कानों का रिश्ता
बहुत
दिन हुए
मैं अपने कान
तुम्हारे पास रख आया था,
वे कान
तुम्हारे दिल की धड़कन
के साथ
मेरा नाम
सुनने के आदी हो गए थे,
धड़कर
के साथ
मेरा नाम सुन सुनकर
मुझे पैगाम भेजते
और
मैं इसलिए
तुमसे
दूर रहकर भी
मर नहीं पाया था
इधर कुछ दिनों से
मेरे कानों ने
पैगाम भेजने बंद कर दिए थे,
मुझे अपने
कानों से ज्यादा
तुम्हारी
धड़कन पर भरोसा था,
इसलिए
मैं जिन्दा रहा।
एक दिन,
तुम्हारे शहर से
मेरा
एक दोस्त
वापिस लौटा
वह
शहर में
काम ढूंढने गया था
पर
आजकल शहर में
काम नहीं बंटता,
वहां के
सपने झूठे हैं
काम तो ठेकेदारों के पास है
और
वह उन्हें बन्धुओ मजदूरों
से करवाते हैं
मेरा
दोस्त आजाद तबियत का
शख्स था,
वह
बन्धुआ मजदूर नहीं बन सका
उसने
कूड़ा बीनना शुरू कर दिया
एक दिन
उसने
तुम्हारे घर के
बाहर रखे कूड़ेदान में
हाथ डाला
तो
उसके हाथ लगे
वह
उन्हें पहचानता था
उसने भी
तुम्हारी तरह
इन कानों से
बहुत बातें की थी
और जब मैं
कान तुम्हें दे आया था,
तो वह मुझसे बहुत
नाराज
हुआ था
वह उसी दिन
गांव वापिस आ गया
उसने
कान मुझे
लौटा दिए
मैंने
कानों से लाख पूछा
पर
उन्होंने कोई जबाव नहीं दिया
मैं कानों को
डाक्टर के पास ले गया
डाक्टर ने
कई तरह से उलट-पुलट कर
आले लगा कर
उन्हें देखा
पर उसे
कुछ समझ नहीं आया
मैं
बहुत घबरा गया था।
कानों से ज्यादा
मुझे तुम्हारी फिक्र थी
तुम्हारी धड़कन
जो इन
कानों के बिना
धड़कना
बन्द करने की धमकी देती थी
उस धड़कन
की फिक्र थी
मैं गांव के ओझा के
पास गया
उसने मंत्र फूंका
कान
बोलने लगे
तुम्हारी
धड़कन मुझे
साफ सुन रही थी
वही की वही थी
पर
इस धड़कन में तो
बहुत से नाम थे,
और
उन नामों में मेरा नाम
नहीं था
अब
कान मेंरे लिए
बेकार थे
मैं उन्हें
ओझा के पास छोड़ आया
मेरा
जीवन भी मेरे लिए बेकार था
इसलिए
मैं
मर गया
मेरी रूह अब भी
ओझा के
घर के
चक्कर काटती है
और
कानों से
तुम्हारी धड़कन और मेरा नाम
सुनना
चाहती है
मैं क्या करूं।
11 pm रात्रि
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
kaan hi kaan ,iske kan uske kaan ,kiske kaan
kavita ki aakhiri linen kaafi prabhaavi hain
मेरी रूह अब भी
ओझा के
घर के
चक्कर काटती है
और
कानों से
तुम्हारी धड़कन और मेरा नाम
सुनना
चाहती है
मैं क्या करूं।
ये क्या है?? कविता तो शर्तिया नहीं है....आपकी diary का एक पन्ना तो नहीं है....वैसे, आपका अनुभव सुनकर बड़ा दुःख हुआ...
काश इतने गहरे भावः में आप एक और ग़ज़ल कहते तब ज्यादा समझ पाते लोग, युग्म पर दो अच्छी कविताये न हैं आज | एक बात तो मैं भी न समझ पाया की ग़ज़ल के जानकार होकर यह क्यों लिख रहें हैं आप -वही
बहुत
दिन हुए
मैं अपने कान
तुम्हारे पास रख आया था,
वे कान
तुम्हारे दिल की धड़कन
के साथ
मेरा नाम
सुनने के आदी हो गए थे,
धड़कर
के साथ
मेरा नाम सुन सुनकर
मुझे पैगाम भेजते
और
मैं इसलिए
तुमसे
दूर रहकर भी
मर नहीं पाया था
ye kya kah diya
कविता के भाव बहुत ही अच्छे हैं
सादर
रचना
इधर कुछ दिनों से
मेरे कानों ने
पैगाम भेजने बंद कर दिए थे,
मुझे अपने
कानों से ज्यादा
तुम्हारी
धड़कन पर भरोसा था,
इसलिए
मैं जिन्दा रहा।
एक दिन,
तुम्हारे शहर से
मेरा
एक दोस्त
वापिस लौटा
वह
शहर में
काम ढूंढने गया था
पर
आजकल शहर में
काम नहीं बंटता,
वहां के
सपने झूठे हैं
काम तो ठेकेदारों के पास है
वाह बहुत खूब. ह्रदय से बधाई.
श्याम जी,
बहुत सुंदर कविता लिखी है आपने. पढ़कर दिल खुद हो गया.
alag hi dish mein ja rahi kavita.pahli 3,4 panktiyon mein gaurav bhai ki jhalak lagi par jald hi ehsas ho gaya ki yah koi behad dukhad varnan hai.
achha reportaj.
ALOK SINGH "SAHIL"
मित्रो ,यह कविता बकौल अनोनिमस महाशय वाकई इन्टरनेट के काबिल नहीं हैं जहाँ लोग सर्फिंग करते हैं ,ठहरते नहीं ,मैं ख़ुद तो इसे अपनी बेहतरीन रचनाओं में से एक मानता हूँ ,[यह कविता १९९२ में लिखी गयी थी और इसे अनेकानेक कविता प्रेमियों का स्नेह भी मिल चुका है],कथा कलश पर पोस्ट कहानी `रसभरी के टक्कर की,अगर आप इस कविता का वास्तविक आनंद उठाना चाहते हैं ,तो पहले रसभरी पढ़ें ,फिर इसे दोबारा पढें ,अगर वक्त हो तो,श्यामसखा श्याम
पुरी रचना थोडी लम्बी लगी पर फिर भी जोड़े रखती है.कुछ पंक्तिया बेहद खुबसूरत है.जैसे-
"मुझे अपने
कानो से ज्यादा
तुम्हारी
धड़कन पर भरोसा था,
इसीलिए
मै जिन्दा रहा"
साथ ही अंत में भी पंक्तिया बहुत खुबसूरत लगी.
यह कविता मुझे आपकी सबसे अच्छी कविता लगी। इसमें जो प्रयोग हुए हैं, वे बहुत रोचक हैं। अंत आते-आते तक मैं हँसने लगा। बहुत बढ़िया।
वाह वाह, वाह वाह, वाह वाह
श्याम जी बेमिसाल कविता मर्म को समझ पाए हर किसी में ऐसा दिल नही ( हालाकि ऐसा कह कर हम ये साबित करना चाहते है की हमारे पास मर्म को समझने वाला दिल है :) :) )
एक अच्छी कविता पढ़वाने के लिए धन्यवाद
वीनस केसरी
bahut sunder dil ki awaaz
well composed
regards
syamji kai kavitayen munch pr padhi jayen to jyada acchi lagti hain. mujhe yaad mai yeh kavita pehle bhi aapke muh se sun chuki hun, yeh aapki ek behtreen kavita hai bhot gehre bhav liye,bilkul hridaye se nikle udgar. pr ab aapko oja ke chackar band kr dene chahiyeaur bhi kai log hain jinke......harkirat haqeer
अच्छी कविता!
कविता का अंत अच्छा है... पर लगता है कि अब रसभरी पढ़नी पड़ेगी...
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