से निकली सुंदर कविता
सीमा जी... बाल उद्यान पर तो आप लिखती ही रहती हैं...
बधाई स्वीकारें.. कुछ ऐसा ही मैंने अक्टूबर माह की प्रतियोगिता में भेजा था..
कितना घूमा..
पर मुखौटे ही देखने को मिले
चेहरे कहीं खो गये हैं क्या?
आज आइना भी
मुझसे यही कह रहा है!!
आचार्य संजीव 'सलिल', सम्पादक दिव्या नर्मदा
संजीवसलिल.ब्लागस्पाट.कॉम / सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम
चेहरे पर चेहरा चढा, हूँ ख़ुद से अनजान.
मैं अपना ही चेहरा, नहीं सकी पहचान.
दर्पण के सम्मुख सुबह, गुम चेहरे की खोज
डर लगता मुझको बहुत, खून्खारों से रोज.
मिटा सकूँ तो मिटा दूँ, सब निज चेहरा ओढ़.
असली चेहरा भुलाना, घातक जैसे कोढ़.
लगें न अच्छे सह रही, चेहरे हो मजबूर.
उनकी खातिर जो नहीं, मुझसे किंचित दूर.
नकली चेहरों में गयी, असली चेहरा भूल.
गर असली को लूँ लगा, कौन कहेगा मूल?
सुखी नहीं संतुष्ट हूँ, देख हँस रहे लोग.
वे जिनको मैं चाहती, उनकी खातिर जोग.
आचार्य संजीव 'सलिल', सम्पादक दिव्या नर्मदा
संजीवसलिल.ब्लागस्पाट.कॉम / सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम
चेहरे पर चेहरा चढा, हूँ ख़ुद से अनजान.
मैं अपना ही चेहरा, नहीं सकी पहचान.
दर्पण के सम्मुख सुबह, गुम चेहरे की खोज
डर लगता मुझको बहुत, खून्खारों से रोज.
मिटा सकूँ तो मिटा दूँ, सब निज चेहरा ओढ़.
असली चेहरा भुलाना, घातक जैसे कोढ़.
लगें न अच्छे सह रही, चेहरे हो मजबूर.
उनकी खातिर जो नहीं, मुझसे किंचित दूर.
नकली चेहरों में गयी, असली चेहरा भूल.
गर असली को लूँ लगा, कौन कहेगा मूल?
सुखी नहीं संतुष्ट हूँ, देख हँस रहे लोग.
वे जिनको मैं चाहती, उनकी खातिर जोग.
असली चेहरा क्या है आख़िर, कई परतों का मेल
धीरे धीरे उभरे हम पर, यही जीवन का खेल
ढेर से इन चेहेरों में ढूँढो वो इक अच्छा,
जो सबका हित करे, वो ही चेहरा सच्चा
नितिन जैन
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