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Thursday, October 23, 2008

कुछ दोहे


मोर पपिहा खेजडी, करता रहा तलाश ।
धीरे धीरे मिट गया, बादल एक आकाश।
.
टपटप टपके टापरा, पिया गये परडेर ।
बरखा से काली पडी, नजर कूप मुण्डेर।
.
पूरनमासी शरद की, अमी पयस बरसात ।
अंक यामिनी गुलमुहर, झुलसा सारी रात।
.
असली सूरत लापता, मुह खोटे अनगीन।
जैसा ओसर सामने, मुखडे पर धर लीन।
.
हेम रजत झंकार नित, गूंजे जाके कान।
गाली सी वाको लगे, आरती अरु अजान।
.
अंधियारा मावस भरा, रोशन बिन्दु प्रहार।
अभिकर्ता जुगनू हुए , चंदा करे व्यापार
,
विनय के जोशी



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11 कविताप्रेमियों का कहना है :

Anonymous का कहना है कि -

अटपटे शब्द हैं बस,अर्थ ढूँढते रहो ,या बनाते रहो

Arun Mittal "Adbhut" का कहना है कि -

हेम रजत झंकार नित, गूंजे जाके कान।
गाली सी वाको लगे, आरती अरु अजान।

आरती अरु अजान में प्रवाह की कमी लगी भाव अच्छे हैं लेकिन शब्द चयन व्यावहारिक नहीं है लेकिन दोहा छंद का प्रयोग प्रासंगिक है

Anonymous का कहना है कि -

pahle ki rachnaaon ki tarah dhaar nahin lagi.
ALOK SINGH "SAHIL"

सीमा सचदेव का कहना है कि -

भाव अच्छे है ,गहराई भी है ,वक्रोक्ति भी लगा | अगर साथ में कुछ शब्दों के अर्थ भी लिख दी होते तो समझाने वाले को आसान होता |

Anonymous का कहना है कि -

दोहे लिखने में मात्राओं का धयान रखना पड़ता है आसान नही होता पर आप ने बहुत अच्छा लिखा है
सादर
रचना

Anonymous का कहना है कि -

joshi ji, mujhe aapke lagbhg sbhi doho k arth samjh aa gaye.sbhi achchhe hai par,..hem rajat jhnkar nit,gunje jaake kaan gaali si wako lage,aarti,aru.ajan...... bahut achchha laga

Straight Bend का कहना है कि -

Kuchh dohe bahut bahut pasand aaye. Abhi jaldi mein hoon, copy-paste ka waqt nahin.

Kuchh shabdon ke arth na samajhme aane ki shiqayat karne ha haq mujhe nahin hai shayad ..
:-)

RC

Manuj Mehta का कहना है कि -

टपटप टपके टापरा, पिया गये परडेर ।
बरखा से काली पडी, नजर कूप मुण्डेर।
.
पूरनमासी शरद की, अमी पयस बरसात ।
अंक यामिनी गुलमुहर, झुलसा सारी रात।
.
असली सूरत लापता, मुह खोटे अनगीन।
जैसा ओसर सामने, मुखडे पर धर लीन।

wah wah kya baat hai kabeer sahab.
wah

Nikhil का कहना है कि -

ठेठ बोली का प्रयोग आपके दोहों को बेहद प्रभावी बनाता है...मज़ा आया....कई गुमनाम होते शब्दों को भी आपने ज़िंदगी दे दी....

Divya Narmada का कहना है कि -

आत्मीय विनत जी
वंदे मातरम.
दोहे देखे. प्रयास में कुछ कमी है. अन्यथा न लें तो सुधार कर सकेंगे.
दोहा १ - अन्तिम अर्धाली में ११ के स्थान पर १२ मात्रायें हैं.
दोहा २- बरखा से काली पडी, नज़र कूप मुंडेर. में अर्थ अस्पष्ट है. बरखा से वस्तु गीली होती है, काली नहीं.
दोहा ३- शरद पूर्णिमा की यामिनी की गोद में गुलमोहर झुलसा कैसे? शरद की चांदनी शीतल होती है, तप्त नहीं.
दोहा ४- दूसरे चरण में अनगीन ग़लत है. अनगिन अर्थात जिसकी गिनती न की जा सके.
दोहा ५- आरती अरु अजान में गण दोष है.'और' के स्थान पर 'अरु' का प्रयोग ग़लत है.
दोहा ६- 'चंदा करे व्यापार' में ११ के स्थान पर १२ मात्राएँ हैं. 'चाँद करे व्यापार' करने से दोष दूर होता है. अन्य दोष भी दूर किए जा सकते हैं. संपादक जी chhand की रचना को सुधार या सुधरवा कर छापें तो अधिक अच्छा हो.
आचार्य संजीव 'सलिल'
सलिल.संजीव@जीमेल.com

Vinaykant Joshi का कहना है कि -

माननीय,
गहरे विश्लेषण हेतु आभार |
आप जैसे विद्वजनों के मार्गदर्शन से साहित्य पथिकों की यात्रा सहज होती है |
-दर्शाए गए बिन्दुओं हेतु प्रयासरत रहूँगा |
-लगातार वर्षा जल से उपजी काई से कोई भी मुंडेर काली पड़ जाती है |आंसुओ की बरखा से काजल फैल गया और आँखों के किनारे (नजर कूप मुंडेर ) काली हो गई |
-कवि के वियोगी भाव के प्रतिनिधि गुलमुहर के रक्त पुष्प पल्लव चाँदनी रात में अंगार से प्रतीत हुए.
व्याकरण तन है तो भाव आत्मा | आदर सहित विनम्र निवेदन है कि भाव संवेदन तनिक प्रखर किया जावे |
सादर,
विनय के जोशी

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