मैं
रो नहीं रहा
यह तो कुछ अन्यायी
पलों की किरचें है
जो पलकों के किनारे
चुभ गई है
बस उन्हे निकालने को
आँखों से पानी
बह चला हैं
तुम्हारा भाई मुक्त उन्मुक्त
पर तुम्हे खिड़की से झांकना भी मना
तुम्हारे कपडों का
जाँच और बहस के बाद
तय किया जाना
मैं बाजार से आता
तुम सहमी पढ़ती होती
भाई कम्प्यूटर पर
मोबाईल
दोस्त
अंतरजाल
तुम्हें वार्जित ,
वर्जित तुम्हारा ऊँचा बोलना
तेज आवाज मे गाना
आरोपों का उत्तर देना
ओह !
फ़िर सब कुछ धुंधला हो गया
मैं रो थोड़े ही रहा हूँ
मुझे रोने की
फुर्सत भी नही है
रोना मेरे लिए विलासिता है
अभी तो हर पल
मेरे अहसास को
तुम्हारे साथ रखना है
जो तुम्हे बेटी होने की
याद दिलाता रहे
मैं रो नही रहा
यह तो कुछ
अन्यायी पलों की किरचे है
जो पलकों के किनारे खरोंच जाती है
रंगहीन लहु नजरों के साहिल से
छलक जाता है
मैं रो नही रहा ........
रोऊंगा तो तब
जब तुम
ससुराल चली जाओगी
क्योंकिं
तब मैं तुम्हारी चौकसी
किसी और का सौंप
बेरोजगार हो जाऊंगा |
.
विनय के जोशी
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20 कविताप्रेमियों का कहना है :
यह एक बड़ा विषय है ,और मुद्दा है कि हमारा रोजगार क्योँ अपने ही अंश कि चौकसी करना है ,एक सही मार्गदर्शन क्योँ पर्याप्त नही है ?कविता अत्यन्त मर्मस्परसी है ,आप माँ का भी दिल रखतें हैं , यह जानकर और भी अच्छा लगा
"जब तुम
ससुराल चली जाओगी
क्योंकिं
तब मैं तुम्हारी चौकसी
किसी और का सौंप
बेरोजगार हो जाऊंगा |"
हर किसी का दर्द....आखिरी पंक्ति तो बहुत ही गहरी है....."मैं बेरोजगार हो जाऊँगा..." वो भी इस तरह से...वाह, क्या खूब कही....
अच्छी और दिल को छूती हुई कविता है।
शीर्षक अपनी ओर खीचता है.....कविता टुकडो टुकडो में अच्छी लगी.....
यह रचना निस्संदेह हीं सब के हृदय को छुएगी , क्योंकि ये बातें हम सब की जिंदगी से जुड़ी है।
बधाई स्वीकारें।
दिल को छू गयी आपकी कविता
सुमित भारद्वाज
कविता बहुत अच्छी लगी
मेरे बडे भैया ने मुझे ये कविता पढाई
निधि भारद्वाज
विनयजी
रुला दिया आपने, मेरी बेटी भी होस्टल में हे
मेरी पत्नी मेरे सीने से लग कर फफक पडी
बेटी तो बाबुल की बगिया का वह पौधा है जिसकी सिंचाई आंसुओं से होती है
धर्मेश्वर 'धवल'
sunder rachana
likhatey raheiye
बहुत बढिया विनय जी,
हृदयस्पर्शी रचना..
तुम्हारा भाई मुक्त उन्मुक्त
पर तुम्हे खिड़की से झांकना भी मना
तुम्हारे कपडों का
जाँच और बहस के बाद
तय किया जाना
मैं बाजार से आता
तुम सहमी पढ़ती होती
भाई कम्प्यूटर पर
मोबाईल
दोस्त
अंतरजाल
तुम्हें वार्जित ,
वर्जित तुम्हारा ऊँचा बोलना
तेज आवाज मे गाना
आरोपों का उत्तर देना
ओह !
फ़िर सब कुछ धुंधला हो गया
मैं रो थोड़े ही रहा हूँ
रोऊंगा तो तब
जब तुम
ससुराल चली जाओगी
क्योंकिं
तब मैं तुम्हारी चौकसी
किसी और का सौंप
बेरोजगार हो जाऊंगा |
सुन्दर अभिव्यक्ति...
मैं रो नही रहा
यह तो कुछ
अन्यायी पलों की किरचे है
जो पलकों के किनारे खरोंच जाती है
रंगहीन लहु नजरों के साहिल से
छलक जाता है
मैं रो नही रहा ........
रोऊंगा तो तब
जब तुम
ससुराल चली जाओगी
क्योंकिं
तब मैं तुम्हारी चौकसी
किसी और का सौंप
बेरोजगार हो जाऊंगा |
वाह बेहद मर्म स्पर्शी.
.
अति सुंदर रचना ,हृदय को छूने वाली |दर्द को शब्दों में आपने बखूबी पिरोया है |
मैं बाजार से आता
तुम सहमी पढ़ती होती
भाई कम्प्यूटर पर
मोबाईल
दोस्त
अंतरजाल
तुम्हें वार्जित ,
वर्जित तुम्हारा ऊँचा बोलना
तेज आवाज मे गाना
आरोपों का उत्तर देना
ओह !
फ़िर सब कुछ धुंधला हो गया
मैं रो थोड़े ही रहा हूँ
रोऊंगा तो तब
जब तुम
ससुराल चली जाओगी
क्योंकिं
तब मैं तुम्हारी चौकसी
किसी और का सौंप
बेरोजगार हो जाऊंगा |
क्या बात है कितना दर्द है पर सच ही तो है
सादर
रचना
क्या बात है..
बेरोजगार हो जाऊँगा... बहुत खूब...
अच्छा लिखा है.
पहली बार पढ़ने पर कविता अच्छी लगी दूसरे बार कुछ कमी लगी , देखें anonimous
मैं बाजार से आता
तुम सहमी पढ़ती होती
भाई कम्प्यूटर पर
मोबाईल
दोस्त
अंतरजाल
तुम्हें वार्जित ,
nice sachchee bat
maa badaulat joshi ji,
कमाल कर दिया आपने.
गजब लिखा है.
अद्भुत!!
अलोक सिंह "साहिल"
बहुत ही बढ़िया कविता है विनय जी।
रचना को स्नेह देने पर सभी का आभारी हूँ |
सादर,
विनय
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