इस कविता को हिन्द-युग्म पर प्रकाशित करने का खयाल मुझे तब आया, जब मैंने श्री मनुज मेहता द्वारा संकलित वृद्धाश्रम की तश्वीरें देखी। काव्य-पल्लवन का विषय भी यही था, लेकिन इस कविता का जन्म ऐसे ही एक वृद्धाश्रम की हालत देख कर इसके पूर्व ही हो चुका था, अतः मैंने इसे उस समय भेजना उचित नहीं समझा। मनुज मेहता से मैंने वादा किया था कि काव्य-पल्लवन का अंक प्रकाशित होने के बाद मैं अपनी कविता अवश्य भेजूंगा। प्रस्तुत है कविता--आज वे........
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आज वे............
आश्रम के कमरों में
मानवता की खूँटी से
लटके हुए हैं
ज्यों लटकते हैं
घड़े
नदी तट पर
पीपल की शाख से
माटी के।
एक दिन वे थे
जो देते गंगाजल
एक दिन ये हैं
जो मारते पत्थर
दर्द से जब तड़पते हैं
एक दूजे से कहते हैं
अपने सिक्के ही खोटे हैं
रिश्ते
जाली के।
थे जिनके
कई दीवाने
थे जिनके
कई अफसाने
आज
दर-ब-दर भटकते हैं
सबकी आँखों में
खटकते हैं
अब न मय
न मयखाने
होंठ प्यासे हैं
साकी के।
धूप से बचे
छाँव में जले
कहीं जमीं नहीं
पांव के तले
नई हवा में
जोर इतना था
निवाले उड़ गए
थाली के।
क्या कहें !
क्यों कहें !
किससे कहें !
ज़ख्म गहरे हैं
माली के।
--देवेन्द्र कुमार पाण्डेय
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11 कविताप्रेमियों का कहना है :
आप से तो कभी मिलकर ही कोई बात करेंगे .......
पूछ्ना है
के क्या होता है हासिल .तुमको
मुझको तडपा कर ......
behtareen likha hai
थे जिनके
कई दीवाने
थे जिनके
कई अफसाने
आज
दर-ब-दर भटकते हैं
सबकी आँखों में
खटकते हैं
अब न मय
न मयखाने
बहुत ही मार्मिक रचना.
धन्यवाद.
आपका
महेश
थे जिनके
कई दीवाने
थे जिनके
कई अफसाने
आज
दर-ब-दर भटकते हैं
सबकी आँखों में
खटकते हैं
अब न मय
न मयखाने
होंठ प्यासे हैं
साकी के।
वाह क्या खूब लिखा है देवेन्द्र जी ,बहुत अच्छी रचना ....
क्या कहें !
क्यों कहें !
किससे कहें !
ज़ख्म गहरे हैं
माली के।
नई हवा में
जोर इतना था
निवाले उड़ गए
थाली के।
क्या कहें !
क्यों कहें !
किससे कहें !
पूरी कविता का सार
अद्भुत देवेन्द्र जी
सादर !
देवेंद्र जी...
आपकी कविता पढ़ कर वो चित्र भी दिमाग में अपने आप आ गया...
आश्रम के कमरों में
मानवता की खूँटी से
लटके हुए हैं
ज्यों लटकते हैं
घड़े
नदी तट पर
पीपल की शाख से
माटी के।
.
.
क्या कहें !
क्यों कहें !
किससे कहें !..
निवाले उड़ गए
थाली के।
क्या कहें !
क्यों कहें !
किससे कहें !
ज़ख्म गहरे हैं
माली के।
सच कहा है आप ने कुछ असा जोश के अंधी ही हो गई है ये नई हवा
सादर
रचना
देवेन्द्र जी,
बहुत ही मार्मिक शब्द चित्र बनाया है आपने ...
एक दिन वे थे
जो देते गंगाजल
एक दिन ये हैं
जो मारते पत्थर
दर्द से जब तड़पते हैं
एक दूजे से कहते हैं
अपने सिक्के ही खोटे हैं
अपने बुजुर्गों की ऐसी हालत देखकर बहुत तकलीफ होती है .
सादर
^^पूजा अनिल
होंठ प्यासे हैं
साकी के।
बहुत कुछ कह जाती हैं ये पंक्तियाँ। रचना प्रभावशाली है।
-तन्हा
बहुत ही बढिया । अल्प शब्दो में भावनाओ का समन्दर भर दिया ।
सादर
विनय
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