रंग जीवन के हैं फीके,
प्रश्न चेहरों पर सभी के,
हर जगह उत्तर नदारद,
मील के पत्थर नदारद,
चाल को शिथिल बनाता,
समय-सिंधु का बहाव...
शून्य...को प्रस्थान करता
यात्रा का यह पड़ाव.....
प्रश्न घर में, प्रश्न बाहर,
हंसी मुख पे, चोटिल अंतर
नित नये विश्वास घायल,
स्वप्न का आकाश ओझल...
भंवर से आकर किनारे,
डगमगा जाती है नाव,
शून्य...को प्रस्थान करता
यात्रा का यह पड़ाव.....
बीते कल को कौन संभाले,
आज खड़ा गलबंहिया डाले,
सब अपने हिस्से के साथी,
क्या अंधियारा, कैसे उजाले...
अभी निशां भी नहीं मिटे हैं,
दस्तक देते हैं नये घाव,
शून्य...को प्रस्थान करता
यात्रा का यह पड़ाव.....
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9 कविताप्रेमियों का कहना है :
प्रथम पाठक की शुभकामनाये आपके लिए..
कविता की तारीफ़ ये के आपका प्रवाह कम से कम मेरे लिए तो ग़ज़ल की मस्तियाँ बिखेर देता है.............फ़िर बधाई
निखिल जी,मुझे तो प्रवाह और लय में लिखने में बड़ी तकलीफ़ होती है इसीलिए मैं कोशिश भी नही करता| एक जगह भी मामला बिगड़ जाए तो पूरा मज़ा किरकिरा हो जाता है!
पूरी कविता बहुत बढ़िया है..भाव काबिल-ए-तारीफ!
अच्छे प्रवाह मैं लिखी अच्छी कविता
मज़ा आ गया
भंवर से आकर किनारे,
डगमगा जाती है नाव,
शून्य...को प्रस्थान करता
यात्रा का यह पड़ाव.....
गजब लिखते हो निखिल तुम,
कविता में उतर आते हैं भाव...
हिन्दयुग्म के कविता मंच में बदलाव अच्छा लग रहा है... और अब URL भी बदल गया है.. अच्छा है..
bahut hi matured lagi yah kavita,har baar ki tarah,ANUTHA!
ALOK SINGH "SAHIL"
सब अपने हिस्से के साथी,
क्या अंधियारा, कैसे उजाले...
अभी निशां भी नहीं मिटे हैं,
दस्तक देते हैं नये घाव,
.
Bhai nikhil.
बहुत बढ़िया है
vinay
रंग जीवन के हैं फीके,
प्रश्न चेहरों पर सभी के,
प्रश्न घर में, प्रश्न बाहर,
हंसी मुख पे, चोटिल अंतर
बीते कल को कौन संभाले,
आज खड़ा गलबंहिया डाले,
गजब का लिखा जनाब...
शून्य...को प्रस्थान करता
यात्रा का यह पड़ाव.....
nikhil bhai, bahut sundar likha hai.
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